रविवार, 5 दिसंबर 2010

कुछ कुछ आवारापन

सुबह की पहली किरण को
सबसे पहले पकड़ लेने के मनसूबे लिये
पर्वतों के कदम छोटे करने में व्यस्त हो रही हूँ .....

तितलियों के पंखों को
उन किरणों की चमक से
रोशन करने की चाहत लिये
बगीचे के फूलों को अपनी बातों से फुसला रही हूँ.....

और इस चमक से
नूरानी हुये मेरे चेहरे पर अठखेलियाँ करती हंसी,
कहीं ठहरने की हसरत लिये
किरणों, फूलों और तितलियों संग
कुछ कुछ आवारापन कर रही है.

रविवार, 31 अक्टूबर 2010

प्यार....!!!

निश्छल, सरल, मासूम प्यार की तस्वीर तुमको दिखलाऊं,
पर राधा- कान्हा के प्रेम को सशरीर कहाँ से ले आऊं??



मैं कहूं, सांस की उर्जा में , कुदरत का प्यार समाया है,
तुम साँसों के जरिये प्यार जताने, निकट चले आते हो...

मैं कहूं, मुस्काती आँखों में , ईश्वर ने प्यार बसाया है,
तुम कहो, जाम का प्याला इन्हें, पीने को ललचाते हो...

मैं चाहूं शाश्वत सत्य सा प्यार, मेरी प्रार्थना है खामोशी,
तुम रूप की पूजा करने वाले, क्षणिक मिलन से पाओ ख़ुशी....

विकसित इस मस्तिष्क पटल में, भोलापन कैसे लाऊँ???
यदि तुम बालक बन जाओ, तुम्हे प्यार का मतलब समझाऊं ...

गुरुवार, 21 अक्टूबर 2010

एक शेर

कल अपनी डायरी में रखे हुए, बरसों पहले लिखे हुए कुछ पुराने पन्ने मिले. उनमें एक छोटा सा शेर लिखा था, आज आपके सामने रख रही हूँ.


उम्मीद इन्तज़ार को लंबा किये रही,
खत्म इंतज़ार हुआ, जब गोर-ए-दफ्न हुए |



उन दिनों उर्दू के कुछ शब्द सीखे थे, उन्ही में से एक शब्द था गोर -कब्र , शायद इसे ही प्रयोग करने के लिए शेर लिखा था.

क्या यह शेर सही है? जानने के लिए आपकी प्रतिक्रियाओं की प्रतीक्षा रहेगी.
धन्यवाद.

रचना काल - 1995

शुक्रवार, 15 अक्टूबर 2010

विदाई

शब्दों को शक्लें नहीं दिखती
शब्द तो बस एहसास होते हैं.
तुम थी तो शब्द मचलते थे इस घर में
तुम नहीं तो मौन बिखरा है यहाँ ...!!!

कभी कभी तुम्हारे शब्द ,
गूंजते हैं मेरे कानों में,
और.... मेरे कदम चल देते हैं,
उन्हें चुन कर दिल भर लेने को ...
पर यहाँ...
बिखरी मिलती है ख़ामोशी....!!!

तुम्हारे कमरे में
तुम्हारी तस्वीर से
बतियाती हूँ मैं
पूछती हूँ तुमसे, "क्या अपनी ससुराल में भी यूँ ही चंचल रहती हो तुम?"
तब हथेली पर महसूसती हूँ कुछ नन्ही धडकनें
और....
समझ नहीं पाती कि ये तुम्हारे आंसूं हैं या मेरे...!!!

सोमवार, 4 अक्टूबर 2010

तलाश

1. ज़िन्दगी भर जिसे
तलाशता रहा मैं...
आँखों की कोर में
भीगी
वो ख़ुशी
मुझे कभी दिखी नहीं।

2. ढलता हुआ सूरज
रोशन कर रहा था,
मेरे अस्तित्व को
और मैं...
खुद को ढूंढ़ रही थी
अपनी ही परछाई में।

3. क्षण-प्रतिक्षण
अपनों के साथ में,
ढूँढ़ा किये दोस्ती को,
मगर नज़र से छिपा रहा...
पल-पल साथ रहा जो मन।

हिंद युग्म में प्रकाशित क्षणिकाएं.

शुक्रवार, 1 अक्टूबर 2010

उनका तजुर्बा, उनकी मुश्किल.....!!!!

कुछ दिन हुए हम अपने स्टोर रूम में कुछ काम कर रहे थे. पास में ही एक दूसरे स्टोर रूम में से कुछ ठोकने और मशीन की आवाज़ आ रही थी. हमने अंदाज़ लगाया कि जरूर कोई अपने स्टोर में आलमारी अथवा खूंटी लगाने का काम कर रहा है.

कोई 15 -20 मिनट बाद एक जवान, तगड़ा, लम्बा आदमी उस स्टोर में गया. दो आदमियों के बात करने की आवाज़ ... 2 मिनट बाद वो जवान चला गया.. उस स्टोर रूम से आवाजें आती रही... बात चीत की नहीं... काम करने की... कुछ देर बाद वो जवान फिर आया, और 2 मिनट बाद चला गया. और उसके कुछ देर बाद एक बूढ़ा व्यक्ति वहाँ से निकला. पतिदेव ने दुआ सलाम की , बात चीत चल पड़ी, पतिदेव ने पूछा "क्या काम कर रहे थे?" उन्होंने कहा, "स्टोर में चीज़ें रखने के लिये आलमारी बना रहा था", पतिदेव ने कहा, " तो आप इस उम्र में यह काम क्यों कर रहे थे?" तो उस बुजुर्ग के मुंह से निकल गया," क्या करें बेटा, जिन्दा रहने के लिये काम तो करना ही पड़ता है, और जो काम आता है तो उसका उपयोग भी करना चाहिए." वो जवान उनका बेटा है, जो आज अपने पिता को अपने साथ रखने का मुआवजा उनसे इस तरह के भारी काम करवा कर ले रहा है. पता नहीं उसने एक पल भी ठहर कर यह क्यों नहीं सोचा कि वो खुद भी अपने पिता की मदद कर दे....??? बस छोड़ दिया उन्हें अकेला..., क्योंकि पिता को इस काम का अनुभव जो ठहरा.

ऐसा आप में से कितने ही बुजुर्गों का अनुभव होगा कि आपके अनुभव की वजह से आपके बच्चे आप से बड़े प्यार से कह देते होंगे कि ," आपको तो इस बात का अथवा इस काम का अनुभव है, आप ही यह काम कर दीजिये". और क्योंकि अब आप अपने अनुभव को व्यर्थ नहीं जाने देना चाहते, इसलिए शरीर साथ दे अथवा ना दे, कई बार बेमन से भी वो काम कर देते हैं.

अगर बच्चों को किसी काम का अनुभव नहीं है तो कोई बात नहीं, कोई काम सीखने के लिये तो अनुभव की जरूरत नहीं होती ना? उन जवानों को चाहिए कि अपने बुजुर्गों को आदर के साथ एक कुर्सी पर बिठाएं एवं स्वयं उनके मार्गदर्शन में अपना कार्य संपन्न करें. इस तरह वो भी काम सीखेंगे और बुजुर्गों के अनुभव भी जाया नहीं होंगे.

आज कितने ही लोग अपने बुढ़ापे में अपने बच्चों के लिये काम करते हुए दिख जाते हैं.... कभी कोई नल ठीक करते हुए दिखता है तो कभी कोई दीवार रंगते हुए, कोई खाना पकाते हुए और कोई सिलाई करते हुए....एवं इसी तरह के कई काम. और यकीन जानिये इनके बच्चे इतने चतुर होते हैं कि अपने बुजुर्गों से बड़े प्यार से काम भी निकलवा लेते हैं और उन्हें अपनी मीठी बातों से हमेशा के लिये अपना गुलाम भी बनाए रखते हैं. ऐसे जवानों से पूछने का दिल करता है कि जब बच्चे पैदा करने होते हैं तब क्यों अपने बुजुर्गों से नहीं कहते कि आपको तो इस काम का अनुभव है, आप ही यह काम कर दीजिये?

उनके (बुजुर्गों के) तजुर्बे को अपनी सुस्ती के लिये इस्तेमाल ना करें. उन्हें अपना जीवन स्वछंद जीने दें और स्वयं आलस्य त्याग कर अपने कामों को अंजाम देना सीखें. उन्होंने पूरी ज़िन्दगी काम किया है अब उन्हें कुछ राहत देने के उपाय सोचें. उनका शरीर अब पहले की तरह फुर्तीला नहीं है, पर आपके शरीर की चपलता कायम है, अतः आप सब जवान लोगों से निवेदन है कि बुजुर्गों पर कोई काम छोड़ने से पहले अवश्य सोच लें कि क्या आप इस काम को करने में पूर्णतया असमर्थ है?
पुनः - उन्हें हमारी जरूरत है, उनका साथ दें.
धन्यवाद.

सोमवार, 20 सितंबर 2010

अन्तर्द्वन्द

रुके हुए सारे ख़याल ,
मौन की मुखरता को
चित्त की चंचलता को ,
और मन् की एकाग्रता को ,
पानी का सा प्रवाह देते रहे ,

कशमकश
ध्वनि और स्वर की चलती रही ,
ना दुःख जीता
ना सुख हारा
अन्तर्द्वन्द समेटे रहा निशा को,
हर नयी भोर, नयी संध्या,
नयी चुनौती देते रहे.

रविवार, 12 सितंबर 2010

फुदकते हुये चाँद को देख फुदकने लगती तुम

तुम्हारा और मेरा मिलना
मेरे लिये सबसे ज्यादा
ख़ुशी के पलों का आना होता ,
मैं तुम्हे चाँद कहता
और तुम निर्विकार, निस्पृह बैठी रहती,
यूँ लगता जैसे प्यार के उन पलों को
खो देने से पहले समेट कर
मुझे ही भेंट कर देना चाहती हो,
मैं पूछता तुमसे, "अपने लिये क्यों नहीं रख लेती कुछ पलों को? "
तुम कहती,"तुम हो ना मेरे लिये"
और मैं पुलकित हो
तुम्हे ऐसे कितने ही पल देता
जो फिर से तुम्हे "यही" कहने पर बाध्य करते....
पर
जब नीले काले आसमान का चाँद
दीखता तुम्हे,
तुम बदल जाती....
(ना जाने कितने रूप लिये हुये हो!!!!!!!!!)
फुदकते चाँद को देख,
हिरनी सी फुदकने लगती तुम भी,
तभी,
गोल गोल रोटी सा आकार देख
अचानक याद आ जाते तुम्हे
आज कई हज़ार भूखे रहे बच्चे
और
चाँद की असमतल ज़मीन पर
गिनने लगती
तारे बन चुके बच्चों की संख्या को
और
मैं गिना करता तुम्हारे आंसुओं को
जो मेरी हथेली में समाने से इनकार कर
फुदक पड़ते या लपक लेते
तुम्हारे चाँद की तरफ....
तुम कहती,
"चलो, हमें उस घर जाना है,
जहां बच्चे अकेले पलते हैं,"
"अनाथालय" कहना
बच्चों की तौहीन लगता तुम्हें,
कई बार सोचा, कह दूं तुमसे,
कि चाँद को रोटी कह देने से
वो रोटी नहीं हो जाता,
फिर तुम्हारी भावनाओं को
आघात पहुंचाए बिना
मैं कह देता हूँ,
चलो, तुम और मैं मिलकर
चाँद को रोटी और
सितारों को आलू बना दें
और
ले चलें उस घर ,
जहां अकेले बच्चे पलते हैं
और
साथ ले चलें
मेरे- तुम्हारे प्यार की रजाई,
आज... यहीं....
तुम और मैं भगवान बन जाएँ
और
रच दें एक ऐसी सृष्टि जिसमें
कोई बाल गोपाल भूख से ना मरे
ना ही शीत से कंपकंपाये....

गुरुवार, 24 जून 2010

कटोरी आज भी खाली है.......

बच्चे चाहे जितने भी बड़े हो जाएँ, माँ का प्यार अपने बच्चों के लिये कभी कम नहीं होता. शादी के समय बेटी की विदाई माँ के लिये जितनी दुखदायक होती है, उतनी ही तकलीफदेह बेटी के लिये भी होती है. शादी के बाद कुछ साल माँ से दूर रही एक बेटी अपनी भावनाओं को व्यक्त करते हुये माँ से अपने दिल की बात कह रही है साथ ही साथ माँ के दिल की बात भी उस से छुपी नहीं है.





1 ) इन आँखों को छिपाना नहीं आता कुछ,
अब जब भी मिलती हूँ तुमसे.
ना चाहते हुये भी कह देती हो तुम,
कि काश! तुम अब भी गुड़िया सी होती
और हम तुम साथ खेल पाते.....
किसी अंतराल के बिना....


2 ) तुम्हारे
मुस्कुराते होंठ
और
नम आँखें
अलग अलग कहानी कह रहे थे
तुम भी कहाँ समझ पाई कि,
बेटी ब्याहने की ख़ुशी अधिक थी तुम्हे,
या विदा करने का दुःख......

3 ) अपना सारा प्यार उड़ेल कर
उस छोटी कटोरी में तेल गर्म करके,
मेरे बालों में मालिश कर दिया करती थी,
तुम्हारे प्यार भरे छुअन को तरसती,
वो कटोरी अब खाली रहती है.....

4 ) गालों पर लुढ़कते मोती,
समेटने की कोशिश में,
नैनों का बाँध छलक आया.
तुमसे मिलने
और
बिछड़ने की प्रक्रिया में,
हर बार मिले आंसूं
और
हर बार हम गले मिलकर खूब रोये ...

सोमवार, 31 मई 2010

उन्हें हमारी जरूरत है



पिछले साल 22 मई को जब इस ब्लॉग की नींव रखी थी, तब यह पता नहीं था कि एक वर्ष बाद उन्ही बुजुर्गों के लिये काम कर रही होउंगी, जिनकी प्रेरणा से ब्लॉग बनाने का विचार पुख्ता हुआ था. पहली पोस्ट उन्हें ही समर्पित थी और आगे भी उन पर लिखती रहूंगी.

इस ब्लॉग की पहली पोस्ट में अपील की थी कि हम बुजुर्गों को पुनः शिक्षित करने के लिये कदम उठायें. उसे दोहराने के साथ आप सब से एक निवेदन करना चाहूंगी कि बुजुर्गों को सम्मान दें, उन्हें भी उतने ही प्यार की आवश्यकता है जितना कि किसे नन्हे शिशु को , किसी बढ़ते बच्चे को, किसी जवान को अथवा किसी प्रौढ़ व्यक्ति को.

पिछले कुछ महीने हुये, रेड क्रोस को पास से जानने का अवसर मिला, उन्ही के द्वारा चलाये जा रहे, एक बुजुर्गों के लिये समर्पित प्रोग्राम में सम्मिलित हुई, बुजुर्गों के एकाकीपन को भी जाना और सर्वस्व अर्पित कर उन्होंने जिन बच्चों को पाल पोस कर बड़ा किया था, उन्ही की जुदाई में बहते आंसुओं का दरिया भी देखा. और उस से भी बड़ी बात यह देखी कि उनके बच्चे उन्हें छोड़ कर चले गये, बुजुर्ग फिर भी अपने बच्चों को दोषी नहीं कहते . यह ममता का एक स्वरुप हो सकता है पर मेरी नज़र में यह करुणा हम सभी को बुजुर्गों के प्रति अपनानी चाहिए. उन्हें हमारी जरूरत है.

शुक्रवार, 30 अप्रैल 2010

एकांत

दीवारें (अनधिकृत परेशानियाँ ) शोर करें और उन्हें शांत होने को ना कह सकें, ऐसा एकांत अपने ही वजूद में गहरे... और गहरे घाव करता जाता है.
अध्यात्म की दुनिया से विवेचनाओं की कुछ बूंद अमृत प्राप्त करने को सिसकता मन दिमाग के बंद दरवाजों पर दस्तक देते हार जाता है और मस्तिस्क एक जिद्दी बालक सा हठ लिये अपने अस्तित्व को खोजने नहीं देता. हार और समर्पण एक दूसरे के पूरक लगने लगते हैं. जीतने से भी विवेक लौट तो नहीं आता !!!!





कहीं पास ही किसी मधुर गीत के स्वर अचानक आमंत्रित करते हैं (शायद किसी का मोबाइल है) और मन चल पड़ता है उन स्वर लहरियों के भ्रमित मायाजाल की ओर..... इस मोह जनित भटकाव को ईश्वर की लीला कह कर झूठे सुकून से मन को बहलाया जाता है और अपने निश्चित लक्ष्य को भूल, भटकी राहों पर उठे क़दमों को दोबारा वास्तविकता की ओर मोड़ लाने का संकल्प मन को याद आ जाता है. पर भावनाओं के गहरे भंवर से लौटना इतना आसान तो नहीं होता................!!!!!

बुधवार, 14 अप्रैल 2010

परछाईयों का शहर 4 (अंतिम भाग)

गतांक से आगे....

"रामधारी ले चलो इन्हें पूछ ताछ के लिये."
"येस सर."
पुलिस के साथ उन तीनों की पूछताछ चल रही है.
"ड्रग्स का तस्करी में पकड़ा गया है तुम लोगों को .... मालूम है ना कितना बड़ा जुर्म होता है ये?"
तीनों गर्दन झुकाए अपनी आने वाली मुश्किल का ताना बना बुन रहे हैं. उनसे वो सवाल पूछा जा रहा है, जिसका जवाब उन्हें पता ही नहीं है. उन्हें तो यह भी नहीं पता कि कपडे में ड्रग्स कहाँ से आया!!! तस्करी तो बड़ी दूर की बात है, तीनों ने कभी ड्रग्स की शक्ल भी नहीं देखी.

"देखो, तुम तीनों अब तक दुनिया में खड़े होना भी नहीं सीखे हो... कोई तुम्हारा नाजायज़ फायदा उठा कर बच रहा है और तुम पकडे गये हो, अब अगर यहाँ से बच कर जाना चाहते हो तो सीधे सीधे बता दो कि तुम किसके लिये काम करते हो?"
"साहब, बताया ना कि हम रविन सर के लिये काम करता है...."
"फिर झूठ!!!!! ऐसा नाम का कोई आदमी है ही नहीं."
"तुम तीनों भले घर के दिखते हो, क्यों बेफालतू के लफड़े में पड़ते हो, तुम सिर्फ अपने मालिक का नाम बता दो, आगे हम देख लेंगे.समझाओ भाई ... कोई समझाओ इनको"
"हम सच बोलता है साहब..." मनीष खुद को एकदम असहाय पाता है, उसे कुछ सूझ नहीं रहा कि क्या करे, कैसे समझाए!!!
"साहब, आपको मांगता तो हम फिर से अपना ऑफिस ले चलता है ना आपको."
"ऑफिस ले चलेगा!!! उधर ना कोई तुझे पहचानता है ना तू किसी को पहचानता है.... हाँ!! चल, ले चल ना !!! (इंस्पेक्टर उन्हें चिड़ाते हुये बोलता है) अब तो लगता है तुम लोग इसी जेल की चारदीवारी में परमानेन्ट बसने वाले हो. क्यों भाई आराम से तो हो ना? तुम्हारे वास्ते खटिया मंगाये दूं?"
"गला सूख रहा है साहब, थोडा पानी मिलेगा?"
"पानी पीना है....हाँ मिलेगा ना, जरूर मिलेगा... हवलदार, इन साहब को पानी चाहिए, जाओ ले आओ पानी."
हवलदार पानी लाता है, इंस्पेक्टर मनीष के चेहरे पर पानी फेंकता है, "क्यों इतना पानी बहुत है या और मंगवाऊं?
"हमें छोड़ दो साहब, हम सच कह रहे हैं, हमने कुछ नहीं किया.... आई!! देवा!! बचाओ!!!"
"अब तुम्हे भगवान् याद आ रहे हैं, जब ऐसा गन्दा काम करते हो तब भगवान् याद नहीं आते? हाँ??"
"अब कैसे बतायें तुम्हे साहब, हमने कुछ नहीं किया...हमने कुछ नहीं किया...हमने कुछ नहीं किया." मनीष रोता है.
"हवलदार, यह ऐसे नहीं मानेगा, एक बाल्टी पानी और ले आओ."
"क्या हुआ रे मनुआ? क्यों चिल्ला रहा है?" मनीष को अपनी आई की आवाज़ सुनाई देती है.
"आई!! तू आ गई आई!!! देख आई देख, तेरे मनु को कैसे सता रहे हैं यह पुलिस वाले!!!"
इंस्पेक्टर फिर से उस पर पानी फेंकता है, मनीष रोता है और चिल्लाता है,"आईइ इ इ इ इ !!!"
"अरे चल उठ मनुआ!!! कब तक नींद में चिल्लाता रहेगा!!!"
मनीष हडबड़ाहट में उठता है, "आई! आई!!! यह तू है? इतना पानी डालने की क्या जरूरत थी आई?"
"साहब, साहब, हम कुछ नहीं किया साहब!.... अरे तू नींद में ऐसा बड़बड़ाता रहेगा तो तेरेको कैसे जगाये कोई!!!" आई खिलखिलाकर हंस पड़ती है.
"क्या आई!! तू ना कभी बच्चों से भी छोटी बन जाती है. मैं सीरियस सपना देख रहा था और तू हंस रही है? मालूम तेरे को, सपने में पुलिस पकड़ कर ले गई मेरे को, मेरी तो हालात हीच खराब होने को थी, वो तो देवा बचाया मेरेको... नहीं नहीं...आई, तुने बचा लिया आज."
"हाय देवा!!! मनुआ, तू ठीक तो है रे?
"हाँ आई! अब्बी ठीक है मैं, पन थोड़ी देर पहले ऐसा लगा कि गया अपुन तो काम से." मनीष आँखें झपकाते हुये फिर से अपने कमरे को और सामने खड़ी आई को देख कर खुद को आश्वस्त करता है कि अब सब ठीक है.
"क्या क्या सोचता रहता है रे तू! देवा है ना तेरे साथ... कुछ नहीं होने देगा तेरेको."
"हाँ आई, तेरा आशीर्वाद भी तो है.... तब्बी तो इधर तक पहुंचा है."
"चल, अब देर ना कर, तैयार हो जा, तेरा साहब आता होगा, मालूम ना समय का अंग्रेज है वो."
"हाँ आई, तू डब्बा बना, मैं अभी आया ."

समाप्त.


बुधवार, 7 अप्रैल 2010

परछाईयों का शहर 3

इसके पहले -

गतांक से आगे......

5 महीने बाद

मनीष और उसके साथी शिपमेंट उतार रहे हैं, कुछ कस्टम ऑफिसर वहाँ पर चेकिंग के लिये आये हैं, मनीष के 3 साथी तत्काल भाग जाते हैं, मनीष और उसके दो साथियों से ऑफिसर जांच पड़ताल करते हैं.
"क्या हो रहा है यहाँ?"
"माल उतार रहे हैं साहब."
"तुम्हारे साथी भाग क्यों गये?"
"पता नहीं साहब... कोई लफड़ा किया रहेगा..."
"अच्छा दिखाओ, क्या है माल में !!!"
"कपड़ा है साहब..."
"खोलो ज़रा, देखें कैसा कपड़ा है?"
"रामधारी, चेक करो यह सामान"
"यस सर"
.....
" सर, इसमें यह कोकीन बरामद हुआ है.."
"क्यों बे!!! तुम तो कह रहे थे कि कपड़ा है, एक तो सरकार की आँखों में धूल झोंकते हो, और ऊपर से झूठ भी बोलते हो, रामधारी ... लगाओ इन सब को हथकड़ी और ले चलो हमारे ऑफिस ."
"साहब , हमारा कोई कसूर नहीं, हम तो बस सामान उतारते हैं, यह तो कम्पनी वालों का सामान है, आप कहो तो हमारे साहब से बात करवा दें."
"अब बात- वात थाने पहुँच कर ही होगी."
"हम सच कह रहे हैं साहब, हमारा कोई दोष नहीं, हमें तो पता भी नहीं साहब कि इसमें कोकीन है..."
"बस्स्स... चुप रहो. ज्यादा बक बक मत करो."
"साहब , सुन तो लो हमारी बात..."
"रामधारी, यह माल ज़ब्त कर लो और इन्हें ले चलो ."
उन तीनों को ड्रग्स तस्करी के अभियोग पर गिरफ्तार कर थाने ले जाते हैं .
"सर, एक बार हमारे ऑफिस बात कर लेने दीजिये.... प्लीज़."
" हाँ सर, तब आपको भी यकीन हो जायेगा कि इसमें हमारा कोई दोष नहीं ...प्लीज़ सर."
"यह भी ठीक है, रामधारी, गाडी इनके ऑफिस ले चलो, वहीँ पता चल जायेगा कि मामला क्या है..."
"तुम्हारे ऑफिस का पता बताओ...."
"फेब्रिक एन फेब्रिक कम्पनी........."
******
सब लोग फेब्रिक एन फेब्रिक कंपनी पहुँचते हैं, मनीष और उसके साथियों को लेकर ऑफिसर अन्दर दाखिल होता है.
" हेल्प डेस्क की लड़की अनजान लग रही है, शायद कोई नई लड़की है, दूसरे डिपार्टमेंट्स के लोग भी अनजान लग रहे हैं , जाने सब लोग कौन हैं???"- एक साथी आश्चर्य से कहता है.
"हाँ, यहाँ तो सब चेहरे अनजान लग रहे हैं...!!!!!"
"चलो रविन सर के लिये पूछते हैं..." मनीष सुझाव देता है .
"मैडम, रविन सर से बात करनी है."
"हू आर यू? एंड हू इस रविन? व्हाट डू यू वांट ?"
" मैं मनीष हूँ और इस कम्पनी में रविन सर ने काम दिलाया था, आप शायद नई हैं और उन्हें नहीं जानती."
"व्हाट!!! इ हेव बीन वर्किंग हियर सिन्स पास्ट एट ईयर्स, इ हेव नेवर सीन यू बीफोर एंड मोर ओवर नो वन नेम्ड रविन वर्क्स हियर .एनी थिंग एल्स ?"
"रामधारी, ले चलो इन तीनों को, यह लोग हमारा समय नष्ट करने के लिये किसी गलत जगह पर ले आये हैं."
"नहीं साहब, हम सच कह रहे हैं , यही हमारा ऑफिस है, रोज़ का आना जाना होता है यहाँ हमारा..."
" अच्छा, रोज़ यहाँ आते हो... तब किसी को तो पहचानते होगे???"
तीनों के चेहरे लटक गये.. कोई भी चेहरा उन्हें पहचाना हुआ नहीं लग रहा.
"यही तो मुश्किल है साहब, आज कोई भी पहचान में नहीं आ रहा."
"पता नहीं क्या माजरा है!!!!"
तीनों पशोपेश में एक दूसरे को देख रहे हैं, उनकी हैरानी अब डर में बदलती जा रही है.

क्रमशः ........

इसके बाद यहाँ पढ़ें -


बुधवार, 31 मार्च 2010

परछाईयों का शहर 2

इसके पहले

गतांक से आगे....

मनीष के घर का दृश्य

"आई....!!! ओ आई!!!"
"दरवाजा खोल आई!! मैं हूँ, मनीष."
"आज बड़ी देर कर दी आने में मनु!!! कहाँ गया था रे? बाबा अभी अभी तेरी राह देख सोया है."
हाँ आई, आज एक भला मानुस मिल गया था, रस्ते में , उसके साथ बातें करते देर हो गयी."
"कौन था रे? यूँ अजनबी लोगों से बात ना किया कर, कभी कुछ जादू टोना कर दिया तो हम तो कहीं के न रहेंगे, देवा !!!!कुछ समझा बिटुआ को."
"नहीं आई, सच में भला इंसान था, देख, उसका कारड भी है मेरे पास."
और मनीष अपनी माँ को खाना खाते खाते सारी कहानी बताता है.
"कल ही जाता हूँ आई, ये साहब से मिलने.....फिर वो सारा दिन दूकान पर बैठ कर थोड़ी कमाई की जगह, बहुत पैसा लाऊंगा, प्रीती से शादी करके हम सब एक नवे फ्लैट में शिफ्ट हो जायेंगे, एक कार भी खरीद लेंगे आई, फिर तुम्हे रोज़ मार्केट पैदल नहीं जाना पड़ेगा. हम भी एक बड़ा आदमी बन जायेगा, और लोग मुझे सलाम करके मनीष साहब बुलायेंगे."
"मनु!!!!! मनु!!!! सपने देखने बंद कर और जल्दी खाना खा ले, कल सुबह तुझे नौकरी पर जाना है रे. चल, देर ना कर."
"क्या आई!!! तू मुझे सपने में भी बड़ा आदमी नहीं बनाने देती!!!!"
" बिटुआ, इंसान सपने देखने से नहीं, मेहनत करने से बड़ा बनता है, जिस दिन तू यह समझ जायेगा तो खुद ही बड़ा आदमी बन जायेगा रे."
"आई, तेरा बेटा बहुत मेहनत करेगा और सारे सपने सच कर लाएगा, देखना तू."
"जो भी काम करना बिटुआ, बहुत संभाल कर करना, इस शहर में आदमी कम और परछाइयाँ ज्यादा बसती हैं, एक पल को आदमी तुझसे बात करते दिखेगा और अगले ही पल तुझे पहचानेगा भी नहीं, साये से भी जल्दी साथ छोड़ देते हैं इस शहर के लोग."
"हाँ आई, मैं ध्यान रखूँगा, तू चिंता ना कर."
"चल अब चल कर सो जा."

* * * * * * * * * *


रविन के घर का दृश्य
"हाय स्वीटी!!!"
"हाय रविन"
"डैड और माम सो गये?"
"हाँ काफी देर हुई,उन्हें सोये हुये,तुम जानते हो ना,दोनों जल्दी उठा कर जोग्गिंग को जाते हैं, बोथ आर वेल ओर्गेनाइसड."
"एक तुम ही हो जो टाइम का ध्यान नहीं रखते, कहाँ देर हुई आज?"
"तसल्ली से बैठ कर बताता हूँ जानू , पहले कुछ खिलाओ पिलाओ यार, बड़ी भूख लग रही है"
"अच्छा जी!!! तो जनाब को भूख भी लगती है !!!! आज चाँद कहाँ से निकला है, देखना पड़ेगा!!!!"
"मजाक मत करो स्वीटी डार्लिंग, सच में भूख लग रही है, क्या बना है आज?"
"चलो, तुम फ्रेश हो कर आओ, तब तक में देवा चाचा को कहती हूँ खाना लगाने को."
"ठीक है, बलदेव से भी कह देना कि कार गेराज में पार्क कर दे."
"ओ.के."

रविन और स्वीटी खाना खाते हुये बातें करते हैं.
"ये चाचा क्या कमाल का खाना बनाते हैं , जी कर रहा है बस खाता ही जाऊं."
"बस!! बस!! रहने भी दो, कभी घर पर खाना खाने का टाइम मिलता है तुम्हे?? "
"तुम्हे तो पता है यार, कितना काम रहता है ऑफिस में, फिर मीटिंग्स, क्लाइंटस को डिनर पर ले जाना.... अच्छा!!! आज,पता है क्या हुआ??"
"क्या हुआ डिअर ?"
"ऑफिस से निकला तो एक लड़का मेरी कार को बड़े गौर से देख रहा था , मैं समझा कोई चोर है, कार चुराना चाहता है शायद, मैंने उसका पीछा किया और पकड़ लिया उसे, पर बड़ा ही मजेदार बंदा निकला वो तो."
"देखो रविन, ऐसे लोगों से दूर ही रहा करो, गार्ड से क्यों नहीं कहा उसे पकड़ने को, तुम्हे कुछ कर देता तो!!"
"अरे यार गार्ड बड़ी दूर था, अगर उसे बुलाता तो वो लड़का भाग जाता, और यूँ भी अच्छा ही हुआ जो पकड़ा उसे, एक नये लड़के की जरूरत भी थी, अपना विसिटिंग कार्ड दे कर आया हूँ, जरूरतमंद लग रहा था, देखना कल ही मेरे ऑफिस पहुँच जायेगा."
"सारे जरूरतमंद लोग जाने तुम्हे ही कैसे मिल जाते हैं???."
रविन मुस्कुरा कर बोला," तुम्हारे लिये एक नया डायमंड नेकलेस देखा है, परवेश को कहा है, कल घर ले आएगा, तुम्हे पसंद आये तो रख लेना. "
"वाव !!!!! तुम बहुत समझदार हो, और बातों को घुमाना भी खूब आता है तुम्हे."

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रविन का ऑफिस
"सर, सम मनीष नेम्ड परसन हेस कम टू मीट यू ."
"ओ.के., सेंड हिम इन आफ्टर ट्वेंटी मिनिट्स."
"ओ.के. सर."

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"अपुन अन्दर आयें क्या साहब??"
"अरे मनीष!!! आओ, आ जाओ!!!"
"बैठो, बैठो ...चाय , काफी कुछ लोगे?"
"क्या साहब, काहे शर्मिंदा करता है!!!"
"अच्छा कहो, कैसे आना हुआ?"
"साहब... वो..... आपने बोला था ना, कुछ काम दिलाएगा....."
"अरे हाँ, देखो , हमारी कम्पनी कपड़ा इम्पोर्ट करती है, हर 15 दिन में बाहर से शिपमेंट आता है, तो हमारी टीम को एक लड़के की जरूरत है. जो बड़े व्यापारियों को माल जाता है, उसके साथ, तुम्हे जाना होगा और रसीद पर उनके साइन करा कर लाना होगा, अगर तुम्हे कोई समस्या ना हो तो, मेरी सेक्रेटरी से कह देता हूँ, वो तुम्हारा कांट्रेक्ट बना देगी. "
"बस साहब, इत्ता सा काम!!!! इसका तो आप मेरे को बहुत कम पगार देगा......"
" 50 ,000 रुपया महीने का देंगे , अगर तुम्हे कम लगता है....."
"अरे नहीं साहब, यह तो बहुत पैसा है....... पन एक बात बताओ, इतने से काम का इतना पैसा देंगे, कहीं कोई गलत धंधा तो नहीं है ना साहब???"
"देखो मनीष, बड़ी जिम्मेदारी का काम है यह, बहुत पैसा इधर से उधर होता है इस काम में, तुम्हे बाहर गाँव जाना पड़ेगा, व्यापारी लोग तुम्हे पैसा देंगे , जो लाकर तुम्हे यहाँ अकाउनटेंट को जमा करना होगा, इसीलिए, इतना पगार दे रहे हैं, तुम्हे नहीं करना यह काम , तो......"
"नहीं, नहीं साहब, बोलो कब से आना होगा काम पर? अपुन को पूरा भरोसा है आप पर साहब."
"बाहर मेरी सेक्रेटरी से बात कर लो , वो सब बता देगी तुम्हे."
"अच्छा साहब, चलता है , थेंक यू."

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क्रमशः ........

गुरुवार, 25 मार्च 2010

परछाईयों का शहर 1

"रुको!!"
"ए! तुम!!"
"रुक जाओ!!"
जैसे जैसे आवाज़ पास आ रही थी, उसके कदम और तेजी से आगे बढ़ रहे थे, पर पीछा करने वाले के कदमों की गति हवा की तरह रही होगी जो पल भर में ही उसके पास पहुँच कर उसे पीछे से पकड़ लिया... उसने डर के मारे पीछे मुड कर देखना भी गवारा नहीं किया.
"तुम भाग क्यों रहे थे?"
"मैंने कुछ नहीं किया है साहब.... ",उसकी आवाज़ रोने सी हो रही थी....
"फिर भागे क्यों?" पीछा करने वाले की नरम आवाज़ सुनकर अबकी बार उसने पीछे मुड कर देखा. सूट- बूट में सभ्य और शालीन एक व्यक्ति उसकी बांह पकड़ कर उस से सवाल कर रहा था.
"साहब , वो ... वो प्रीती है ना.... कहती है, उसे मर्सडीज़ लाकर दूं तो ही मुझसे ब्याह करेगी, अपुन के पास तो पैसा है नहीं, आपकी गाडी खड़ी थी तो बस उसे ही देख रहा था कि मर्सडीज़ कैसी होती है.... सपना देखने का पैसा नहीं लगता ना साहब??? पर यह छोकरी लोगों को कौन समझाए कि पैसा पेड़ पर नहीं लगता..." भय को खोये हुये ज़माना गुजर गया और वो इस तरह पीछा करने वाले से बात कर रहा था जैसे जन्मों से जानता हो.
पीछा करने वाले को हंसी आ गई, और वो उस लड़के को साथ लेकर एक पेड़ के नीचे बैठ गया ,"क्या नाम है तुम्हारा?"
"मनीष..... साहब आपकी शादी की हुई है?"
"हाँ..."
"फिर आप इत्ती रात गये इधर काहे ? आपको तो अभी अपनी बीवी के साथ होना मांगता न!!!"
"ह्म्म्म ....होना तो मांगता......"
"बस बस, मैं समझ गया साहब...यह छोकरी लोगों को कित्ता भी दो , कभीज़ खुश नहीं होती, तब्बी तो आपके जैसे बाबू लोग भी रात गये सड़कों पे भटकते फिरते हैं...क्यों?? है ना यहीच बात!!!!"
उसे फिर से हंसी आ गई," नहीं मनीष, ऐसी कोई बात नहीं है, मेरी बीवी बहुत समझदार है और बहुत अच्छी भी, मेरा ऑफिस घर के पास में ही है, तो कभी कभी काम करते देर हो जाती है, तुम्हे अपनी गाडी के पास देखा तो तुम्हारा पीछा करते यहाँ आया और तुमसे निपटने को रुक गया."
"समझे क्या???" अबके उसने भी मनीष की टपोरी भाषा में बोला और खुद ही हंस पड़ा .
उसके साथ मनीष भी हंसा और कहा,"साहब, आपकी बीवी शिकायत नहीं करेगी इत्ती देर से घर जाओगे तो?
"हाँ, शिकायत तो करेगी पर मैं प्यार से उसे मना लूँगा."
"यहीच लफडा अपुन को नहीं पालना, पहले शादी करो, फिर नखरे सहो और फिर मनाते रहो जीवन भर... मनाना बोले तो मस्का पोलिश...है ना साहब? अरे वो अपनी प्रीती है ना...वो भी बात बात पर रूठ जाती, फिर बोलती आज आइस क्रीम खिलाओ , आज सिनेमा चलो, आज चोक्लेट ले आओ, आज नया ड्रेस दिलाओ .... और भी ना जाने क्या क्या!!! आज नवी फरमाइश करती है कि मर्सडीज़ चाहिए, तुम ही कहो साहब, मैं एक छोटी दूकान में नौकरी करने वाला, ऐसी गाडी किधर से लाएगा? अपुन ने तो डीसाइड कर लिया है कि अपुन कभी शादीच नहीं करेगा, क्यों साहब करेक्ट सोचा ना?"
"मनीष , मेरे भई, शादी को लोग एक लोटरी कहते हैं, शादी के बाद किसी का जीवन संवर जाता है और किसी का घर तबाह हो जाता है, पर एक बात सच है कि अगर ये छोकरी लोग ना हो तो आदमी का जीवन एकदम नीरस हो जाये, तुम कुछ भी फैसला करने से पहले सोचो तो सही कि वो तुम्हारी प्रीती है तो तुम उसके साथ कितने खुश रहते हो, क्यों है ना सच?
मनीष शरमाकर गर्दन नीचे करके बोला, " सच्ची साहब, वो होती है तो हम दोनों कितनी बातें करते हैं, कभी कभी चौपाटी पर घुमने भी जाते हैं, और दोनों ही खुश रहते हैं, मेरे को मालूम है कि वो कभी भी कुछ भी मांगती पर दिल की बड़ी अच्छी है साहब , वो दिन मेरेको बुखार आया तो पूरी रात मेरी सेवा की, मेरी आई बोलती कि, मनु, तेरे जैसे गधे को इतनी समझदार लड़की किधर से मिली रे? ".
"वो तो आई को मैंने हीच रोक रखा है, उसका बस चले तो आज ही मेरी शादी करा डाले"

फिर वो सुनसान, पथिक हीन सड़क उन दोनों के गूंजते कहकहों की गवाह बन गई .
"मनीष, तुम कभी आना मेरे ऑफिस, कोई अच्छी नौकरी मिली तो दिलाऊंगा तुम्हे. यह मेरा विसिटिंग कार्ड रख लो."
"थेंक यू साहब जी , जरूर आऊंगा."
दोनों विदा लेकर अपने अपने घर की और चल देते हैं.

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क्रमशः ......

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बुधवार, 10 मार्च 2010

कुछ यूँ ही....

"तेरे जीने को लम्बी उम्र मांग तो ले पूजा,
फिर सवाल न करना कि मेरी खता क्या थी?"

"दुश्वार जीवन को हासिल ख़ुशी कर दे मौला,
मेरे ग़मज़दा होने की दुआ में तेरी रज़ा क्या थी?"

"ले आज फिर मेरी बलाओं का सदका ए खुदा,
मेरी चाहतों की इस से बड़ी सजा क्या थी?"

आँख से गिरा हर अश्क तेरी दास्ताँ बयाँ किया,
तू ही न सुने तो अश्क की मजबूरी क्या थी ?"

मंगलवार, 26 जनवरी 2010

जिंदगी

मेरे भाई गौरव ने आज पहली बार एक कविता लिखी और मुझे भेजी. जीवन के छुए अनछुए पहलु अपनी झलक दिखा कर हम सभी के अन्दर छिपे एक कलाकार को कभी ना कभी बाहर ले ही आते हैं, ऐसा ही कुछ इनके साथ भी हुआ. और उसी कवित्व भाव को बनाए रखने के लिये और उभरती प्रतिभा को निखारने के लिये अपने ब्लॉग पर पहली बार किसी और की कविता पोस्ट कर रही हूँ . आप सभी से स्नेह बनाए रखने की उम्मीद करती हूँ. धन्यवाद.


जिंदगी भी एक अजीब तमाशा है..
कभी आशा है कभी निराशा है.. !!

आँखे खुली हो तो उम्मीद नज़र आती है
और ये बंद आँखों मैं भी सपना दे कर जाती है..!!

क्या शिकायत है अपनों से ,
गिला है अपने ही सपनो से ...!!

बूढी दादी की वो कहानियाँ अब कहाँ हकीकत बताती है.
सपने वाली वो परी अब कहाँ रोज़ मिलने आती है ...!!

इस जिंदगी की रफ़्तार मैं मैंने खो दिया अपनों को,
ख़ुशी के सागर की तलाश मैं मैंने खोया छोटे छोटे सपनो को ..!!


आज जब उम्र ढल रही,
जिंदगी की वो तमाम बातें याद आती है ..!!

कभी ख़ुशी के वो पल आँखों मैं आंसू ले आते हैं,
कभी गम के सागर मैं खुद को तनहा पातें हैं..!!

सोमवार, 25 जनवरी 2010

नमक रोटी

"जसुमति नंदन रोटी खावे,
भीम रे जैसो बड्को होवे"
"क्या माँ...तू रोज़ एक ही बात कहे है.." मुझे नी खानी सूखी रोटी- अचार...... तीखा लगे है अचार, तू दही क्यूँ ना लाती? "
"कल ला दूंगी मेरे लाल ... आज खा ले रे, अब अपनी माँ को और ना सता, चल खा ले."

"जसुमति!!! ओ जसुमति!!!"
"सुण.... कल गणतंत्र दिवस के जुलुस में तेरे लाल को ले जाना है,शहर जाना है री , सुबह जल्दी उठ जाना."
"बापू.... मैं भी शहर चलूँगा?"
"हाँ...बेटा"

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दूसरे दिन शहर में गणतंत्र दिवस के जुलुस और नेताजी के भाषण के बाद सबको लड्डू और समोसा दिया जाता है .

छोटू बड़े जतन से खाता है और अपनी माँ से कहता है,"देखा माँ, नमक रोटी से कोई भीम नी होता, वो नेता जी के घर
में लड्डू खाते हैं तभी तो इतने बड़े हो गये हैं . अब तो मेरे वास्ते लड्डू लावेगी?"