-2 - याद गली
वह छत पर उडाता है पतंग
दौड़ता है रेल की पटरियों पर
खींचता है, डोर पतंग की तन जाती है
थम जाती है रेल, दिखती है
खिड़की के पार दादी माँ
सुबह सवेरे कराती है मंजन
खिलाती है चाय में डूबा जीरा टोस्ट
पीछे आते हैं दादाजी
झक्क सफ़ेद दूध का गिलास उठाये
ठीक उतना ही गर्म,
जिस से न जीभ जले न दिल
उसकी पतंग उड़ान भरती है
रुक जाती हवा में ही माँ के प्रवेश से
नहलाकर यूनिफॉर्म पहनाती है माँ
बुआ खिलाती है दही परांठे का नाश्ता
सब विदा करते हैं,
स्कूल पहुंचाते हैं पिता
शाम को लेने आते हैं चाचा
फिर चल पड़ती है थमी रेल
समय के अबूझ रथ पर
हवा में मचल उठती है पतंग
कसने लगता है मांझा
पेंच लड़ाता है वो,
चांदनी की छत पर
(बचपन में उसे चाँद पुकारता था)
देखता था उसके पारभासी कंठ से
किस तरह उतरता था पानी
फिर आईने के सामने पिया किया पानी
अपारदर्शी नेक बोन हिलती
हंस पड़ता वो
कुदरत के दोगलेपन पर
लहू उभर आया है डोर थामे हुए
उसकी रेल ठहरी प्रथम स्पर्श पर
झुरझुरी ने हवा दी
लालायित किया छूने को
एक बल खाती है पतंग
आकाश चूमती है
दौड़ पड़ती है वेगवान रेल
दोनों पटरियों पर टिकी
लड़का गिनता है रेल के डिब्बे
रेल वही है, पटरी वही
डिब्बों की संख्या
बदल जाती है
हर बार, पतंग नए रंग की.
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