जीवन जैसे जैसे समाप्ति की और अग्रसर हो रहा था,
जीने का लगाव और गहरा हो रहा था।
देखा हुआ और अधिक देखने की
उत्कंठा बढ़ रही थी।
भोगा हुआ और अधिक भोगने का
भ्रम बना हुआ था।
चाहा हुआ और अधिक चाहने का
लालच विस्तृत हो रहा था।
अधूरी कामनाएं रोकने का हर प्रयास
विफल हुआ जा रहा था।
लालसा, इच्छा, वासना शरीर का गुण था जीव का नहीं,
फिर भी इस से बच निकलना
किसी तरह संभव न था।
जीव और अधिक जीवन चाहता था अथवा मुक्ति, यह तो वही जाने,
लेकिन काया स्वयं को जर्जर होते देख कर भी
जीने का गुमान बनाये हुए थी।
हे मृत्यु देव, तुम्हारी आराधना संभव नहीं !
और
जीवन की आराधना के लिए कोई देव उपस्थित नहीं।
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