-“बहु! दीपेश आ जाए तो
कहना ज़रा इधर आये, सब से मिल ले...”
-“ मणि बेटा! गया कहाँ है दीपेश?
कुछ तो कहा होगा!!”
कभी
माँ जी सवाल करती कभी बाबू जी पूछ लेते. क्या जवाब दे मनस्वी..! दृष्टि थी कि मुख्य द्वार से हटती ना थी| उसकी
नज़रें जब दीपेश को ना देखतीं तो चिंता को देखतीं| वो चाहती कि चिंता ना दिखे उसे,
दीपेश दिख जाए, चाहना भर चाहत को पूरा नहीं कर पाता| ठीक वैसे ही जैसे पीड़ा के
पलों में चाहने भर से हंसी नहीं आती, जैसे चाहने भर से किसान की खेती नहीं हरी
होती या जैसे चाहने भर से धूप की तेजी नहीं कम होती|
आस
पड़ोस के पहचान वाले, नाते रिश्तेदार, दूर पास के मित्र और कितने ही लोग आ रहे थे,
जा रहे थे, वो सभी को देख रही थी, दीपेश कहीं नहीं दिख रहा था| ना आते हुए ना ही
जाते हुए, जाने कहाँ अलोप हुआ था! आप जिसे देखना चाहे उसका यूँ एकाएक विलुप्त हो
जाना उसके अस्तित्त्व को नकारने का आभास देने लगता है|
वहाँ
अनन्त तक गूंजते किन्तु मणि के कानों को न सुनाई देने वाले शोर के बीच एक तो थी
मणि और दूसरी और थी सायों से हिलते लोगों के बीच से गुजरती मणि की दृष्टि| उसकी
दृष्टि बाहर के दरवाजे तक यात्रा करती और दीप की अनुपस्थिति बटोर लाती| ऐसी सघन
अनुपस्थिति कि मानो विचारों में भी दीप की उपस्थिति का आभास न बचा हो!! दृष्टि का
अनुपस्थिति बटोर लाना मणि को टनों मायूसी दे रहा था|
किन्तु
दीपेश कहाँ होगा? क्या उस पर कुछ जादुई असर हुआ होगा जो इस तरह अदृश्य हुआ है!! सवालों का भेष बदल
देने से सवाल अपना वजूद नहीं भूल जाने देते. हैरानी के वेश में भी सवाल हवा में
टंगी निर्वस्त्र तलवार सी चमक और धार कायम रखते हैं| मनस्वी भी इन्ही हैरान करते
अम्बर विहीन, निरे प्रश्नों के
बीच पूरी तरह असहाय, निराश्रित सी डोल रही थी|
होली
का त्यौहार है, परिवार और मित्रगण आँगन में उत्सव गा रहे हैं| ठंडाई, भांग, भुजिया
गुझिया, समोसों का दौर थमने
का नाम नहीं ले रहा| रंग अबीर से सराबोर लोग गाहे बगाहे मनस्वी से दीपेश के लिए
पूछ लेते. अतिथियों की खातिरदारी में लगी घर भर की छोटी बहू, सबकी चहेती मणि
फिक्रमंद होते हुए भी हल्की मुस्कान बिखेर कह देती “
बस,
अभी
पहुँचते ही होंगे!”
पर
मनस्वी का मन? उसका मन आशंकित आकुल व्याकुल उलझे सवालों का गुलदस्ता बना हुआ था|
उलझन उसका पैरहन बनी उस समय और आकुलता श्रृंगार| आशंकाएं आँख में काजल सी सजी थी|
व्याकुलता उसके होंठों पर लाली बन दमकी| उब डूब मन लिये वह बार बार जाकर राधिका
भाभी के सामने खड़ी हो जाती| अनमनी सूरत, हाथों और पैरों में सवालों के टूटते
सितारे लिए हुए| राधिका भाभी कभी शब्दों से, कभी उसके सर पर हाथ फिरा उसे शीतल
करती कि चिंता ना करे, सब अच्छा ही होगा| फिर भी उसके मन की गति थमती न थी| भाग
भाग कर उसका मन दीपेश के ख्यालों में उलझ जाता| ख़याल थे भी तो इतने खूबसूरत कि न
उलझाएं उसे तो उनके होने का महत्त्व ही क्या!!
और
सच भी तो यही था, आज सुबह के ख्याल से बौराई हुई ही है मणि| मानो वह एकाएक नवयौवना
नवब्याहता सजीली सी हो गई हो उस रोज| आज चहक उसकी हंसी के आयाम को रोज से कई कई
गुना बढ़ा रही थी|
कुछ
तो हुआ था उस सुबह में!
कुछ
तो बात थी उस सुबह के पहले की रात में!
कुछ
तो उस रात से पहले की शाम में घटित हुआ था!
उसकी
आँख का खुलना उस सुबह की सुन्दरतम क्रिया थी. सत्य है..! उसकी आँख खुलते समय दीपेश
का अपलक उसे निहारना सुन्दरतम क्रिया थी| यह भी सत्य है! और सबसे बड़ा सत्य यह कि
उस सुबह में आँख खुलने पर दीपेश का उसके नज़दीक होना सबसे सुन्दर था! वह जितना सोचती, हर एक ख़याल उसे नया नवेला,
सुंदर सजीला लगता. वह और गहरे डूब जाती उन ख्यालों में|
आज
सुबह की ही तो बात है जब सुबह सवेरे उसकी आँख खुली तो दीपेश बड़े गौर से उसे ही
निहारते हुए उसकी बगल में लेटे हुये थे| उन्हें इस तरह एकटक देखते पाकर बेतरह लजा
गई थी मणि| शरमाई मुस्कान के साथ कहा उसने, “ऐसे न देखिये, लाज
आती है.”
दीपेश
संयत था, उसकी दृष्टि में मधुर मुस्कान थी और वह भी नियंत्रित सी| मणि का मन ही
उसकी पकड़ से दूर, चंचल हुआ जा रहा था| उसकी पलकें अनियंत्रित गति से उठती गिरती
रहीं| दृष्टि अथक आगे पीछे भाग रही थी, जाने कहाँ? पर थम रहीं थी तो सिर्फ और सिर्फ दीपेश के उजले मुखमंडल
पर| जवाब में दीपेश ने उसके गालों को अपनी उँगलियों में ऐसे थामा जैसे गुलाब की
ताज़ी नरम नाज़ुक पंखुडियां. और उसके माथे पर स्नेह भरा चुम्बन अंकित कर दिया| मणि
कुछ और छुईमुई हुई| ऐसी छुई मुई कि जिसकी पलकें झुक गई, अधर खिल गए| पहली बार उनका
यह रूप देखा था मणि ने| पति का इस तरह स्नेह भरा रूप देख खूब हैरानी हुई उसे| पूरी
सुबह वो यही सोचती रही कि जाने कितने कल्पों की साधना से संभव हुआ होगा यह कि पति
ने उसे इतना प्रेम दिया! खुश तो ऐसी थी कि खुशी का बादल बनी हुई थी आज सुबह से वो|
यहाँ बरसी कि वहाँ बरसी! जहां बरसी खुशी हज़ार बरसी!
दो
साल पुरानी उनकी शादी में आज तक दीपेश ने कभी उसके साथ इस तरह पति पत्नी वाला
प्रेम नहीं जताया| ना ही कभी उसे छुआ ना कभी उसके नज़दीक आये| सदा ही एक दूरी बनाए
रखी मणि से| एक ही बिस्तर पर सोते किन्तु फासला रखते| मणि अपने कमरे में साड़ी
बांधती होती तो उस समय भी वहाँ कभी ना रुकते, तुरंत उठ कर बाहर चले जाते| कभी अकेले
में उसका हाथ तक नहीं पकड़ा| मणि ने कभी उनके नज़दीक जाना चाहा तो दीप ने बड़ी ही
सह्जता से उसे टाल दिया कि समय आने पर उसकी हर इच्छा पूरी होगी| हाँ, उसकी भौतिक
सुख सुविधा में कभी कोई कमी ना आने दी| उसकी हर एक इच्छा समय से पहले ही पूरी हो
जाती| कुछ मांगने से पहले ही वस्तु उसके लिए हाज़िर होती| पर क्या भौतिक सुख सुविधा
ही सब कुछ है जीवन में? अपने प्रिय का साथ कुछ भी नहीं? मन और तन दोनों ही
असंतुष्ट रहते उसके| मानसिक और दैहिक सुख के लिए अपने प्रिय का साथ भी तो आवश्यक
है ना! उसे भी इच्छा होती कि अपने पति की बांहों में रहने का सुख ले, कि वो पति को
स्पर्श करे और पति उसके तन का स्पर्श करे, कि एक दूसरे की महक को जानें वो दोनों,
कि प्रेम रस का आस्वादन करे वो| किन्तु इस आनंद से वंचित थी मणि, फिर भी वह असीम संयम
धारे थी| कभी शिकायत न करती इस बात की| घर में सब जानते भी थे कि दीप अपनी पत्नी
को हाथ नहीं लगाता, फिर भी कोई इस परिस्थिति को बदल नहीं पाया| मणि भी किसी से कुछ
कह नहीं पाती| खामोश संवेदनाओं को समझने की अप्रकट सांत्वना मौजूद हो मानो उन सबके
मध्य|
माँ
जी ने कई बार प्रयत्न किया था दीप को समझाने का| किन्तु वो नहीं माना| माँ जी
स्वयं को इस परिस्थिति के लिए कसूरवार समझ कई बार उदास हो जाया करती थीं| ऐसा नहीं
था कि मणि सुन्दर न थी, ऐसा भी न था कि वो समझदार न थी| माँ जी को शादी से पहले
ही जानकारी थी कि दीप हमेशा से ही सांसारिक
जीवन से दूर रहना चाहता था| वो हर तरह के पारिवारिक क्रिया कलाप में शामिल होता
था, किन्तु उसका मन अपनी आध्यात्मिक दुनिया में ही भटकता था| वो घर परिवार के
प्रति जिम्मेदार था फिर भी वो चाहता था कि कोई काबिल गुरु उसे अपना शिष्य स्वीकारे
और तब वो अपनी आध्यत्मिक राह पर आगे बढे| किन्तु माँ जी अपने बेटे को सन्यासी होते
नहीं देखना चाहती थीं| पुत्र मोह में उनका संसार बसा था| वे तो यह समझती थीं कि
बेटा विवाह करके अपनी गृहस्थी में रम जायेगा तो यह आत्मा परमात्मा की सारी बातें
भूल जायेगा| जाने कितने जतन कर किसी तरह तो समझा बुझा कर उसे राजी कर माँ जी ने
उसकी शादी करवाई थी|
दीपेश
भी कुछ कम न था| शादी से पहले ही उसने शर्त रख दी कि वो जब तक चाहेगा तब तक
ब्रह्मचर्य का पालन करेगा| उचित समय आने तक कोई उसे कुछ ना कहेगा| सुन्दर, रूपमती,
गुणवंती मनस्वी को देख कर माँ जी मन ही मन अपने विचारों में यह मान बैठीं थीं कि
उनके बेटे की यह शर्त जल्दी ही टूट जायेगी और उन्होंने उसकी शर्त पर सहमति की मुहर
लगा दी| विचारों का चलना एक गति है, विचारों के क्रियान्वयन में लगा समय उस गति को
छोड़ आगे नहीं बढ़ता| किन्तु विचार के समानांतर चल रही शंका उस गति में अवरोध बन उस
विचार के प्रतिफलित होने का समय बढ़ाने में पूरी सहायता करती है| विचारों के इसी
व्यवधान में तैरती, हर रोज उम्मीद भरी रात का स्वप्न संजोती उनकी अधेड़ आँखें, हर
रोज निराश सुबह का स्वागत करने को मजबूर हो जाती|
इस
अनसुख के बीच एक बहुत बड़ा सुख यह था कि दीप मणि से बातें बहुत करता था| एक सच्चे
दोस्त की तरह उसके सामने अपना दिल खोल कर रख देता| दुकान पर हुई छोटी मोटी घटनाएं,
दोस्तों से मिलने पर हुई बातें-किस्से, और अपने गुरु के तलाश की लगन में उसका
भटकना, सब कुछ बेहिचक उसके सामने कहता| मणि इसे ही अपना सौभाग्य समझती कि कम से कम
उसका पति उसे दोस्त समझ उस से बातें तो करता है! साथ ही साथ मणि से भी सब कुछ
सुनता वो| उसकी हर एक गतिविधि की जानकारी लेता वो| घर परिवार की हर एक बात से भी
बहुत जिम्मेदारी से जुड़ा रहता वह| घर में सबसे छोटा था तो सबका लाड़ दुलार भी बहुत
मिलता उसे| इस लाड के प्रति अपनी जिम्मेदारी को बखूबी निभाना जानता था दीप|
अन्य
सखियों से सुने ससुराल के अत्याचारों के किस्से कहानियों के विपरीत मणि को बहुत
प्यारी ससुराल मिली| माँ जी साक्षात् माँ स्वरूपा ममतामयी स्त्री, जो भी उनके
संपर्क में आता, उन्ही के रंग रंग जाता| बाबूजी बेहद समझदार और जिम्मेदार व्यक्ति,
घर की हर एक आवश्यकता का स्वयं ध्यान रखते, कभी किसी को दुःख की छाया भी ना पड़ने
देते| भैया मोहन बहुत ही सुलझे हुए और ममता से परिपूर्ण, राधिका भाभी भी बेहद मीठा
बोलने वाली और किसी की भी सहायता के लिए सदैव तत्पर रहती| दीपेश इन सबके लाडले और
सबसे चुहल करके घर में हंसी ठिठोली का माहौल बनाए रखते| इनके अलावा भैया मोहन और
राधिका भाभी के दो छोटे छोटे बच्चे, बड़ी बेटी कीर्ति और छोटा बेटा कमल| भरे पूरे
परिवार में मनस्वी खूब खुश अनुभव करती| दूसरी तरफ मणि न सिर्फ बहुत खूबसूरत बल्कि
बहुत मेहनती, प्यारी और शालीन लड़की थी| उसने भी अपनी अलग ही जगह बना ली सबके दिलों
में| माँ जी तो पहले ही उसे दिल से अपना चुकी थीं, जल्दी ही ससुराल में बाक़ी सब भी
उसे बहुत चाहने लगे|
इन्ही
ख्यालों में गुम मणि को किसी ने थपथपाया और पूछा
– “कहाँ खोई हो मनस्वी
भाभी?” मोनू था, छोटे चाचा का सबसे छोटा बेटा. मणि जैसे एकाएक कई समुन्दर और
पर्वतों को लांघकर अपने घर पहुंची हो, पलकें झपकाते हुए सचेत हुई, हाँफते हुए
मुस्कुराई और अपने हाथ में पकड़ी समोसों और गुझिया भरी प्लेट मोनू के आगे कर दी – “इनको कहीं देखा आपने
मोनू भैया?” चिंतित हो पूछा
उसने. चेहरे का तनाव चाह कर भी छुपा नहीं पाई मणि.
-“इनको? किनको?”
– मोनू ने समोसा उठाते
हुए जानकार नादान बनने की चुहल की ताकि मणि के चेहरे से तनाव कम हो जाए.
“धत्त! दीपेश को और
किनको?” मणि अब थोडा मुस्कुराई और झेंप गई.
“आहा भाभी! भैया का
नाम लेते ही क्या तो गुलाबी रंग खिला है आपके गालों पर!!”
मोनू
होली की मस्ती में रंगा हुआ है. पुनः ठिठोली की उसने.
“और नहीं तो क्या!
क्यों ना हो गुलाबी रंग? भैया ने साडी भी तो गुलाबी दिलाई है!” बड़े ताउजी की लाडली
बिटिया सोनिका भी ठिठोली करने में पीछे नहीं रही.
मणि
की मुस्कान और थोड़ी बड़ी हो गई, शरमाई सी और अधिक गुलाबी हो गई वो. प्लेट सोनिका के
हाथ में देकर बोली उनसे, - “आप दोनों की बदमाशी
खत्म हो जाए तो ज़रा अपने भैया की भी खबर ले आइये जी!”
वो
रसोई की और जाने लगी तो मोनू फिर ठिठोली करने लगा – “ हाय भाभी! ओ गुलाबी
हंसी वाली भाभी !
इसी गुलाबी अदा पर तो भैया फ़िदा हुए हैं!”
आस
पास गूंजते ठहाकों की धमक उसके साथ साथ रसोई में प्रवेश कर चुकी थी|
आज
सुबह मणि नहा कर आई तो दीपेश ने ही उसे एक गुलाबी रंग की फूलों की प्रिंट वाली और
मरून किनारी से सजी साड़ी भेंट की और उस से कहा - “आज होली पर यही
पहनना, तुम बहुत प्यारी लगोगी|” हमेशा ऐसी परिस्थिति में खामोश वहाँ से चले जाने वाले दीपेश के मुख से
ऐसे श्रृंगारित वचन मणि के कानों में मिश्री घोल रहे थे| दूर दूर तक जब किसी आसरे का कोई छोर दीखता ना
हो, ऐसे में कल रात से दीप की एक के बाद एक विस्मय करने वाली बातें जैसे उसे एक
अचम्भे से निकाल दूसरे अचम्भे में लिए जा रही थीं| लहरों पर कभी ऊपर उठती वो और
कभी नीचे फिसलती, खुद से ही बेबस सी और डोलती हुई सी| ऐसी उहापोह स्थिति थी उसके
मानस में कि उसे समझ ही नहीं आ रहा था कि वो सपना देख रही है या यही सब कुछ उसके
जीवन का सच है! कुछ चकित सी प्रसन्न मणि तैयार हो कर दीप के पास आई| उसके हाथ में
सिन्दूर की डिब्बी थी| रोज के नियम सा दीप ने उसे सिन्दूर लगाया किन्तु अन्य दिनों
सा उसी समय कमरे से बाहर नहीं गया| आज उसने वहीँ खड़ी मणि का चेहरा अपने हाथों में
लिया, कुछ देर उसे देखता रहा अन्यमनस्क सा, फिर उसे कस कर गले लगा लिया| मणि की
आँखों में आंसूं भर आये उस घडी में| अब तक इस स्पर्श से अछूती रही थी वो, आज अचानक
मिल रही खुशी उसके मन के दायरे में सिमट ना पाई, आँखों से छलक रही खुशी को उसने
दीप की आँखों में भी देखा| उसकी आँखें अजब सी चमक से भरी हुई थी| पूरी दुनिया जीत
ली हो जैसे उसने, जीत और जश्न के भाव दीप के मुख मंडल को अद्भुत तरह से रोशन किये
हुए थे| मणि उसे एकटक देखती ही रही| उसे देखते देखते ही उसकी नज़रों में तेज सुरूर
चढ़ता जा रहा था, जिसमें उसे सब कुछ अस्पष्ट स्वप्नमय दिख रहा था| बेहोश नहीं थी वह
किन्तु उस समय की धारा में होश भी नहीं था उसे| एक शब्द भी न कह पाई उस समय वो दीप
से|
कुछ
गुनगुनाती हुई उसने रसोई में प्रवेश किया तो राधिका भाभी की नज़रों से उसकी चरम
हर्ष से उभरी गुलाबी आभा छिपी नहीं|
-“कोई बड़ी खुशी की नाव
चढकर आया है जी!” राधिका भाभी उसे
प्यार से देखते हुए बुदबुदाई|
.“हा हा! देखो ना
भाभी, सब “इनका” नाम लेकर कैसे कैसे
छेड़ रहे हैं मुझे!”
-“अरे रे रे! मेरी
प्यारी बन्नो को किसने छेड़ा?” मणि फिर से लजा गई
भाभी की ठिठोली सुन|
-“सुनो तो दुल्हनिया..!यूँ रात की कहानी
चेहरे पर लिखी हुई होगी तो सारी नगरिया छेड़ेगी ही!”
राधिका
भाभी ने ज्यों सब सुंझ कर उसके इतराने का भेद खोल दिया और वे भी मणि से परिहास
करने लगी|
“रात की कहानी..!” मणि अब तक उस खुमार
में ही तो थी. पहला नशा हो मानो उसके जीवन का| कल रात दीप ने उसे अचानक बांहों में
ले कर भरपूर आलिंगन दिया मणि को| इस अप्रत्याशित सामीप्य से अचकचाई थी मणि| बिलकुल
नई और अजीब अनुभूति थी उसके लिए जब दीप ने उसे खुद से एकदम सटा कर आलिंगनबद्ध
किया| कुछ बेसुध सी, कुछ असहज सी, वो इस स्थिति को एकाएक स्वीकार नहीं कर पाई, और
एकदम से छिटक गई थी दीप से| दीप ने बहुत स्नेह से उसका हाथ पकड़ कर कहा था, “मैं ही हूँ मणि,
घबराओ मत, मेरे पास आओ|”
-“यह... आप क्या कर
रहे हैं?” उसने कुछ टूटे फूटे और कुछ अचरज युक्त स्वर में पूछा|
-“तुमसे प्रेम कर रहा
हूँ मणि|” संक्षिप्त एवं सहज उत्तर दिया दीप ने|
श्रुति-प्रकाश
था यह उसके लिए, महीनों से इसी पल की राह देख रही मणि के लिए स्वाभाविक ही था कि
जब यह पल सामने आया तो ज़रा भी विश्वास न हुआ उसे| दीप ने पुनः उसे बांहों में भर
लिया| मणि
अब तक सहज नहीं हो पाई थी, वो अब भी इस अप्रत्याशित संयोग पर शंकित थी| उसने फिर पूछा, -¨अचानक आज यह क्या हो
गया है आपको?¨
दीप
ने कुछ भी नहीं कहा इस बार, बस उसे धीरे धीरे सहलाया| मणि के हाथों पर, बांहों पर,
कन्धों पर, उसके चेहरे पर अपनी उँगलियों से हौले हौले प्रेम के सितारे टांक दिए
उसने| अपने कोमल, धीमे एवं सौम्य स्पर्श से उसे सहज किया| तब कहीं निश्छल सी वो
उसके आलिंगन में समाई थी| उसने पति की आँखों में अपनी झांकी देखी, अपने साथ साथ
वहाँ सच्चाई दिखी उसे, स्वयं के प्रति प्रेम से परिपूर्ण| उसे नदी की धारा याद आई,
जो सदा किनारे के आलिंगन को तरसती है किन्तु जैसे ही किनारा उसे छूता है, धारा मचल
कर आगे निकल जाती है| वह भी इस पल बेकल धारा सी बहक रही थी| फिर वह भी तो इसी पल
की प्यासी थी| मानो सदियों से इस पल की प्रतीक्षा में समय रोके बैठी हो| मानो उसकी
दो साल की तपस्या फलीभूत होने का वरदान था यह| उस एक पल में जाने क्या क्या और
कितना कुछ सोच लिया उसने | जाने किस किस तरह और जाने कितनी कितनी बार आश्वस्त हुई
वो| आखिर झिझक के सारे बंधन छोड़ उसने स्वयं को इस प्रेम सरिता में बह जाने दिया|
अपना सब कुछ सौंप कर उसने दीप को बेशुमार प्यार किया| उसकी मनोकामना से बढ़कर दीप
ने उसे देह सुख से सम्पूर्ण किया| तृप्ति की रात थी कल उसके लिए, पूर्ण तृप्त हुई
मणि| दीप ने भी इस खूबसूरत रात का समूचा सुख दिया उसे| पत्नी होने की उत्कृष्टतम
अनुभूति दी उसे| पूरी रात दोनों एक दूजे में खोये रहे| सुबह की चमकती धूप में मणि
की आँखों में कल रात की वे बेसुध घड़ियाँ सजीव हो उठीं थी|
“मणि, बचो..!” राधिका भाभी की
आवाज़ से उसकी तन्द्रा टूटी| पर तब तक बच्चों की टोली उस पर गुलाल लगा चुकी थी| उसे
रंग में रंगा देख खिलखिला कर हँसने लगे सब| भाव समाधी से अकस्मात बाहर आई मणि भी
दौड़ते बच्चों के साथ हँसने लगी और उन्हें भी उसी गुलाल से रंग दिया|
“चाची यह आपके लिए
है.” ऐसा कहते हुए बच्चों ने उसे चन्दन की महक वाला गुलाल लगा दिया| “सुबह चाचू ने दिया
था और कहा था आपको यही गुलाल लगाने के लिए|” उसे याद आया, रात
इसी महक से तो महकाया था दीप ने उसे| एक ही पल में पुनः वही सब घूम गया उसकी आँखों
में और बीती रात का आनंद सोच कर उसकी आँखे छलक गईं! क्या तो जादू था इस महक में कि
उसने अपने और दीप के बीच की सारी दूरियां मिटाने का पूरा श्रेय इस महक को दे दिया
था और स्वयं को इस दुनिया की सबसे खुशकिस्मत औरत समझ दीप की छाती पर सर रख सारी
दुनिया भूल गई थी|
सुबह
के चाय नाश्ते के बाद माँ जी, बाबू जी, बड़े भैया, राधिका भाभी और बच्चों को गुलाल
लगाकर होली का शगुन किया था दीपेश ने| फिर माँ बाबूजी के चरण स्पर्श कर, मणि को
गले लगाया और बाहर निकल गए थे दोस्तों के साथ| आधी सुबह बीतने के साथ ही घर में
मेहमान आना शुरू हो गए और मनस्वी उनके स्वागत सत्कार में व्यस्त हो गई थी| दिन भर
होली खेलने और हंसी ठिठोली की धूम रही घर में| खाने पीने के दौर चलते रहे| दीपेश
के लिए पूछते हुए सब मेहमान विदा ले चुके अब तो| सुबह से बिखरे रंगों की काँति भी
धूमिल हो रही है| आँगन की सफाई शुरू हो चुकी है| हर तरफ अबीर गुलाल का साम्राज्य
अब अपने बीतने की राह देख रहा है| आसमान का नारंगी पीला रंग भी खोने लगा है| सांझ
का श्यामल रंग वातावरण में घुलकर मणि की चेतना में उतरता जा रहा है| किसी अनिष्ट
की आशंका अपने दिल दिमाग में आने से पहले ही दूर किये दे रही है वो| फिर भी चिंता
मिट नहीं रही. कहाँ चला गया होगा दीप? सोच सोच कर परेशान हो रही है मणि| कल रात का
उसका स्पर्श बार बार मणि को आश्वस्त कर रहा था कि दीप उसे छोड़ कर कहीं नहीं जा
सकता| और दूसरी तरफ आशंका उसका साथ नहीं छोड़ रही थी| आश्वस्ति और आशंका का खेल एक
साथ देख रही थी वो उस समय| दोनों भावनाओं के मध्य खींचतान की साक्षी थी वो उन उदास
क्षणों में |
---------------------------------
-“मनस्वी! सुनो!”
दीप
ने आवाज़ दी थी|
-“जी!” चौंक गई थी वो|
-“तुम हमसे नाराज़ मत
होना कभी, प्लीज़|”
-“जी?”
आधी
रात की चौंक कर टूटी नींद खुमारी में पूछा उसने|
-“हम तुम्हारे अपराधी
हैं, तुमसे विवाह करके हमने तुम्हे मजबूर किया है कि हमारी शर्तों पर रहो यहाँ|
इसके लिए क्षमा करना हमें|”
अब
तक मणि की नींद उचट चुकी थी, दीप की बातें गौर से सुन रही थी वो| विवाह की पहली
रात थी| दो दिन से ब्याह के विधि विधान निभाते दो बदन सब रस्में सम्पूर्ण होते
होते थक कर चूर हो, कमरे में आते ही सो गए थे| शायद सुबह के साढ़े चार बज रहे थे,
आदत अनुसार ब्रह्म मुहूर्त में दीप की आँख खुली थी और वो मणि से बातें करने लगा
था| उसकी ऐसी बातें मणि को बिलकुल समझ नहीं आ रही थी| उठ कर बैठ गई वो भी|
-“क्या कहना चाहते हैं
आप?” संकोच में पूछा उसने|
-“शायद तुम्हे पता ना
हो, हमने माँ जी के आगे शर्त रखी थी विवाह से पहले|”
-“कैसी शर्त?”
उस
समय हैरत थी मणि के एक एक शब्द में और उसके चेहरे के सारे भावों में भी|
-“कि हम आपको तब तक
स्पर्श नहीं करेंगे जब तक हम उचित न समझेंगे|”
-“जी!!!??” इतना चौंकी थी
मनस्वी कि पूरी तौर पर सुजाग हो गई उसी एक पल में|
-“मैं समझ सकता हूँ
मनस्वी कि माँ जी ने तुमसे कुछ नहीं कहा होगा| तुम चाहो तो मेरे साथ रहते हुए मेरी
तरह जीवन बिता सकती हो, चाहो तो अपनी इच्छा से लौट सकती हो| तुम्हे या तुम्हारे
परिवार को धोखा देने का इरादा कभी नहीं रहा मेरा| माँ ने कसम दी थी कि शादी से
पहले मैं तुमसे कुछ ना कहूँ, अतः उनकी कसम से बंधा हुआ था| किन्तु अब शादी हो चुकी
है, इसलिए अब मैं चुप रहना ठीक नहीं समझता| विवाह के रिश्ते में सच्चाई ना हो तो
विवाह का अर्थ कुछ भी नहीं|” एक ही सांस में सब
कुछ कह देने का साहस दिखाया था दीप ने उस पल|
-“.......” क्या कहती मणि!
ख़ामोशी में मनन करने लगी उस क्षण| उसकी आँख में आंसू भर आये| उसे माँ की भी बहुत
याद आई उस पल| और याद आया कि माँ ने झोली फैला कर कहा था उस से, “इस रिश्ते को ना मत
कहना मणि, तुझे मेरी कसम!” सात भाई बहनों में सबसे छोटी मनस्वी आगे पढ़ कर टीचर बनने का स्वप्न
संजोये थी किन्तु बूढी हो चली विधवा माँ की विनती नहीं टाल पाई| उसने माँ की कठिन
परिस्थिति देख न चाहते हुए भी शादी के लिए स्वीकृति दे दी थी| वो भी कसम से बंधी
थी, दीपेश भी अपनी माँ की कसम से बंधा था| दोनों की ही नियति उन्हें वहाँ ले आई
जहां दोनों ही होना नहीं चाहते थे| कोई नहीं जानता था कि नियति एक ऐसे खेल की रचना
कर रही थी जिसमे इन दोनों का मोहरा बनना निश्चित था|
छोटी
सी 19 बरस की उम्र में मणि की बुद्धि एकाएक बढ़ कर जैसे सदियों पुराने बुजुर्ग व्यक्ति सी हो गई| पीछे हटना उसका स्वभाव न था|
उसने इसी परिस्थिति को स्वीकार कर लिया| उन कुछ पलों में ही सब कुछ विश्लेषण कर वह
इस नतीजे पर पहुंची कि दीप की बातों में छल नहीं था, विवशता थी| उसके पास भी
विवशता थी| मन ही मन कुछ निश्चय किया उसने| वही दृढ निश्चय उसकी आँखों में भी उभर
आया| उसने यह सब सोचते सोचते आंसू पोंछ लिए|
-“आपकी विवशता को मैं
कायरता या धोखा देना नहीं कहूँगी दीपेश| आज परिस्थिति ने हम दोनों के लिए परीक्षा
खड़ी कर दी है| हम रो कर भी इस परिस्थिति को गुजार सकते हैं और चाहें तो हंस कर भी
गुज़ार सकते हैं| मैं यह मान रही हूँ कि आपने अपना सच बिना किसी हिचकिचाहट बता दिया
है मुझे| अतः आपकी जो भी शर्त है, मुझे स्वीकार है|” दिल में अस्फुट कोलाहल
भरे उस प्रथम प्रभात में ससुराल के प्रथम दिन को अपने ओज से तेजस्वी करते हुए वो
हलकी सी मुस्कुराई और अपना हाथ आगे बढ़ा दिया, “दोस्त?”
दीप
के मुख पर अब तक जो तनाव था, वो हट गया, संतोष की झलक के साथ मनस्वी के उत्तर ने
उसे भी उर्जा से भर दिया| उसने भी हाथ आगे बढ़ा दिया, “दोस्त!”
उस
प्रभातवेला में दोनों ही अपने अपने सत्य स्वभाव एक दूसरे के आगे बड़ी सहजता से प्रकट
कर चुके थे| अब उतनी ही सहजता से आगे आने वाले नए जीवन के स्वागत को तत्पर होते
हुए दोनों मुस्कुरा दिए|
------------------------------------------
थोड़ी
थोड़ी देर में माँ जी अथवा बाबूजी मनस्वी से पूछ लेते- “कुछ कह कर गया था
दीपेश?” स्वयं व्याकुल मणि बेकल गर्दन हिला देती. कुछ भी तो नहीं कहा था दीपेश
ने उस से| ज़रा सा भी अनुमान लगाना मुश्किल था उसके लिए| नित नियम से घर और दुकान
जाने वाला, समय का पाबंद रहा है दीप| कैसे अंदाजा लगाया जाए कि कहाँ गया होगा वो?
रोने रोने को हो रही थी अब तो मनस्वी| ऐसे में राधिका भाभी उसके सर पर हाथ फिरा
देती, कहती –“चिंता मत कर पगली,
अभी आ जायेगा, यहीं कहीं गया होगा!” पर उनकी प्रेम पगी
सांत्वना भी मनस्वी को तसल्ली नहीं दे पाती|
“तसल्ली...!?” आज तक मनस्वी को
तसल्ली कब मिली थी? हर समय एक नामालूम एवं अज्ञात उलझन उसे घेरे रही थी| सदैव एक अदृश्य
तलवार उसे अपने सर पर झूलती दिखती कि कहीं दीपेश उसे छोड़ न दे! जीवन के किसी मोड
पर जब कभी उसने आश्वस्त होना चाहा, अपने को एक नए भंवर में फँसी हुई पाया था| इसलिए,
उसके लिए तसल्ली एक दूर उड़ते पंछी की आँख में देखकर यह बताने जैसा था कि उस पंछी
ने आज दिन भर में कितनी उड़ान भरी होगी?
बड़े
भैया दीप के सभी दोस्तों को फोन करके पूछ चुके हैं| जिन दोस्तों के साथ वो सुबह
निकला था, दोपहर से पहले उनसे विदा ले चुका था| बाक़ी सभी का कहना था कि वो उनसे
मिला ही नहीं आज| ऐसी परिस्थिति में सबके मन में तनाव और अधिक गहरा गया| सभी के मन
में घबराहट सुप्त रूप से अपनी छावनी बनाने लगी| प्रश्न और बड़े होते गए| लेकिन जवाब
जाने किसी पेड़ के नीचे सुस्ता रहे होंगे या किसी खोह में दुबक गए होंगे? भैया मोहन
पूरी कॉलोनी के दो तीन चक्कर लगा आये हैं किन्तु दीपेश का कहीं कोई पता ना चला|
त्यौहार
की मस्ती का माहौल अब दुःख का परिवेश ओढ़ सभी की परीक्षा लेने को उतावला हुआ हो
जैसे| सुबह बुलबुल बनी चहक रही मनस्वी अब बुत बनी, आँखों की कोर पर आँसुओं को
ठहराए, आँगन की सीढ़ियों पर खड़ी दरवाजे को अपलक ताक रही है| दुःख की झिलमिल रेखा ने
उसके चेहरे पर अपनी जगह बनाना शुरू कर दिया है| माँ जी ने उसे सहारा देकर सीढ़ियों
पर ही बिठा दिया| उसका मौन चेहरा, मौन आँखें बेचैनी का जीता जागता बवंडर से लगने
लगे थे|
समय
अपनी गति से आगे बढ़ रहा था, एक क्षण में एक क्षण जितना ही| उसे किसी से मिलने जाने
की शीघ्रता न थी, न ही ठहर कर किसी से बतियाने का लोभ! गहन प्रतीक्षारत मणि को देख
कर भी रुका नहीं वो| उसी गति से आगे निकला जो उसकी सामान्य गति रही|
किसी
तरह अधीर, अशांत रात बिताई सबने| सुबह पौ फटते ही बाबूजी और भैया पुनः दीपेश की
तलाश में निकल पड़े| जहां जहां सम्भावना थी, पूरी तरह खोज बीन कर निराश, खाली हाथ
घर लौट आये दोनों|
उनसे
कोई कुछ पूछता इस से पहले ही दीपेश के कदम भी घर की दहलीज़ में प्रवेश कर चुके थे|
घर का माहौल देखते ही समझ गया था वो कि उसकी अनुपस्थिति से सभी परेशान रहे हैं|
उसे सामने देख कुछ और पलों तक घर में निस्तब्धता छाई रही| सभी की दृष्टि के घेरे
में था वो| स्पष्ट दिख रहा था उसे, सभी की दृष्टि सवालों की झड़ी लगाए थी| खामोश
खड़े सभी सदस्य मानो चीख चीख कर उसकी कहानी पूछना चाह रहे हों| वो स्वयं भी बोलना
चाहता था और बाक़ी सब भी अपने अपने मौन से बाहर आना चाहते थे|
दीप
ने ही पहल की| आगे बढ़ कर उसने पहले माँ जी के चरण स्पर्श किये फिर बाबूजी के|
बाबूजी के होंठ हिले, क्या... उनके बात शुरू करने से पहले ही दीप ने कहा, “माफ़ी चाहता हूँ
बाबूजी| जाने से पहले और बाद में इतल्ला न कर सका|”
माँ
जी अब कुछ गुस्सा हो गई, नाराज़गी से पूछा उन्होंने, “ बिना बताए जाना कोई
बहादुरी नहीं होती, सच सच बता दो बेटा, कहाँ चले गए थे?”
माँ
जी से ऐसी बात सुन सारे जमाने की शर्मिंदगी झलक आई स्वाभिमानी दीपेश की आँखों में,
एक पल में उसका पूरा चेहरा लाल हो गया, उसने गर्दन इतनी झुका ली जैसे कभी सर उठा
कर जीने लायक ही न रहा हो! गर्दन झुकाए हुए ही बताया उसने, “प्रीतम सिंह के साथ
पहाड़ी के पार वाले जंगल गया था माँ| वहाँ उत्तरांचल से एक साधू बाबा आये हुए थे,
प्रीतम ने मुझे बताया और हम उनसे मिलने चले गए थे| उनकी सेवा और सत्संग में दो दिन
कैसे बीत गए, समय का ध्यान ही न रहा हमें|”
सभी
बहुत कुछ कहना चाहते थे, किन्तु किसी ने एक शब्द भी नहीं कहा|
_”जाओ बेटा, मुंह हाथ
धोकर खा लो कुछ!” बाबूजी ने थकी आवाज़
में जाने उसे वहाँ से चले जाने का आदेश दिया या बेटे की दुविधा समझ उसे वहाँ से हट
जाने को कहा!
सभी
लोग वहीँ रुके रहे, मणि और दीप अपने कमरे की और प्रस्थान कर गए| मणि जितने सवाल
पूछना चाहती थी, उतना ही अधिक उसका मन रो पड़ता| अंततः वो खामोश रही| दीपेश को अपने साथ चलते देखती रही| साथ चलने से
बनी परछाई को निगाहों से छूने की असफल कोशिश करती रही| कभी चाहती कि दीपेश कुछ
कहे, कभी सोचती वह मौन चल रहे दीपेश का मन पढ़ ले| दीपेश की ख़ामोशी में छिपे तथ्य
उसके मुख पर उभरते हुए देखती रही वह| जबकि इस ख़ामोश दिखते पल में कोई भी खामोश न
था| संवाद कहीं भी न था किन्तु मौन भी मीलों दूर था|
कुछ
और दिन घर में ख़ामोशी छाई रही इस घटना के बाद| कोई बात करना भी चाहता तो एकाध
वाक्य से अधिक वार्तालाप संभव न होता|
ऐसे
ही कुछ अनमने दिन बीते कि एक दिन मणि खाना पकाते हुए रसोई में ही गिर गई| अचेत
अवस्था में उसे उसके कमरे तक ले जाया गया| सभी उसके लिए चिंतित हो उठे| डॉक्टर
बुलाया गया| मणि के भीतर एक नई कोंपल खिल चुकी थी, एक नया सवेरा अपनी उजास देने
उसके पास आ चुका था| लेकिन इस समय उसकी काया में बहुत कमजोरी है | मन का अवसाद तन
को नहीं बख्शता, तन की थकावट मन को स्वस्थ नहीं होने देती| ऐसी हालत में अधिक
स्नेह और देखभाल की आवश्यकता है उसे| नए प्राणी के आगमन की खबर से खोयी हुई
खुशियाँ लौट आई फिर घर भर में| घर के सभी सदस्यों ने उसकी खूब देखभाल की| उसे
हरसंभव खुश रखने का प्रयास किया| दीप ने तो हर पल उसका बहुत ध्यान रखा| किसी भी
तरह की आशंका को उसके निकट भी न आने देता| धीरे धीरे घर में माहौल भी व्यवस्थित हो
चला| पुनः हंसी की गूंज से जीवंत हो उठा उनका हँसता खेलता परिवार| दिसंबर की
कंपकंपाती सर्दी में मणि ने एक पुत्र को जन्म दिया| दिपावली की तरह उत्सव मनाया
गया तब घर में| मणि और दीप ने उसे सोहम नाम दिया, अर्थात जो उनसे कभी अलग नहीं|
प्रसन्नता से चहक उठा मणि का संसार फिर से| सुख उनकी झोली में निवास करने लगा|
बेटे का आगमन उनके प्रेम को हर तरह से प्रगाढ़ करने वाला सिद्ध हुआ|
समय
अब भी अपनी ही गति से चल रहा था| मणि को उसकी गति से कोई शिकायत न थी अब| यही जीवन
का बेहतरीन समय था उसके लिए| प्रसन्नता से भर उठती वो जब वो देखती कि उसका पति हर
संभव उसके साथ बच्चे की परवरिश की जिम्मेदारी धारण करता है| संयुक्त परिवार में पल
रहा सोहम दिन प्रति दिन घर भर में मुस्कान बिखेरता कब एक वर्ष का हुआ किसी को पता
भी न चला|
उन्ही
दिनों इलाहाबाद में अर्धकुम्भ मेले की सम्पूर्ण तैयारी थी| दीपेश तो लंबे समय से
इस मेले की प्रतीक्षा में ही था| घर में भी सबसे कई बार इस विषय में चर्चा कर चुका
था वो| माँ जी कभी भी उसके अर्द्धकुम्भ जाने की बात से सहमत नहीं होतीं थीं| और इस
बार तो वे बेहद घबराई थीं उसके इस मेले में जाने के निर्णय से| उन्होंने अपने
लाडले बेटे को समझाने की पूरी कोशिश की, यह भी कहा कि ऐसी भीड़ भरी जगहों पर जाने
से अच्छा मेला खत्म होने के पश्चात् वो
सारे परिवार संग प्रयाग यात्रा करने निकले, इस बहाने ही सब लोग उसके पीछे पीछे
तीर्थराज के दर्शन कर आयेंगे!
किन्तु
वो संकल्प ले चुका था कुम्भ स्नान का| सभी ने उसकी भावनाओं को समझ न चाहते हुए भी उसे
अपना संकल्प पूरा करने की खामोश स्वीकृति दे दी | वो यह कहाँ समझ पाया कि ख़ामोशी
जितनी सघन हो, विवश
स्वीकृतियां उतना ही रुदन छुपाये होती हैं!
मनस्वी
के मन में पुनः अशुभ आशंकाएं अपना सिर उठाने लगीं थीं| माँ की आँखों से उनकी बहु
के मन भीतर चल रही अविराम चिंता छुप न पाई| अपनी बेचैनी को बड़ी सहजता से छिपा कर
वे ममतामयी मैया मनस्वी को दिलासा देने लगीं कि “चार ही दिन की बात
है बेटी, तू दिल छोटा न कर, जल्दी ही लौट आएगा तेरा पति|” मणि जानती थी कि
माँ जी को भी अपने बेटे के कुम्भ मेला जाने से बहुत आपत्ति है, वे स्वयं भी व्यथित
हैं. उन्हें भी बेटे के इस निर्णय से वेदना है, फिर भी माँ जी की सांत्वना देती इस
करुणामयी छवि पर मुग्ध वह उस समय चुपचाप अपने आंसूं निगल गई|
दीपेश
के जाने की व्यवस्था कर दी गई| चार दिन की यात्रा के लिए आवश्यक सामान बक्से में
रख लिया गया| सफर के लिए परांठे और आलू की सब्जी के साथ में अचार बाँध दिया माँ
ने| कुछ सूखा मेवा और नमकीन मठरी इत्यादि भी रख दी राधिका भाभी ने| आज्ञाकारी
पुत्र की तरह दीपेश ने सर्वप्रथम माँ बाबूजी के चरण स्पर्श कर आशीष लिया| फिर भैया
और भाभी के चरण स्पर्श कर उनसे आशीर्वाद प्राप्त किया| अब वो मणि के सामने खड़ा था,
सोहम मणि की ऊँगली थामे यह सब दृश्य देख पिता की गोद में चढ़ने को मचल रहा था| मणि
आगे बढ़कर अपने पति के चरण स्पर्श करने को झुकी किन्तु दीपेश ने उस से अधिक गति से
आगे बढ़कर अपने गले लगा लिया| बेटे को भी गोद में उठा उसने गले लगा लिया| मणि की
आँखों में आंसूं बाँध तोड़ झर जाने को बेकरार थे| दीपेश ने कुछ शरारत और कुछ प्रेम
से कहा, “सुनो मणि! मुस्कुराती रहना कि तुम्हारी मुस्कान सोहम का और इस परिवार
का भविष्य तय करेगी|” मणि के चेहरे पर झिलमिल
आंसुओं में चमकी नन्ही मुस्कान दो पल दिपदिपा कर बुझ गई|
उसने
कहा, “हमारा भविष्य तो आपके साथ जुड़ा है दीप, आप कुम्भ से जल्दी लौट आओ, हम
सबकी मुस्कान अवश्य आपका स्वागत करेगी|”
-“तुम फ़िक्र न करो मणि,
मैं शीघ्र लौटूंगा, चार ही दिन की बात है, तब तक धैर्य रखना|”
मणि
की जुबान ख़ामोश रही किन्तु आँख से एक बूँद ढल कर दीप के हाथ पर जा गिरी|
दीप
ने उस बूँद को थामे हुए ही अपने हाथ पर मणि का हाथ रख दिया| आंसूं की वह बूँद
दोनों के लिए उस क्षण पावन गंगाजल बन गई| उस पवित्र जल की शपथ लेकर दीप ने उसे
अपने साथ पर भरोसा रखने को कहा| मणि विवश थी, उसने दीप का हाथ अपनी आँखों से छुआ
और उसे समर्थन दिया|
दीप
ने सबके सामने हाथ जोड़ कर कहा, ”जाने अनजाने हुई
मेरी हर एक भूल के लिए माफ़ी चाहता हूँ. संभव हो तो मुझे माफ
कर देना|”
माँ
जी उसकी बात सुन अत्यंत भावुक हो उठीं थीं, फिर भी उन्होंने पर्याप्त संयत किन्तु
भीगे स्वर में दीप से कहा, “वहाँ से रोज एक फोन
ज़रूर कर देना बेटा|”
दीप
ने हामी भरी, सजल मन से सबसे विदा लेकर चल पड़ा वो कुम्भ स्नान दर्शन की और| बाद
में जब मणि अपने कमरे में गई तो तकिये के नीचे से झांकता एक कागज दिखा उसे| उसने
उठा कर देखा, दीप ने उसे पत्र लिखा था|
प्रिय
मणि,
मैं
जानता हूँ कि मेरे कुम्भ जाने से तुम बेहद अप्रसन्न हो और झूठे मन से मुझे
स्वीकृति दे रही हो| लेकिन तुम यह नहीं जानती कि कुम्भ स्नान मेरा बचपन से अब तक
का सबसे बड़ा सपना है| यदि मैं अभी नहीं गया तो जीवन भर इस बोझ से दबा रहूँगा कि
समय रहते मैंने अपना जीवन सार्थक नहीं किया| उम्मीद है किसी भी तरह के पूर्वाग्रह
से मुक्त हो तुम मुझे और मेरी इस बात को
समझोगी|
तुमने
अपने प्रेम और निश्छल स्वभाव से मुझे सम्पूर्ण किया है| विश्वास जानो कि तुम्हारे
बिना मैं अधूरा हूँ| तुमने अपने प्यार और समर्पण से मेरा मन जीत लिया है मणि| और
सच तो यह है कि तुम मनस्वी नहीं मेरे मन की स्वामिनी हो| इसीलिए तुम्हें आज से मैं
नया नाम देता हूँ, मनस्वामिनी|
मेरी
सम्पूर्ण ह्रदय से यही कामना है कि इस जनम में भी और आगे हर जन्म में भी मुझे मेरी
मन स्वामिनी यानि तुम्हारा ही साथ मिले|
मैं
जल्दी ही लौटकर आऊंगा मेरी मनस्वामिनी| मेरी प्रतीक्षा करना| तुम्हारी मुस्कान
मेरी प्रतीक्षा की गवाह रहेगी| जानता हूँ तुम नाराज़ तो बहुत होगी किन्तु मेरी याद
में भी और मुझसे नाराज़गी में भी सदा मुस्कुराना तुम|
सदा
सर्वदा तुम्हारा
दीप
--------------------------------
मुस्कुरा
उठी मणि यह छोटी सी चिट्ठी पढकर और अपने भरोसे को मजबूत किया कि दीप जल्दी ही लौट
आयेंगे|
इलाहबाद
पहुँचते ही दीप ने अपने सुरक्षित पहुँचने का समाचार दिया| उस रात घर में सभी चैन
से सोये| लेकिन दूसरे ही दिन दोपहर में इलाहबाद से समाचार आया कि कुम्भ मेले में
भगदड़ में कई श्रद्धालु मारे गए| सबके लिए मुश्किल यह कि जब तक दीप स्वयं फोन न
करता, उस से किसी भी तरह संपर्क साधने का कोई उपाय न था| घर में सभी परेशान हो गए थे|
सुबह से उसका कोई फोन नहीं आया| तीसरे दिन भी कोई समाचार नहीं आया| चौथे दिन माँ
से रहा नहीं गया, उन्होंने बाबूजी से स्वयं इलाहबाद जाने को कह दिया| बाबूजी भी
लाचार थे, इतने बड़े मेले में, लाखों लोगों के बीच किस तरह अपने बेटे को खोज
निकालेंगे? उन्होंने वहाँ उपलब्ध कराई गई इन्क्वायरी सर्विस से पूछताछ पहले ही की
थी, पर कोई ठोस उत्तर नहीं मिल पाया था उन्हें| इलाहाबाद में उनके एक मित्र थे,
हरिशरण जी, बड़ा रुतबा था उनका वहाँ पुलिस और अन्य सरकारी महकमों में, उनसे कह कर
भी तलाश करवाई उन्होंने, किन्तु निराशा ही हाथ लगी|
चार
की जगह आठ दिन बीत गए| दीप घर नहीं लौटा| कोई खबर भी नहीं आई उसकी| मेले की भगदड़
में मारे जाने वाले लोगों की फेहरिस्त में भी नाम न था उसका| अर्थात उसके जीवित
होने की सौ प्रतिशत सम्भावना बनी हुई थी| बाबूजी ने कई नामी और लोकल अखबारों में
इश्तेहार भी दे दिया दीपेश की तस्वीर के साथ| परन्तु उस से भी कुछ हासिल न हुआ|
जब
बाबूजी से रहा न गया, वे स्वयं दीप की खोज में निकल पड़े| इलाहबाद पहुँच कर सबसे
पहले रेलवे स्टेशन पर ही पूछताछ की उन्होंने| कोई सुराग न मिला सिवा इसके कि उस
दिन पहुंचे यात्रियों में दीपेश भी सकुशल वहाँ पहुंचा था| खोज बीन कर बाबूजी उस
धर्मशाला तक भी पहुंचे जहां दीपेश ठहरा था| वहाँ उसका सामान नियंत्रक महोदय के पास
सुरक्षित रखा था| उनसे बस इतना ही पता चल पाया कि पहली रात दीपेश वहाँ ठहरा था|
सुबह होते ही वह अन्य भक्तों की टोली के साथ तडके ही निकल गया था| कमरे की चाबी भी
साथ ले गया था वह, जिस से इतना अंदाजा तो लगता था कि उसके पास लौटने को यही स्थान
था| नियंत्रक ने यह भी बताया कि वे सब शाम का भोजन इसी जगह पर साथ करने की बात कर
रहे थे| किन्तु उनमे से कोई भी वापस लौटा नहीं|
बहुत
उलझी हुई गुत्थी बनता जा रहा था यह मसला| कहीं कोई पुख्ता सुराग न था| कहीं से कोई
स्पष्ट राह भी न दिखती थी| आधे अधूरे सुराग के साथ भी हर एक जतन किया उन्होंने दीप
को खोज निकालने का| जब सारी कोशिश कर चुके तो आखिर थक हार कर बाबूजी बोझिल मन से
घर लौट आये|
इस
सारी कार्यवाही के दौरान मनस्वी बेहद शांत रही| हर समय, हर घडी हमेशा संयत रही| घर
गृहस्थी के काम के अलावा वह सोहम के साथ अपना अधिकांश समय बिताती| किसी से भी दीप
का कोई ज़िक्र न करती| न रोती न ही हँसती| अपनी और दीप की तस्वीरें देख बस धीमे
धीमे मुस्काती| उसे उन दोनों का वादा याद रहता हर घडी कि दीप लौट कर आएगा और उसे
मुस्कुराते रहना है| विश्वास था उसे कि दीप आएगा ज़रूर|
उधर
माँ जी का बुरा हाल था| अपने बेटे के दुःख में अक्सर बीमार रहने लगीं वे| तब मणि
उन्हें किसी बड़े बुजुर्ग की तरह संभालती| उन्हें समझाती कि “दीप ने लौट कर आने
का वादा किया है, वो ज़रूर आएगा|” बहु की गोद में सास
खुद बच्ची बन अपने सारे अश्रु बहा कर हलकी हो लेती| मनस्वी माँ जी के सर पर हाथ
फेर उन्हें शांत करते करते जाने कब उनकी गोद में ही सो जाती| सास बहु का अनोखा
विलाप था वो| उस कठिन समय में किसी अद्भुत शक्ति से परिपूर्ण थी मनस्वी कि हालात
उसे डरा नहीं पा रहे थे, न ही दीप का लापता होना उसे विवशता दे रहा था| हर कदम पर
मजबूत खड़ी रही वो| न खुद डगमगाई न ही परिवार में किसी और को डगमगाने दिया| उसकी
सक्षमता के आगे सारा परिवार भी उसका साथ देता रहा| दूसरी तरफ सोहम की खुशी में
उसकी पूरी दुनिया थी, उस पर आश्रित नन्हा सोहम उसी के विवश, टूटते मन को बेपनाह
सुकून देता| असीम दुःख के दिनों में नन्हा बालक ही उसका सबसे बड़ा सहारा बना|
दुनिया में सबसे मजबूत सहारा वही है जो सहारे की तरह न आये|
समय
की कोख में किसके लिए क्या छिपा है, यह कोई नहीं जानता! मनस्वी बहुत अच्छे से
समझती थी यह फलसफा| अतः आस का दामन छोड़े बिना धैर्य से समय बीतने दिया उसने|
परिवार में किसी को कोई कष्ट दिए बिना, किसी को अपनी उपस्तिथि से असहज किये बिना
ससुराल में सामान्य गृहिणी का सादगी भरा और संजीदा जीवन जीती रही वो| मायके से उसे
लिवाने आये भाई को भी यह कह कर खाली हाथ लौटा दिया कि, “भैया क्षमा करना
मुझे, लेकिन दीप कह कर गये हैं कि वे अवश्य लौटेंगे, और जब तक वे आ नहीं जाते, मैं
यहाँ से कहीं नहीं जा सकती हूँ! आप माँ से भी कहियेगा कि मुझे माफ कर दें|”
साल
दर साल बीतते गये. सोहम अब स्कूल जाने लगा| लेकिन दीप नहीं लौटा| दीप से किये वादे
के अनुसार अपनी मुस्कान से हर दर्द छुपाती रही वो| शायद हर दर्द का सर्वश्रेष्ठ
उपचार है मुस्कान, सच तो यह है कि सबसे बड़ा छलावा है मुस्कान|
- पूजा अनिल
निःसंदेह सधी हुई शब्दावली और मनोभावों का जीवंत चित्र उकेरा है ,आपने पूजा
जवाब देंहटाएंइतनी लम्बी कहानी पढ़ने के लिए न सिर्फ समय निकाला बल्कि अपना अनमोल विचार भी बताया आपने, मेरे लिए यह बहुत बड़ा इनाम है संगीता दी। बहुत बहुत शुक्रिया और प्यार आपको। <3
हटाएंएक लड़की की कथा जो नायक के एक वाक्य पर समर्पित होकर परिवार के लिए समर्पित हो गयी। उसका धैर्य परिवार को बिखरने से बच लिया। दीप के लिए क्या कहा जाए, परिवार की जिम्मेदारी से मुँह मोड़ जाना सही नहीं था पर कुछ सम्मोहन ही रहा होगा।
जवाब देंहटाएंसुन्दर कहानी, सुन्दर दृश्य उकेरते हुए। बधाई आपको।
बहुत अच्छा अंदाज कहानी को संजीव करता हुआ
जवाब देंहटाएं