शुक्रवार, 29 मई 2020

अनुभूतियाँ 

साथ चलना आसान न था

हम एक दूसरे को अनुभव करते हुए 

कुछ दूर तक साथ चले 

आखिरी बार उस शांत झील किनारे 

हमने अपने आंसुओं से सुख लिखा 

और 

बिछड़ कर एक दूसरे की याद में रहने लगे 

धूप और छाँव की तरह 

अपनी अनुभूतियों का आना जाना 

तरंग दर तरंग देखा हमने 

और 

देखा यह कि हमारा साथ कितना सुखद था! 

जीवन में पीछे छूटा हुआ सुख 

आगे आने का वादा कहाँ करता है! 

जीवन लेकिन अपनी ही गति से चलता है।  

तुम थे तो तुम्हारे नाद से मेरी सुबहें जागीं 

तुम नहीं हो तो तुम्हारे ही मौन से 

मेरी सांझ को रंग मिलता है। 
 
मन के कितने मौसम बदल गए 

लहरों की तरह हम बन बन कर मिट गए।  

विदाई वाला अँधेरा जाता नहीं मन से, 

सुनो, अब यादों से भी विदा कर दो न!  

-पूजानिल 

मंगलवार, 26 मई 2020

वापसी

चेहरे की झुर्रियाँ बता रहीं थीं 
कि आत्मा पर 
अनावश्यक अनिचछाओं का बोझ है । 
अपने सुंदर सलोने रूप के 
तुलनात्मक अनुपात में सोचूँ 
तो आत्मा अनन्त गुना सुंदर होनी चाहिये । 
मैं समझती हूँ कि 
अनिचछाओं ने किया त्वचा को  झुररीदार 
और ह्रदय को अपवित्र। 
मुझे माफ़ करना ईश्वर! 
मैं उतनी पवित्र और स्वच्छ-सुंदर आत्मा 
तुम्हें नहीं लौटा पाऊँगी 
जैसी तुमने उस अबोध कन्या को 
धरती पर भेजते हुए भेंट की थी। 
-पूजानिल 

शनिवार, 16 मई 2020

चिरंजीवी भव 


1.
रेत के कणों सी
बेबस उड़ रही है। 
ज़िन्दगी है कि वाष्प है?
महसूस कर भी लो तो 
हाथ आती नहीं है! 
मन जल रहा है, 
उन सब के दुःख से, 
जो चले गए यहाँ से दूर 
किन्तु   
वे इस धरती के मेहमान थे।  
देखो न, 
धरती ने अपना वादा निभाया है,  
उनको दी है 
जगह 
अपने विस्तृत सीने पर।  
जहाँ सर रख कर सोना 
सबसे आरामदेह लगता है 
अनुभूति में वो माँ का साया लगता है।

2.
सुनिश्चित है जीवन अवधि,
बीत जाने की कला सीख लेनी चाहिये। 
लेकिन, मन कैसे माने?
यह क्या जन्मों से ही नादान है? 
बीत जाने का अर्थ न कभी समझ पाया है न समझेगा। 
और समझे भी तो क्यों समझे? 
इसकी मंशा तो सदैव यही रहेगी न, 
रेत का कण उड़ जाए लेकिन बीतने  न पाए, 
दीवार में चुन जाए लेकिन बीतने न पाए,
किसी रेत के टीले पर से उड़कर 
अन्य किसी टीले पर पहुँच जाए, 
लेकिन 
बीतने न पाए! 
कितना खारापन घुल गया है हवा में, 
ज़िन्दगी है कि बादल है, बरसती ही जा रही है! 
-पूजानिल 

मंगलवार, 5 मई 2020

एक वाइरस ने  बदला धरा को विशाल कब्रिस्तान में

कितना लाचार महसूसती होगी
न यह पृथ्वी!
कैसे हर सांस निशब्द रोती होगी!
बीज की जगह 
बेजान देहों से 
भरी जा रही है इसकी मिट्टी, 
मासूम किलकारियों की जगह 
करुण क्रंदन से 
गूँज रही है हर एक वादी।
मन करता है कि मैं 
बन जाऊँ आकाश, 
अपने बड़े से आलिंगन में 
समेट लूँ सम्पूर्ण पृथ्वी का दुख, 
धरती के मौन से पहचान लूँ 
आंसुओं का गीलापन।
मैं जानती हूँ 
धरती का रुदन सुनने के लिए 
ओस बनना होगा! 
-पूजानिल

मंगलवार, 14 जनवरी 2020

बदलाव 

साल बीतने से पहले 
रूठा हुआ समय बीत रहा था..
मन का अधखिला मौसम बीत रहा था 
उदास शामों का नील-पनील स्कार्फ़ 
और चाय का अदरकी सिप बीत रहा था 
कुछ उड़ती ज़ुल्फ़ों के नक़ाब संग 
आसमान का मिज़ाज बीत रहा था 
“मैं” ही कहाँ ठहर पाया..
जाती हुई जगमग रात के साथ ही 
मेरा उद्दंड “मैं” बीत रहा था।
-पूजानिल