सोमवार, 14 जून 2021

संस्मरण - माँ की रोटी

 मेरी डायरी से अंश-


                                         




''संस्मरण - माँ की रोटी''

बात जनवरी 2018 की है। अमूमन जनवरी महीने में मेरी भारत यात्रा होती नहीं है, लेकिन उस साल किसी कारण जनवरी के महीने में एक सप्ताह के लिए मैं अकेली ही भारत गई थी। मेरी फ्लाइट उदयपुर पहुंची देर शाम को। एयरपोर्ट से निकल शहर की सड़कों पर कुछ नए, कुछ पुराने दृश्य देखती हुई मैं जब भाई के साथ घर पहुंची तो माँ दरवाजे पर ही प्रतीक्षा करती खड़ीं थीं। वे लगभग दौड़ कर नजदीक आईं और ख़ुशी की आवाज़ में ''गुड़िया'' कहते हुए मुझे गले लगा लिया। यह जो दृश्य था, जब भी मैं भारत जाती और माँ के घर पहुँचती तब हर बार कमोबेश ऐसा ही हुआ करता था। यहाँ तक कि मुझे भ्रम होता था कि मैं राम हूँ और माँ अहिल्या बनी वहीं सदियों से मूर्तिवत मेरी प्रतीक्षा करती रहती हैं कि कब मैं पहुँचूँ और कब वे मुझे गले लगा कर अपनी तपस्या को पूर्ण होते देखें! । इसके विपरीत, सच कहती हूँ, दरवाजे पर माँ के मुख से मेरे नाम की पुकार सुन लेना और उनका मुझे गले लगा लेना -  ''इतना'' हो जाना ही मेरी भारत यात्रा को सफल बनाने के लिए पर्याप्त था (अब ऐसा दृश्य पुनः कभी नहीं होगा)! 

घर में प्रवेश करते ही माँ के साथ बातों का पिटारा खुल गया था, बहन भी वहाँ आ गई थी, हम सब एक साथ मिल गए तो खाने पीने का ध्यान ही नहीं रहा। बहुत सी बातें करते करते अँधेरा होने लगा  था। माँ ने कहा कि ''अब देर हो गई है, बातें तो चलती रहेंगी, पहले कुछ खा लो!'' तब मैं उठ कर जल्दी से गरम पानी से नहा आई। (उदयपुर में सर्दी रहती है जनवरी  महीने में, तब गरम पानी से नहाना ही रुचिकर लगता है )

 इस बीच माँ ने गरमा गरम चपाती बना दी। दूसरी तरफ कड़ाही में आलू भिंडी बनाने को रख दिए। मगर माँ के हाथ से बनी चपाती की खुशबू और करीब दो दिन की हवाई यात्रा की थकान ने इस बीच भूख पूरी तरह जागृत कर दी थी। और मैंने माँ से कहा कि ''आप तो बस कोरी चपाती ही खिला दो जल्दी से।'' यह बताना बहुत ज़रूरी है कि उनकी कोरी चपाती का भी एक अलग ही रस लगता है मुझे, (बिना नमक की उनकी रोटी ऐसी कि हर तरफ से एक समान पकी हुई, न सख्त और न ही नरम, तिस पर एकदम रसीला स्वाद) और हमें इतनी पसंद थी वह कि बहुत बार ऐसा होता था कि हम भाई बहन उनके हाथ की बनी चपाती बिना सब्जी के ही खा जाते थे।  संभवतः किसी को यह बात अतिशयोक्तिपूर्ण प्रतीत हो किन्तु पूर्णतः सत्य है यह और यह बात केवल मैं ही नहीं कहती बल्कि जिन लोगों ने भी मेरी माँ के हाथ की बनी चपाती खाई है वे सभी गवाही देंगे कि मेरी माँ के हाथों से बनी चपाती का पूरी दुनिया में कोई सानी नहीं। मैंने दुनिया भर का खाना खाया है लेकिन माँ के हाथ की चपाती जैसा स्वाद आज तक कहीं नहीं मिला है। मैंने उनसे ही सीखा है किन्तु मैं ठीक वैसा नहीं बना पाती। पता नहीं कैसे बनाती थीं वे कि सादी चपाती का स्वाद भी छप्पन भोग पर भारी पड़ता था!! (अब हमें ऐसा स्वाद भी पुनः कभी नहीं मिलेगा)! 
 
खैर, मेरे कहने पर माँ सादी चपाती ही ले आई। मैं भी पालथी मार कर जम कर बैठ गई। वे आकर मेरे पास बैठीं, थाली से रोटी का निवाला/ कौर तोड़ कर उन्होंने मुझे अपने हाथों से खिलाना शुरू कर दिया (अब इतने बड़े हो चुके बच्चे को कौन इतना प्रेम करेगा कि अपने ही हाथ से खाना खिलाये!) !  पहला निवाला मुख में लेते ही जो स्वाद आया कि तृप्ति का भाव उमड़ आया और भावनाओं के अतिरेक में आँखों में आँसूं  तैर आये। मैं अपने आँसूँ रोक नहीं पा रही थी और माँ का प्यार भी छलकता जा रहा था। मेरा मन इतना भर आया कि भीगे नेत्रों की ख़ामोशी में मैंने भी रोटी का निवाला तोड़ कर माँ को खिलाना शुरू कर दिया। माँ कहती रहीं कि तू तो खा ले पहले, लेकिन रुंधे गले से मैंने कहा कि आप भी तो खा कर देखो कि कितनी स्वादिष्ट रोटी है! माँ बेटी के आंसुओं से भीगी वो रात भी पूरी तरह भीग गई होगी! बस, निःशब्द उस स्वाद को जी रहे थे हम! (अब ऐसा मिलन भी पुनः कभी नहीं होगा)

रोटी का रसीला स्वाद हो गईं,
हर दिन की अब याद हो गईं,  
माँ कल तक बस मेरी माँ थीं, 
भू, जल, नभ, आकाश हो गईं! 

नोट - माँ का साथ छूटे आज पूरा एक साल बीत गया। बहुत से बहुत अधिक याद आती हैं माँ।
-पूजा अनिल