झूला झूलने की है ठानी ,
झूले पर बैठी गुडिया रानी ,
मन में आया तेज चलाऊं ,
ऊँची थोडी पेंग बढ़ाऊं ,
माँ ने बोला, धीरे चलाना ,
तेज गति से गिर ना जाना ,
पर उसने ना माँ की मानी,
करती रही अपनी मनमानी ,
तेज उडाने से वो पलटी,
गिरी धरा पर होकर उलटी ,
आंसू टप टप ढुलके आयें ,
नानी की उसे याद दिलाएं,
माँ ने प्यार से गोद उठाया,
उसे चूम कर गले लगाया,
बड़ी प्यारी मेरी गुडिया रानी,
बोलती हंसकर मीठी बानी.
सोमवार, 21 दिसंबर 2009
गुरुवार, 5 नवंबर 2009
दर्द
दर्द दुनिया से अनचाहे मिलते रहे,
हम तोहफे समझ अपनाते रहे.
हमदर्द कुछ बांटने को आये दर्द, (तो)
मुस्कुराहटों में आँसू छिपाते रहे.
मुश्किलों ने बार बार दस्तक दी,
उन्ही से दरो दीवार सजाते रहे.
जो आँसूओं पर भी लग गए पहरे,
शब्द समेटने में रातें बिताते रहे.
तन्हाइयों से फासले और कम हुए,
सन्नाटों को कहानियाँ सुनाते रहे.
जिन राहों पर कभी कांटे नहीं मिलते,
नयन उन्ही के ख्वाब दिखाते रहे .
क्यों ये ख्वाब सच नहीं हुआ करते,
ख़याल ताउम्र ये सवाल उठाते रहे.
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शब्द समेटना - कहानी अथवा कविता लेखन
हम तोहफे समझ अपनाते रहे.
हमदर्द कुछ बांटने को आये दर्द, (तो)
मुस्कुराहटों में आँसू छिपाते रहे.
मुश्किलों ने बार बार दस्तक दी,
उन्ही से दरो दीवार सजाते रहे.
जो आँसूओं पर भी लग गए पहरे,
शब्द समेटने में रातें बिताते रहे.
तन्हाइयों से फासले और कम हुए,
सन्नाटों को कहानियाँ सुनाते रहे.
जिन राहों पर कभी कांटे नहीं मिलते,
नयन उन्ही के ख्वाब दिखाते रहे .
क्यों ये ख्वाब सच नहीं हुआ करते,
ख़याल ताउम्र ये सवाल उठाते रहे.
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शब्द समेटना - कहानी अथवा कविता लेखन
मंगलवार, 20 अक्टूबर 2009
एक रक्षा कवच
तुम्हारी मीठी बातें,
मुझे ही नहीं,
मोह लेती हैं बाकी सब को भी,
इन बाकी ´सब´ में शामिल हैं,
तुम्हारे दादा-दादी, नाना - नानी,
और मोहल्ले के सभी
चाचा- चाची, भुआ, भैया और दीदी.
तुम्हे देख कर चहक उठता है मन,
दौड़ जाती हैं खुशियों की लहरें,
फिर अचानक आती है एक लहर भय की,
कहीं नज़र ना लग जाये तुम्हे.......!!!!
इसीलिए...
सोचती हूँ कि तुम्हारी सलामती के लिए,
हो आऊं पंडित जी के पास,
और एक रक्षा कवच बनवा लूं.
फिर उठते हैं कई सवाल....
और यह सब अंधविश्वास लगने लगता है,
क्या दुनिया में बुराई इतनी प्रबल है कि,
सोचने भर से किसी का बुरा होगा???
मन कहता है कि,
सच्चाई और अच्छाई की हमेशा जीत हुई है..........
हर बुरी नजर का तोड़,
तुम्हारा भोलापन /मासूमियत है
कौन हानि पहुंचा पायेगा इस ईश्वरीय मुस्कान को....!!!
मुझे ही नहीं,
मोह लेती हैं बाकी सब को भी,
इन बाकी ´सब´ में शामिल हैं,
तुम्हारे दादा-दादी, नाना - नानी,
और मोहल्ले के सभी
चाचा- चाची, भुआ, भैया और दीदी.
तुम्हे देख कर चहक उठता है मन,
दौड़ जाती हैं खुशियों की लहरें,
फिर अचानक आती है एक लहर भय की,
कहीं नज़र ना लग जाये तुम्हे.......!!!!
इसीलिए...
सोचती हूँ कि तुम्हारी सलामती के लिए,
हो आऊं पंडित जी के पास,
और एक रक्षा कवच बनवा लूं.
फिर उठते हैं कई सवाल....
और यह सब अंधविश्वास लगने लगता है,
क्या दुनिया में बुराई इतनी प्रबल है कि,
सोचने भर से किसी का बुरा होगा???
मन कहता है कि,
सच्चाई और अच्छाई की हमेशा जीत हुई है..........
हर बुरी नजर का तोड़,
तुम्हारा भोलापन /मासूमियत है
कौन हानि पहुंचा पायेगा इस ईश्वरीय मुस्कान को....!!!
शुक्रवार, 28 अगस्त 2009
मेरी माँ
मेरी माँ
मैं घिरी सघन वृक्ष लताओं से,
तुम तेजस्विनी /
अरुण्मय प्यार तुम्हारा,
स्वर्णिम,
सूर्य रश्मियों सा
छनकर,
दस्तक मेरे दिल पर देता।
तुम्हे देख रही मैं बचपन से,
कहाँ जान पाई पूरे मन से!!!
तुम आत्मसात कर लेती सबको,
अपने विशाल ह्रदय में.
करती सबके बोल अंतर्मन,
यही तुम्हारा बाल मन,
सबका मन हर लेता।
मैं घिरी सघन वृक्ष लताओं से,
तुम तेजस्विनी /
अरुण्मय प्यार तुम्हारा,
स्वर्णिम,
सूर्य रश्मियों सा
छनकर,
दस्तक मेरे दिल पर देता।
तुम्हे देख रही मैं बचपन से,
कहाँ जान पाई पूरे मन से!!!
तुम आत्मसात कर लेती सबको,
अपने विशाल ह्रदय में.
करती सबके बोल अंतर्मन,
यही तुम्हारा बाल मन,
सबका मन हर लेता।
सोमवार, 17 अगस्त 2009
कुछ खुशियाँ चुराई हैं मैंने
जब तक मुझे विश्वास था
कि तुम्हारी दो आँखें मुझे देख रही हैं ,
मैं कहता रहा तुमसे
अपना ध्यान रखा करो
और खुश रहा करो ,
बहुत स्वार्थी था मैं,
कभी शुक्रिया ना कह पाया.
तुम्हे यह जताता रहा
कि मुझे फ़िक्र है तुम्हारी
और तुम मेरा ध्यान रखती रही .
आज जब तुम चली गयी
कभी ना लौटने के लिए
तो सत्तर साल में पहली बार
तन्हा होने का एहसास हुआ
कि आदत हो चली थी मुझको
उन दो आंखों की,
जो प्रतीक्षा किया करती थी ,
मेरे घर लौट आने तक.
और मैं करता रहा वादा
तुम्हे ज़िन्दगी भर खुशियाँ देने का
और बटोरता रहा
खुशियाँ
जो तुम मुझे देती रही,
आज फ़िर ,
तुम्हारी यादों के खजाने में से
कुछ खुशियाँ चुराई हैं मैंने ,
और निकल पड़ा हूँ
मुस्कान बांटने ,
अपने जैसों के बीच .
कि तुम्हारी दो आँखें मुझे देख रही हैं ,
मैं कहता रहा तुमसे
अपना ध्यान रखा करो
और खुश रहा करो ,
बहुत स्वार्थी था मैं,
कभी शुक्रिया ना कह पाया.
तुम्हे यह जताता रहा
कि मुझे फ़िक्र है तुम्हारी
और तुम मेरा ध्यान रखती रही .
आज जब तुम चली गयी
कभी ना लौटने के लिए
तो सत्तर साल में पहली बार
तन्हा होने का एहसास हुआ
कि आदत हो चली थी मुझको
उन दो आंखों की,
जो प्रतीक्षा किया करती थी ,
मेरे घर लौट आने तक.
और मैं करता रहा वादा
तुम्हे ज़िन्दगी भर खुशियाँ देने का
और बटोरता रहा
खुशियाँ
जो तुम मुझे देती रही,
आज फ़िर ,
तुम्हारी यादों के खजाने में से
कुछ खुशियाँ चुराई हैं मैंने ,
और निकल पड़ा हूँ
मुस्कान बांटने ,
अपने जैसों के बीच .
मंगलवार, 11 अगस्त 2009
जश्न ए आज़ादी
जब भी स्वतंत्रता दिवस मनाने का समय आता है, हमारा मन खराब हो जाता है. आप सब जानना चाहेंगे कि ऐसा क्यों? क्या हम हमेशा गुलाम रहना चाहते हैं? नहीं जनाब, ऐसी कोई बात नहीं है. हमें भी अपनी आज़ादी से बड़ा प्रेम है.
अब बात यह है कि बचपन से ही स्वतंत्रता दिवस को बड़े ही नपे तुले ढंग से मनाये जाते देखा. झंडारोहण , शहीदों को श्रद्धांजलि, परेड और लड्डू बांटना. और उस पर यह कि छुट्टी का दिन है, सभी अपनी स्वतंत्रता को अपने ढंग से मनाना चाहते हैं, इसलिए बड़ी जल्दी में इस सारे आयोजन को समाप्त किया जाता है, किसी ने अपने परिवार के साथ पिकनिक का कार्यक्रम रखा है और किसी ने दोस्तों के साथ, अब तय किया हुआ है तो जाना तो होगा ही... आज़ादी मिले तो छः दशक से भी ज्यादा हो गये हैं, अब क्या फर्क पढता है कि, हम उसके जश्न में शामिल हों या ना हों.... अब ना तो हम गुलाम हैं और ना ही शहीदों वाले जज्बात हैं !!!!!!!!!!!! क्या फर्क पढता है कि हम अपनी आज़ादी के जश्न को परेड करके मनाएँ या पिकनिक करके.....महत्तवपूर्ण यह है कि हम आजाद तो हैं ना....!!!!!!!!! फिर कैसी पाबन्दी????
दिल चीर चीर हो जाता है जब आज़ादी के मतवालों के नाम कोई देशभक्ति गीत बजता है, जब कोई उन बीते हुए दिनों को याद करते हैं . हमारा जन्म स्वतंत्र भारत में हुआ था, पर हमने गुलामी के बारे में, गुलाम भारत पर हुए जुल्मों के बारे में बहुत कुछ पढ़ा और सुना तो है ना.... खून में उबाल लाने के लिए उतना ही काफी है, इतनी बर्बरता, इतनी अमानवीयता क्यों किसी को झेलनी पढ़े? जब ईश्वर ने सभी इंसान सामान बनाए हैं तो किसी भी इंसान को दूसरे पर जुल्म करने का अधिकार नहीं मिलता.
किन्तु समस्या यही है कि इंसान अपने विचारों से गुलाम है, जब तक विचार स्वाधीन नहीं होते, तब तक किसी भी तरह की स्वाधीनता की बात करना बेमानी है. और यही हमें मथता रहता है. इसलिए प्रत्येक स्वतंत्रता दिवस पर हम संकल्प करते हैं कि हम अपने विचारों को गुलाम नहीं होने देंगे. हमारे विचार पराधीन नहीं होंगे . गुलाम भारत के स्वाधीनता संग्राम में तो भाग नहीं लिया, पर स्वाधीन भारत के इस स्वतंत्रता अभियान को हम जरूर अमली जामा पहनाएंगे.
वास्तव में हमारे लिये स्वतंत्रता दिवस का जश्न मनाने से अधिक महत्त्वपूर्ण अपनी स्वाधीनता को कायम रखना है और प्रत्येक स्वाधीनता दिवस हमें उसकी याद दिलाता है कि आज़ादी के दीवाने किस कदर अपनी जान पर खेल कर भी देश को आजाद करवाना कहते थे. बस वही जूनून,वही जोश..... हमें होश देता है और हम अपने वचन को और प्रतिबद्धता से निभाने का संकल्प कर लेते हैं.
जय हिंद
अब बात यह है कि बचपन से ही स्वतंत्रता दिवस को बड़े ही नपे तुले ढंग से मनाये जाते देखा. झंडारोहण , शहीदों को श्रद्धांजलि, परेड और लड्डू बांटना. और उस पर यह कि छुट्टी का दिन है, सभी अपनी स्वतंत्रता को अपने ढंग से मनाना चाहते हैं, इसलिए बड़ी जल्दी में इस सारे आयोजन को समाप्त किया जाता है, किसी ने अपने परिवार के साथ पिकनिक का कार्यक्रम रखा है और किसी ने दोस्तों के साथ, अब तय किया हुआ है तो जाना तो होगा ही... आज़ादी मिले तो छः दशक से भी ज्यादा हो गये हैं, अब क्या फर्क पढता है कि, हम उसके जश्न में शामिल हों या ना हों.... अब ना तो हम गुलाम हैं और ना ही शहीदों वाले जज्बात हैं !!!!!!!!!!!! क्या फर्क पढता है कि हम अपनी आज़ादी के जश्न को परेड करके मनाएँ या पिकनिक करके.....महत्तवपूर्ण यह है कि हम आजाद तो हैं ना....!!!!!!!!! फिर कैसी पाबन्दी????
दिल चीर चीर हो जाता है जब आज़ादी के मतवालों के नाम कोई देशभक्ति गीत बजता है, जब कोई उन बीते हुए दिनों को याद करते हैं . हमारा जन्म स्वतंत्र भारत में हुआ था, पर हमने गुलामी के बारे में, गुलाम भारत पर हुए जुल्मों के बारे में बहुत कुछ पढ़ा और सुना तो है ना.... खून में उबाल लाने के लिए उतना ही काफी है, इतनी बर्बरता, इतनी अमानवीयता क्यों किसी को झेलनी पढ़े? जब ईश्वर ने सभी इंसान सामान बनाए हैं तो किसी भी इंसान को दूसरे पर जुल्म करने का अधिकार नहीं मिलता.
किन्तु समस्या यही है कि इंसान अपने विचारों से गुलाम है, जब तक विचार स्वाधीन नहीं होते, तब तक किसी भी तरह की स्वाधीनता की बात करना बेमानी है. और यही हमें मथता रहता है. इसलिए प्रत्येक स्वतंत्रता दिवस पर हम संकल्प करते हैं कि हम अपने विचारों को गुलाम नहीं होने देंगे. हमारे विचार पराधीन नहीं होंगे . गुलाम भारत के स्वाधीनता संग्राम में तो भाग नहीं लिया, पर स्वाधीन भारत के इस स्वतंत्रता अभियान को हम जरूर अमली जामा पहनाएंगे.
वास्तव में हमारे लिये स्वतंत्रता दिवस का जश्न मनाने से अधिक महत्त्वपूर्ण अपनी स्वाधीनता को कायम रखना है और प्रत्येक स्वाधीनता दिवस हमें उसकी याद दिलाता है कि आज़ादी के दीवाने किस कदर अपनी जान पर खेल कर भी देश को आजाद करवाना कहते थे. बस वही जूनून,वही जोश..... हमें होश देता है और हम अपने वचन को और प्रतिबद्धता से निभाने का संकल्प कर लेते हैं.
जय हिंद
सोमवार, 3 अगस्त 2009
भाई
रक्षा बंधन के पावन पर्व पर मेरे भाई और भाई -बहिन के पवित्र रिश्ते को समर्पित एक कविता.
पिता के सपनों का संसार,
आधा आधा बांटा प्यार,
नन्हा शिशु, माँ आँचल में,
पेड़ आम का, आँगन में,
रेशमी धागा,नेह की रीत,
प्रेम की डोरी, सच्चा मीत,
बहना होती उसकी प्यारी,
ली रक्षा की जिम्मेदारी,
रोली, कुमकुम और चन्दन,
बहिन ने बाँध दिया बंधन.
कोमल रिश्ता, दर्पण सा,
बना आधार नव जीवन का.
पूजा
पिता के सपनों का संसार,
आधा आधा बांटा प्यार,
नन्हा शिशु, माँ आँचल में,
पेड़ आम का, आँगन में,
रेशमी धागा,नेह की रीत,
प्रेम की डोरी, सच्चा मीत,
बहना होती उसकी प्यारी,
ली रक्षा की जिम्मेदारी,
रोली, कुमकुम और चन्दन,
बहिन ने बाँध दिया बंधन.
कोमल रिश्ता, दर्पण सा,
बना आधार नव जीवन का.
पूजा
बुधवार, 29 जुलाई 2009
मृत्यु
घनघोर अंधेरे में
खो सी गयी थी कहीं ,
बैचेन आँखे
थक कर
सो ही गयीं थी यहीं .
राह सूझती ना थी कोई ,
सफर का साथी नहीं कोई .
अकेले कहाँ तक ले जाती
ये हमदर्द राहें !!!
तभी नज़र आई
इक
किरण उजाले की ,
उसे थाम लेने की देर थी बस....
पर,
इंतज़ार ,
किसी और को
था मेरा ,
मेरे गुजर जाने की देर थी बस ....
छंट गया सारा
अँधेरा !!!
खो सी गयी थी कहीं ,
बैचेन आँखे
थक कर
सो ही गयीं थी यहीं .
राह सूझती ना थी कोई ,
सफर का साथी नहीं कोई .
अकेले कहाँ तक ले जाती
ये हमदर्द राहें !!!
तभी नज़र आई
इक
किरण उजाले की ,
उसे थाम लेने की देर थी बस....
पर,
इंतज़ार ,
किसी और को
था मेरा ,
मेरे गुजर जाने की देर थी बस ....
छंट गया सारा
अँधेरा !!!
सोमवार, 20 जुलाई 2009
मन को गुरु बनायें
गुरु की महिमा को हमारे शास्त्रों में खूब बखाना गया है, इस सन्दर्भ में एक दोहा याद आ रहा है,
गुरु गोविन्द दोनों खड़े, काके लागूँ पाय,
बलिहारी गुरु आपने, गोविन्द दियो बताय।
तात्पर्य यह कि इस दुनिया में गुरु ही हैं जो ईश्वर तक पहुँचने के लिए भी हमारा मार्ग प्रशस्त कर सकते हैं।
शैशव काल में माता पिता बच्चे के प्रथम गुरु होते हैं। बच्चा उनसे ना सिर्फ पोषण और संरक्षण पाता है बल्कि उन्ही से प्रारम्भिक ज्ञान सीखता भी है। थोडा बड़ा होने पर बाल्यावस्था में, किशोरावस्था में विद्यालय के शिक्षक उसके गुरु बन कर बहुत सी महत्वपूर्ण बातों का ज्ञान उसे देते हैं। और इन सबके अलावा व्यक्ति आध्यात्मिक गुरु की भी खोज करता है, जो उसके आध्यात्मिक जीवन के साथ साथ व्यवहारिक जीवन के सवालों को भी सुलझा पाने में सक्षम हो।
हम माता पिता के रूप में, शिक्षक के रूप में अथवा साधू -संत के रूप में हमेशा गुरु की खोज में रहते हैं, क्योंकि सीखने का क्रम निरंतर जीवन के समानांतर चलता रहता है , किन्तु ना जाने क्यों, अपने ही मन को हम नहीं देख पाते??? मन की शक्ति से कोई अनजान नहीं है, यह हमारे मन की सोच ही है जो कालांतर में सच बन कर सामने आती है। फिर क्यों कभी हम अपने ही मन को गुरु रूप में नहीं देख पाते??? क्या हमारा मन हमें कोई सवाल पूछने पर उसका जवाब नहीं देता? क्या हम उस पर पूर्ण विश्वास नहीं करते? इन सारे सवालों के जवाब खोजने जायेंगे तो यही जवाब मिलेगा कि मन हमेशा हमारी सभी शंकाओं का समाधान करता है, किन्तु हम ही उसकी आवाज़ नहीं सुनते...!!!
साथियों, आपने भी महसूस किया होगा कि जब हम किसी वस्तु, परिस्थिति या किसी बात पर एकाग्रचित्त होकर सोचते हैं तो हमारा मन मदद के लिए स्वयं प्रस्तुत हो जाता है, वो इसलिए कि उसे ज्ञात है कि अब आप उसकी शरण में हैं, और हमारा मन भी किसी बड़े उदारचित्त गुरु की भांति उसकी शरण में जाने पर निराश नहीं करता। कभी थोडा सा समय निकाल कर अपने ही मन को गुरु समान जान कर उस से दो घडी आदर एवं प्रेमपूर्वक बातें करके देखिये, आपको अपनी कितनी ही मुश्किल लगती समस्याओं का हल आसानी से प्राप्त होगा. इसके साथ साथ भटकते विचारों को शान्ति और एक सच्चा दोस्त मिलेगा ।
(यहाँ पर हम अपने मन को गुरु की तरह सम्मान देने एवं उस पर विश्वास करने की बात कर रहे हैं , किन्तु इसका यह अर्थ कदापि नहीं है कि हम आपके किसी भी गुरु के सम्मान को ठेस पहुचना चाहते हैं, हमारे भी धार्मिक गुरु हैं, और उन्ही की तरह हम सभी के गुरुओं को पूज्य मानते हैं, अतः हमारे इस लेख को व्यक्तित्व निर्माण के संदर्भ में ही देखा जाये)।
गुरु गोविन्द दोनों खड़े, काके लागूँ पाय,
बलिहारी गुरु आपने, गोविन्द दियो बताय।
तात्पर्य यह कि इस दुनिया में गुरु ही हैं जो ईश्वर तक पहुँचने के लिए भी हमारा मार्ग प्रशस्त कर सकते हैं।
शैशव काल में माता पिता बच्चे के प्रथम गुरु होते हैं। बच्चा उनसे ना सिर्फ पोषण और संरक्षण पाता है बल्कि उन्ही से प्रारम्भिक ज्ञान सीखता भी है। थोडा बड़ा होने पर बाल्यावस्था में, किशोरावस्था में विद्यालय के शिक्षक उसके गुरु बन कर बहुत सी महत्वपूर्ण बातों का ज्ञान उसे देते हैं। और इन सबके अलावा व्यक्ति आध्यात्मिक गुरु की भी खोज करता है, जो उसके आध्यात्मिक जीवन के साथ साथ व्यवहारिक जीवन के सवालों को भी सुलझा पाने में सक्षम हो।
हम माता पिता के रूप में, शिक्षक के रूप में अथवा साधू -संत के रूप में हमेशा गुरु की खोज में रहते हैं, क्योंकि सीखने का क्रम निरंतर जीवन के समानांतर चलता रहता है , किन्तु ना जाने क्यों, अपने ही मन को हम नहीं देख पाते??? मन की शक्ति से कोई अनजान नहीं है, यह हमारे मन की सोच ही है जो कालांतर में सच बन कर सामने आती है। फिर क्यों कभी हम अपने ही मन को गुरु रूप में नहीं देख पाते??? क्या हमारा मन हमें कोई सवाल पूछने पर उसका जवाब नहीं देता? क्या हम उस पर पूर्ण विश्वास नहीं करते? इन सारे सवालों के जवाब खोजने जायेंगे तो यही जवाब मिलेगा कि मन हमेशा हमारी सभी शंकाओं का समाधान करता है, किन्तु हम ही उसकी आवाज़ नहीं सुनते...!!!
साथियों, आपने भी महसूस किया होगा कि जब हम किसी वस्तु, परिस्थिति या किसी बात पर एकाग्रचित्त होकर सोचते हैं तो हमारा मन मदद के लिए स्वयं प्रस्तुत हो जाता है, वो इसलिए कि उसे ज्ञात है कि अब आप उसकी शरण में हैं, और हमारा मन भी किसी बड़े उदारचित्त गुरु की भांति उसकी शरण में जाने पर निराश नहीं करता। कभी थोडा सा समय निकाल कर अपने ही मन को गुरु समान जान कर उस से दो घडी आदर एवं प्रेमपूर्वक बातें करके देखिये, आपको अपनी कितनी ही मुश्किल लगती समस्याओं का हल आसानी से प्राप्त होगा. इसके साथ साथ भटकते विचारों को शान्ति और एक सच्चा दोस्त मिलेगा ।
(यहाँ पर हम अपने मन को गुरु की तरह सम्मान देने एवं उस पर विश्वास करने की बात कर रहे हैं , किन्तु इसका यह अर्थ कदापि नहीं है कि हम आपके किसी भी गुरु के सम्मान को ठेस पहुचना चाहते हैं, हमारे भी धार्मिक गुरु हैं, और उन्ही की तरह हम सभी के गुरुओं को पूज्य मानते हैं, अतः हमारे इस लेख को व्यक्तित्व निर्माण के संदर्भ में ही देखा जाये)।
बुधवार, 15 जुलाई 2009
आकर शब्द को जोड़ दे
कभी कभी अतीत में झांकना, सुखद स्मृतियों का खुशगवार झोंका साबित होता है. और उस पर यदि कोई मीठी सी कविता हो और उसमें अपने ही दोस्तों का जिक्र हो तो सोने पर सुहागा.
ऐसे ही अपनी पुरानी डायरी के पन्ने पलटते हुए एक कविता ने आवाज़ दी, हम भी उसकी आवाज़ अनसुनी नहीं कर पाए और चल दिये उसकी ओर, लिया हाथ में और लगे गुनगुनाने और बस यूँ ही गुनगुनाते हुए आप सब के साथ बांटने का मन किया तो ले आये उसे "एक बूँद" पर . आप सब भी आमंत्रित हैं इस तनाव रहित, गुनगुनी कविता को हमारे साथ साथ गुनगुनाने के लिये .
लेकिन इस से पहले आइये इसके सृजन का कारण जान लेते हैं :). एक गर्मी की दोपहर में जब धूप अपने पूरे निखार पर थी, हमारे ऑफिस के कुछ साथी लंच टाइम में हमारे टेबल पर आ जुटे और लगे बतियाने,(आप सब के साथ भी ऐसी घडियां कभी न कभी जरूर आती होंगी :)). तब सबकी बातें और उस कवितामय माहौल से हमने कुछ शब्द उठा लिये और थोडा सजा संवार कर एक कविता का रूप दे डाला. बहुत समय तक यह कविता हमारी डायरी में कैद रही, आज आजाद होकर आप सबके सामने प्रस्तुत है. भई, हमने तो बहुत बातें कर ली, अब आइये देखते हैं, यह कविता क्या कहती है..............???
सूरज सिर पर चमक रहा,
तू यहाँ वहाँ क्यूँ भटक रहा?
घडी में बज गए पूरे दो,
अब तो उसको जाने दो.
कल फिर वापस आना है,
सारा काम संभालना है.
कामों का है ढेर बड़ा ,
देखे क्या तू खडा खडा?
आकर शब्द को जोड़ दे,
या फिर पंक्ति तोड़ दे.
पंक्ति ख़त्म न हुई अभी,
टेड़े मेढे दांत सभी.
दांत में फंसी मछली,
निगली जाए ना उगली.
उगला चुगलखोर ने,
टेर लगाई मोर ने.
मोर ने देखे बादल,
नाच उठा वो पागल.
पागल ने घूँघरू बांधे,
ताली बजाये राधे.
राधे खाता है दही,
खाना अकेले नहीं सही.
दो चार को ले लो साथ,
सभी बटायेंगे फिर हाथ.
हाथ से हाथ जो मिल जाता,
सारा काम सुलझ जाता.
ऐसे ही अपनी पुरानी डायरी के पन्ने पलटते हुए एक कविता ने आवाज़ दी, हम भी उसकी आवाज़ अनसुनी नहीं कर पाए और चल दिये उसकी ओर, लिया हाथ में और लगे गुनगुनाने और बस यूँ ही गुनगुनाते हुए आप सब के साथ बांटने का मन किया तो ले आये उसे "एक बूँद" पर . आप सब भी आमंत्रित हैं इस तनाव रहित, गुनगुनी कविता को हमारे साथ साथ गुनगुनाने के लिये .
लेकिन इस से पहले आइये इसके सृजन का कारण जान लेते हैं :). एक गर्मी की दोपहर में जब धूप अपने पूरे निखार पर थी, हमारे ऑफिस के कुछ साथी लंच टाइम में हमारे टेबल पर आ जुटे और लगे बतियाने,(आप सब के साथ भी ऐसी घडियां कभी न कभी जरूर आती होंगी :)). तब सबकी बातें और उस कवितामय माहौल से हमने कुछ शब्द उठा लिये और थोडा सजा संवार कर एक कविता का रूप दे डाला. बहुत समय तक यह कविता हमारी डायरी में कैद रही, आज आजाद होकर आप सबके सामने प्रस्तुत है. भई, हमने तो बहुत बातें कर ली, अब आइये देखते हैं, यह कविता क्या कहती है..............???
सूरज सिर पर चमक रहा,
तू यहाँ वहाँ क्यूँ भटक रहा?
घडी में बज गए पूरे दो,
अब तो उसको जाने दो.
कल फिर वापस आना है,
सारा काम संभालना है.
कामों का है ढेर बड़ा ,
देखे क्या तू खडा खडा?
आकर शब्द को जोड़ दे,
या फिर पंक्ति तोड़ दे.
पंक्ति ख़त्म न हुई अभी,
टेड़े मेढे दांत सभी.
दांत में फंसी मछली,
निगली जाए ना उगली.
उगला चुगलखोर ने,
टेर लगाई मोर ने.
मोर ने देखे बादल,
नाच उठा वो पागल.
पागल ने घूँघरू बांधे,
ताली बजाये राधे.
राधे खाता है दही,
खाना अकेले नहीं सही.
दो चार को ले लो साथ,
सभी बटायेंगे फिर हाथ.
हाथ से हाथ जो मिल जाता,
सारा काम सुलझ जाता.
सोमवार, 6 जुलाई 2009
स्वार्थ..... अच्छा या बुरा???
कल हमारे एक मित्र से बातों बातों में बात निकल पड़ी कि स्वार्थ अच्छा होता है या बुरा? उनका कहना है कि स्वार्थ दो तरह का हो सकता है, अच्छा, जो कि जनहित में स्वार्थ हो, अथवा बुरा, जिसमें कोई लालच छिपा हो।
अब हमारा यह कहना है कि स्वार्थ सिर्फ स्वार्थ ही होता है, जिसका अर्थ ही - स्व अर्थ - अर्थात स्वयं के लिए - हो , तो उसके लिए बुरा अर्थ ही प्रस्तुत होता है। हाँ, दूसरों के लिए कुछ करने की भावना को अच्छी इच्छा में जरूर शामिल किया जा सकता है, किन्तु अच्छा स्वार्थ............ संभव नहीं लगता हमें ।
अब आप सभी सुधीजनों से इस पर विचार आमंत्रित हैं कि आप क्या सोचते हैं? क्या स्वार्थ अच्छा अथवा बुरा हो सकता है? स्वार्थ और इच्छाओं के दरमियान एक निश्चित दूरी होती है, क्या इन दोनों को एक साथ लेकर अच्छा स्वार्थ निर्मित होता है?
क्या स्वार्थ को दो भागों में बांटा जा सकता है....अच्छा और बुरा???
अब हमारा यह कहना है कि स्वार्थ सिर्फ स्वार्थ ही होता है, जिसका अर्थ ही - स्व अर्थ - अर्थात स्वयं के लिए - हो , तो उसके लिए बुरा अर्थ ही प्रस्तुत होता है। हाँ, दूसरों के लिए कुछ करने की भावना को अच्छी इच्छा में जरूर शामिल किया जा सकता है, किन्तु अच्छा स्वार्थ............ संभव नहीं लगता हमें ।
अब आप सभी सुधीजनों से इस पर विचार आमंत्रित हैं कि आप क्या सोचते हैं? क्या स्वार्थ अच्छा अथवा बुरा हो सकता है? स्वार्थ और इच्छाओं के दरमियान एक निश्चित दूरी होती है, क्या इन दोनों को एक साथ लेकर अच्छा स्वार्थ निर्मित होता है?
क्या स्वार्थ को दो भागों में बांटा जा सकता है....अच्छा और बुरा???
शनिवार, 27 जून 2009
यह है हमारा यूनियन रूम
चलिए आज कुछ हलकी फुलकी बातें करते हैं, एक कॉलेज के यूनियन रूम की सैर कर आते हैं। जहाँ तक हमने देखा है, सभी कॉलेज में एक कॉलेज यूनियन होती है और उनके लिए एक यूनियन रूम.....तो हमारे कॉलेज में भी एक यूनियन रूम है , एक बार हमें वहाँ काम पड़ गया, तो जो कुछ वहाँ देखा, उसकी एक कविता बना डाली। आइये, देखते हैं कि वहाँ क्या हो रहा है :) !!!
यह है हमारा यूनियन रूम
इधर प्रेसीडेंट, उधर वाइस प्रेसीडेंट ,
साथ में बहुत से अटेनडेंटस ,
स्टूडेंट्स से भरा हुआ
जैसे कॉलेज का कॉमन रूम ,
अटेनडेंटस से घिरा हुआ ,
ये है हमारा यूनियन रूम.
गुटबाज़ी है अडी हुई ,
गप्पें होती बड़ी बड़ी ,
कभी कभी तो लगता जैसे,
सबको है बस चडी हुई ,
अभी दिखेगा, चुप चुप बैठा,
जैसे कोई बच्चा भोला,
पर इसका तुम यकीं ना करना,
इस पल माशा, उस पल तोला.
तोड़ फोड़ भी बहुत हैं करते,
कभी किसी से ये ना डरते,
स्ट्राइक्स में आगे रहते ,
अनशन पर भी कभी बैठते ,
कभी कभी ये झूठ बोलते,
और कभी हैं धोखा देते .
हर रंग बिखरता है यहीं,
कभी ग़म और कभी खुशी,
सबके लिए है जगह यहाँ पर
सबके लिए है बातें "घणी",
सबकी मदद को हाज़िर ये लीडर ,
सबसे है इनको "सिम्पैथी".
कोई भी अपनी प्रॉब्लम लाये ,
इनसे सॉल्व करा के जाये ,
आश्वासन इनके नेताओं से ,
काम के बोझ से दबें हों जैसे ,
छोटी छोटी खुशियों में भी,
मांग है होती ,पार्टी खिलाओ ,
प्लेट नहीं तो पेस्ट्री चलेगी ,
साथ में उसके चाय पिलाओ ,
वैसे चाहे रहे अकेला,
कॉलेज फंक्शन के दिनों में ,
बढ़ जाती है ,चहल-पहल ,
बहुत ही शालीन सा दिखता ,
पर छुपाये भारी उथल पुथल ,
ठंडा लगता भले दूर से
पास जाओ तो गरमा गरम ,
यूं लगता है कोई पराया,
पल भर में हो मित्र परम,
दोस्तों-दुश्मनों को छिपाए हुए ,
यह है हमारा यूनियन रूम .
यह है हमारा यूनियन रूम
इधर प्रेसीडेंट, उधर वाइस प्रेसीडेंट ,
साथ में बहुत से अटेनडेंटस ,
स्टूडेंट्स से भरा हुआ
जैसे कॉलेज का कॉमन रूम ,
अटेनडेंटस से घिरा हुआ ,
ये है हमारा यूनियन रूम.
गुटबाज़ी है अडी हुई ,
गप्पें होती बड़ी बड़ी ,
कभी कभी तो लगता जैसे,
सबको है बस चडी हुई ,
अभी दिखेगा, चुप चुप बैठा,
जैसे कोई बच्चा भोला,
पर इसका तुम यकीं ना करना,
इस पल माशा, उस पल तोला.
तोड़ फोड़ भी बहुत हैं करते,
कभी किसी से ये ना डरते,
स्ट्राइक्स में आगे रहते ,
अनशन पर भी कभी बैठते ,
कभी कभी ये झूठ बोलते,
और कभी हैं धोखा देते .
हर रंग बिखरता है यहीं,
कभी ग़म और कभी खुशी,
सबके लिए है जगह यहाँ पर
सबके लिए है बातें "घणी",
सबकी मदद को हाज़िर ये लीडर ,
सबसे है इनको "सिम्पैथी".
कोई भी अपनी प्रॉब्लम लाये ,
इनसे सॉल्व करा के जाये ,
आश्वासन इनके नेताओं से ,
काम के बोझ से दबें हों जैसे ,
छोटी छोटी खुशियों में भी,
मांग है होती ,पार्टी खिलाओ ,
प्लेट नहीं तो पेस्ट्री चलेगी ,
साथ में उसके चाय पिलाओ ,
वैसे चाहे रहे अकेला,
कॉलेज फंक्शन के दिनों में ,
बढ़ जाती है ,चहल-पहल ,
बहुत ही शालीन सा दिखता ,
पर छुपाये भारी उथल पुथल ,
ठंडा लगता भले दूर से
पास जाओ तो गरमा गरम ,
यूं लगता है कोई पराया,
पल भर में हो मित्र परम,
दोस्तों-दुश्मनों को छिपाए हुए ,
यह है हमारा यूनियन रूम .
शुक्रवार, 26 जून 2009
नाराजगी का हक
गीतिका, शर्मा जी के ऑफिस में सेक्रेटरी है, शर्मा जी उसके काम से बहुत खुश रहते हैं। एक दिन शर्मा जी ने गीतिका से ५ फाइल मंगवाई , पर गलती से एक फाइल गीतिका के डेस्क में ही रह गयी और उसने ४ ही फाइल शर्मा जी तक पहुंचाई। बाद में शर्मा जी ने उस से फोन कर के बताया तो उसने देखा कि एक फाइल वहीँ रह गयी है, उसने कहा कि वो अभी लेकर आती है, तो शर्मा जी ने उसे कहा, "कोई बात नहीं, मैं पेओन भेजता हूँ, तुम चिंता मत करो। पिओन के हाथ से फाइल भिजवा देना। "
शाम को शर्मा जी घर पर बैठे थे, उनकी पत्नी बड़ी कुशलता से घर और बच्चों को संभालती है, कभी शर्मा जी को कुछ कहने का मौका नहीं मिलता। जब उनकी पत्नी रात का खाना लेकर आई तो आज वो चावल के साथ चम्मच डाल कर ले आई , शर्मा जी ठहरे कांटे से खाने वाले, जब उन्होंने चम्मच देखा तो लगे जी भर कर चिल्लाने, " तुमसे कितनी बार कहा है कि मुझे चावल के साथ काँटा दिया करो, पर तुम हो कि अपने कामों से फुर्सत मिले तब तो मेरी बात सुनोगी, इतने साल हो गए शादी को, फ़िर भी अब तक यह नहीं पता चला कि पति को कब क्या चाहिए होता है।"
पत्नी ने कहा," गलती हो गयी , आप नाराज़ मत होइए, अभी काँटा ला देती हूँ । "
अब पतिदेव बड़ी कुटिल मुस्कराहट बिखेरते हुए बोले, "तुमसे इसलिए नाराज़ होता हूँ कि तुम तो मेरी अपनी हो ना........तुम से तो मैं बहुत प्यार करता हूँ, और नाराज़ उसी से हुआ जाता है, जिस से प्यार करते हैं " और एक ठहाका लगा कर हंस दिये । पत्नी बिचारी मन मसोस कर ना चाहते हुए भी उनकी हँसी के साथ मुस्कुराने लगी, अपने प्रिय होने का फ़र्ज़ निभाने के लिए।
यह सिर्फ़ एक किस्सा बनाया है, जिसमें एक परिस्थिति को दर्शाया गया है, कि इंसान अपनों और परायों में कितना फर्क करता है। शर्मा जी अपनी सेक्रेटरी के पास पिओन भेज सकते हैं, पर उस पर झल्ला नहीं सकते , और उनकी पत्नी जो बड़े प्यार से उनकी सेवा कर रही है, उनसे मीठे बोल बोलने में कोताही करते हैं क्योंकि वो तो उनकी अपनी है ना......उस से नाराज़ होने का अधिकार तो शादी के समय ही मिल गया होगा उन्हें !!!!!
अक्सर सुना और देखा गया है कि लोग छोटी छोटी बातों पर अपनों से ही नाराज़ होते हैं, और पूछने पर बड़ी आसानी से कह देते हैं कि जिनसे प्यार और स्नेह होता है उन्हीं से ही नाराज़ हुआ जाता है, और ऐसी नाराजगी देखकर तो कोइ भी न्यौछावर हो जाए। पर क्या आप वास्तव में आप अपने प्रिय जनों को , अपने अपनों को नाराज़गी का हक देते हैं? क्या आपको नहीं लगता कि आपके प्रिय जनों की नाराजगी आपको दुःख पहुंचती है? फ़िर भी नाराज़ होते हैं???
आपके प्रिय लोगों ने आपको उनसे प्यार करने का अधिकार दिया और नाराज़ होने का अधिकार आपने स्वयं ही ले लिया !!! प्यार करना अधिकार भी हो सकता है और कर्तव्य भी, किंतु नाराज़ होना ना ही कर्तव्य और न ही अधिकार, फ़िर भी अधिकांशतः लोग इस तरह नाराजगी जताते हैं , जैसे यही प्यार करने का सच्चा स्वरुप हो, क्या प्यार को सिर्फ़ प्यार के रूप में ही नहीं जताया जा सकता? अगर अपने किसी प्रिय से कोई भूल हुई है तो उसे सुधारने के लिये प्यार को अपनाने से पीछे हटने की जगह आप प्यार को ही हथियार बनाइए ( नाराजगी को नहीं )। इस से आपको बेहतर नतीजे मिलेंगे और अनावश्यक नाराजगी से भी राहत मिलेगी, आपको भी और आपके अपनों को भी । आप भी प्रसन्न और आपके प्रिय भी ।
क्या आप इस बदलाव के लिए तैयार हैं? यदि हाँ, तो यह संदेश अपने प्रिय जनों तक अवश्य पहुंचाएं।
शाम को शर्मा जी घर पर बैठे थे, उनकी पत्नी बड़ी कुशलता से घर और बच्चों को संभालती है, कभी शर्मा जी को कुछ कहने का मौका नहीं मिलता। जब उनकी पत्नी रात का खाना लेकर आई तो आज वो चावल के साथ चम्मच डाल कर ले आई , शर्मा जी ठहरे कांटे से खाने वाले, जब उन्होंने चम्मच देखा तो लगे जी भर कर चिल्लाने, " तुमसे कितनी बार कहा है कि मुझे चावल के साथ काँटा दिया करो, पर तुम हो कि अपने कामों से फुर्सत मिले तब तो मेरी बात सुनोगी, इतने साल हो गए शादी को, फ़िर भी अब तक यह नहीं पता चला कि पति को कब क्या चाहिए होता है।"
पत्नी ने कहा," गलती हो गयी , आप नाराज़ मत होइए, अभी काँटा ला देती हूँ । "
अब पतिदेव बड़ी कुटिल मुस्कराहट बिखेरते हुए बोले, "तुमसे इसलिए नाराज़ होता हूँ कि तुम तो मेरी अपनी हो ना........तुम से तो मैं बहुत प्यार करता हूँ, और नाराज़ उसी से हुआ जाता है, जिस से प्यार करते हैं " और एक ठहाका लगा कर हंस दिये । पत्नी बिचारी मन मसोस कर ना चाहते हुए भी उनकी हँसी के साथ मुस्कुराने लगी, अपने प्रिय होने का फ़र्ज़ निभाने के लिए।
यह सिर्फ़ एक किस्सा बनाया है, जिसमें एक परिस्थिति को दर्शाया गया है, कि इंसान अपनों और परायों में कितना फर्क करता है। शर्मा जी अपनी सेक्रेटरी के पास पिओन भेज सकते हैं, पर उस पर झल्ला नहीं सकते , और उनकी पत्नी जो बड़े प्यार से उनकी सेवा कर रही है, उनसे मीठे बोल बोलने में कोताही करते हैं क्योंकि वो तो उनकी अपनी है ना......उस से नाराज़ होने का अधिकार तो शादी के समय ही मिल गया होगा उन्हें !!!!!
अक्सर सुना और देखा गया है कि लोग छोटी छोटी बातों पर अपनों से ही नाराज़ होते हैं, और पूछने पर बड़ी आसानी से कह देते हैं कि जिनसे प्यार और स्नेह होता है उन्हीं से ही नाराज़ हुआ जाता है, और ऐसी नाराजगी देखकर तो कोइ भी न्यौछावर हो जाए। पर क्या आप वास्तव में आप अपने प्रिय जनों को , अपने अपनों को नाराज़गी का हक देते हैं? क्या आपको नहीं लगता कि आपके प्रिय जनों की नाराजगी आपको दुःख पहुंचती है? फ़िर भी नाराज़ होते हैं???
आपके प्रिय लोगों ने आपको उनसे प्यार करने का अधिकार दिया और नाराज़ होने का अधिकार आपने स्वयं ही ले लिया !!! प्यार करना अधिकार भी हो सकता है और कर्तव्य भी, किंतु नाराज़ होना ना ही कर्तव्य और न ही अधिकार, फ़िर भी अधिकांशतः लोग इस तरह नाराजगी जताते हैं , जैसे यही प्यार करने का सच्चा स्वरुप हो, क्या प्यार को सिर्फ़ प्यार के रूप में ही नहीं जताया जा सकता? अगर अपने किसी प्रिय से कोई भूल हुई है तो उसे सुधारने के लिये प्यार को अपनाने से पीछे हटने की जगह आप प्यार को ही हथियार बनाइए ( नाराजगी को नहीं )। इस से आपको बेहतर नतीजे मिलेंगे और अनावश्यक नाराजगी से भी राहत मिलेगी, आपको भी और आपके अपनों को भी । आप भी प्रसन्न और आपके प्रिय भी ।
क्या आप इस बदलाव के लिए तैयार हैं? यदि हाँ, तो यह संदेश अपने प्रिय जनों तक अवश्य पहुंचाएं।
शुक्रवार, 22 मई 2009
THEY NEED US - उन्हें हमारी जरूरत है
Today for the first time i visited the blog of Maria Amelia Lopez , blogger, who started blogging at the age of 95 , with the gift of her grandson . There are so many things in her blog to see and to understand about the old age life of any person, but a few lines which had impacted in me are the request made by her to defande the elderly people, where she wants new generation to come up to educate elders, like their children. And i m absolutely in accordance with her that our elders need to revise the education. Why we do not take care of them, when they reaches at the age of 50 and above? It is the time to reeducate them, so the generation gap could be reduced, so that they also can join all the activities in family, and could enjoy time together in the family.
Here I appeal for well needed take care of our elders. They need us।
आज पहली बार, मारिया अमेलिया लोपेज़ , के ब्लॉग पर गई, जिसने ९५ साल की उम्र में, अपने पोते के द्वारा भेंट किए हुए ब्लॉग से ब्लोगिंग शुरू की । उनके ब्लॉग पर बुजुर्ग व्यक्तियों के जीवन से सम्बंधित देखने और पढने के लिए कई बातें हैं, किंतु विशेष तौर पर जिस बात ने मुझे प्रभावित किया वह बुजुर्गों के समर्थन में की गयी प्रार्थना है, जिसमें वो नयी पीढी से आगे बढ़कर अपने बुजुर्गों को पुनः शिक्षित करने के लिए कह रही हैं, जिस तरह वे अपने बच्चों को शिक्षित करे हैं, वैसे ही अपने बुजुर्गों को भी शिक्षित करें। और मैं भी उन की इस प्रार्थना का समर्थन करती हूँ कि हमारे बड़े -बुजुर्गों को पुनः शिक्षित किया जाना चाहिए। हम क्यों उनका ध्यान नहीं रखते जब वे ५० साल या इस से बड़ी उम्र के हो जाते हैं? यही समय है जब उन्हें पुनः मुख्य धारा से जोड़ा जाये ताकि पीढियों के अन्तर को कम किया जा सके , ताकि वे भी पारिवारिक क्रीडाओं में समान रूप से भागीदारी कर सकें और प्रसन्नता प्राप्त कर सकें ।
यहाँ पर मैं अपने बुजुर्गों की आवश्यक सार संभाल करने के लिये अनुरोध करती हूँ । उन्हें हमारी जरूरत है।
Here I appeal for well needed take care of our elders. They need us।
आज पहली बार, मारिया अमेलिया लोपेज़ , के ब्लॉग पर गई, जिसने ९५ साल की उम्र में, अपने पोते के द्वारा भेंट किए हुए ब्लॉग से ब्लोगिंग शुरू की । उनके ब्लॉग पर बुजुर्ग व्यक्तियों के जीवन से सम्बंधित देखने और पढने के लिए कई बातें हैं, किंतु विशेष तौर पर जिस बात ने मुझे प्रभावित किया वह बुजुर्गों के समर्थन में की गयी प्रार्थना है, जिसमें वो नयी पीढी से आगे बढ़कर अपने बुजुर्गों को पुनः शिक्षित करने के लिए कह रही हैं, जिस तरह वे अपने बच्चों को शिक्षित करे हैं, वैसे ही अपने बुजुर्गों को भी शिक्षित करें। और मैं भी उन की इस प्रार्थना का समर्थन करती हूँ कि हमारे बड़े -बुजुर्गों को पुनः शिक्षित किया जाना चाहिए। हम क्यों उनका ध्यान नहीं रखते जब वे ५० साल या इस से बड़ी उम्र के हो जाते हैं? यही समय है जब उन्हें पुनः मुख्य धारा से जोड़ा जाये ताकि पीढियों के अन्तर को कम किया जा सके , ताकि वे भी पारिवारिक क्रीडाओं में समान रूप से भागीदारी कर सकें और प्रसन्नता प्राप्त कर सकें ।
यहाँ पर मैं अपने बुजुर्गों की आवश्यक सार संभाल करने के लिये अनुरोध करती हूँ । उन्हें हमारी जरूरत है।
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