-3 - स्त्री देह में
मुंडेर पर पाँव झूलाता है, सामने
देखता है झूले पर उमगती लड़की
बचपन से सीखा था उसने,
लड़के पतंग उड़ाते हैं
कबड्डी खेलते हैं
तैर कर नदी पार जाते हैं,
झूला लडकियां झूलती हैं,
श्रृंगार के लिए आइना देखती हैं
हंसी ठिठोली में शाम नष्ट करती हैं
तब से झूले पर नहीं बैठा वो
हैरानी होती उसे कि
उसके भीतर कोई स्त्री तत्त्व नहीं रहता!!
जो कुछ था वो क्यों बस पुरुषत्व था?
स्त्री पुरुष का अलगाव उसे बुरा लगता
धारणाओं में बदलाव चाहता था
चाहता था कि उसकी बावरी
खेतों में उसके साथ दौड़े
तैर कर नदी पार चले
चाहता था कि बावरी के झूले में
वह भी सवार हो चाँद छू ले
कल्पनाओं में कई बार
घेरदार घाघरा चुनर ओढ़
बावरी सा घूमर नृत्य किया उसने
आईने के आगे काजल पहना
माथे पर टिकुली सजाई
कई बार बढ़ाई झूले पर पेंग,
कई बार सेकी बाजरी की रोटी
अपने हाथों से खिलाई प्याज संग
अपनी रूपमती स्त्री को, उसके
पग पखार पंखा झलता रहा
तभी खेत से गुजरती हुई
माँ सामने आ खड़ी हुई उसके
कल्पनाएँ हलकी थी, हवा हुई
माँ के आगे नज़र न उठा पाया
झेंप कर मुंडेर से गिर पड़ा वो
बावरी ने लपक कर थामा
खुद लोट गई उसके पाँव तले
माटी सनी उसकी देह
पुरुषत्व को लगी बल देने.
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