गुरु की महिमा को हमारे शास्त्रों में खूब बखाना गया है, इस सन्दर्भ में एक दोहा याद आ रहा है,
गुरु गोविन्द दोनों खड़े, काके लागूँ पाय,
बलिहारी गुरु आपने, गोविन्द दियो बताय।
तात्पर्य यह कि इस दुनिया में गुरु ही हैं जो ईश्वर तक पहुँचने के लिए भी हमारा मार्ग प्रशस्त कर सकते हैं।
शैशव काल में माता पिता बच्चे के प्रथम गुरु होते हैं। बच्चा उनसे ना सिर्फ पोषण और संरक्षण पाता है बल्कि उन्ही से प्रारम्भिक ज्ञान सीखता भी है। थोडा बड़ा होने पर बाल्यावस्था में, किशोरावस्था में विद्यालय के शिक्षक उसके गुरु बन कर बहुत सी महत्वपूर्ण बातों का ज्ञान उसे देते हैं। और इन सबके अलावा व्यक्ति आध्यात्मिक गुरु की भी खोज करता है, जो उसके आध्यात्मिक जीवन के साथ साथ व्यवहारिक जीवन के सवालों को भी सुलझा पाने में सक्षम हो।
हम माता पिता के रूप में, शिक्षक के रूप में अथवा साधू -संत के रूप में हमेशा गुरु की खोज में रहते हैं, क्योंकि सीखने का क्रम निरंतर जीवन के समानांतर चलता रहता है , किन्तु ना जाने क्यों, अपने ही मन को हम नहीं देख पाते??? मन की शक्ति से कोई अनजान नहीं है, यह हमारे मन की सोच ही है जो कालांतर में सच बन कर सामने आती है। फिर क्यों कभी हम अपने ही मन को गुरु रूप में नहीं देख पाते??? क्या हमारा मन हमें कोई सवाल पूछने पर उसका जवाब नहीं देता? क्या हम उस पर पूर्ण विश्वास नहीं करते? इन सारे सवालों के जवाब खोजने जायेंगे तो यही जवाब मिलेगा कि मन हमेशा हमारी सभी शंकाओं का समाधान करता है, किन्तु हम ही उसकी आवाज़ नहीं सुनते...!!!
साथियों, आपने भी महसूस किया होगा कि जब हम किसी वस्तु, परिस्थिति या किसी बात पर एकाग्रचित्त होकर सोचते हैं तो हमारा मन मदद के लिए स्वयं प्रस्तुत हो जाता है, वो इसलिए कि उसे ज्ञात है कि अब आप उसकी शरण में हैं, और हमारा मन भी किसी बड़े उदारचित्त गुरु की भांति उसकी शरण में जाने पर निराश नहीं करता। कभी थोडा सा समय निकाल कर अपने ही मन को गुरु समान जान कर उस से दो घडी आदर एवं प्रेमपूर्वक बातें करके देखिये, आपको अपनी कितनी ही मुश्किल लगती समस्याओं का हल आसानी से प्राप्त होगा. इसके साथ साथ भटकते विचारों को शान्ति और एक सच्चा दोस्त मिलेगा ।
(यहाँ पर हम अपने मन को गुरु की तरह सम्मान देने एवं उस पर विश्वास करने की बात कर रहे हैं , किन्तु इसका यह अर्थ कदापि नहीं है कि हम आपके किसी भी गुरु के सम्मान को ठेस पहुचना चाहते हैं, हमारे भी धार्मिक गुरु हैं, और उन्ही की तरह हम सभी के गुरुओं को पूज्य मानते हैं, अतः हमारे इस लेख को व्यक्तित्व निर्माण के संदर्भ में ही देखा जाये)।
जब तक सीखने की प्रवृत्ति है (जो शायद हमेशा रहेगी) तब तक गुरू की महत्ता रहेगी ही.
जवाब देंहटाएंबहुत अच्छा लिखा है.
जी पूजा जी,,
जवाब देंहटाएंसबसे पहले मन को ही गुरू बनाना चाहिए...
पता नहीं के हमारा कोई गुरु नहीं है..इसीलिये हमारा ये मानना है..या कोई और वजह है...हम नहीं जानते...पर गुरु में अपना कोई विश्वास नहीं....
सबसे बड़ा गुरु खुद इन्सान के वक़्त को मानता हूँ...
'बे-तखल्लुस' वक़्त से सीखा किया
हाय! कैसा बेरहम उस्ताद था....
सही कहा और बेहतरीन लिखा..आभार सीख के लिए.
जवाब देंहटाएंRochak post.
जवाब देंहटाएंमन गुरु एक परिपक्व व्यक्ति लिए तो हो सकता है ,कच्चे मन के लिए नहीं, भौतिक पदेन गुरु की अंगुली पकड़ जब हम अनुभव की पगडंडी पर चल कर परिस्थितियों के जंगल में समस्याओं के हर पौध की जड़ को पहचानना सीख जाते हैं, इसी लिए हम अनुरोध करते हैं ,' तमसो मा ज्योतिर्गमय ' , और जीवन पथ पर जब हम अकेले बदते हैं तब मन गुरु का ही सहारा रह जाता इसी लिए कहते हैं की समस्या कैसी भी क्यों न हो मन को कमजोर मत पड़ने देना और इसी लिए कहा गया है ,'' मन के हारे हार है मन के जीते जीत "|
जवाब देंहटाएंपरन्तु सारे गुरुत्व की नीव :बीज माँ के आरंभिक गुरुडम में ही छिपा होता और वास्तविकता तो यह है की जब हम अपने अन्दर उतर के समस्या का हल ढूंढ रहे होते हैं ,बकौल आप मन से सलाह ले रहे होते है ,वास्तव में हम अपने अन्दर छिपी माँ का आंचल यानि गोद ही दूंढ रहे होते हैं , उसकी गोद में छिपे नहीं कि हमारी हार समस्या हल क्यों कि अब वह उसकी है | पर यहाँ पर सावधान रहियेगा कही उस मन पर इतनी समस्याएं न लाद दें कि वह भी आर्तनाद कर उठे , क्योंकि मैं कह ही चुका हूँ कि मन के हारे हार तो फिर .........?
एक अच्छी , रोचक एवं सारगर्भित पोस्ट के लिए बधाई और धन्यवाद
sahc mein vichar ygya hai.. dhnayvaad iss leikh le liyee................ aagai bhi aise leikh ki ashaaa.........rakhtaa huin...........:):):P:P
जवाब देंहटाएंमन से ऊपर कुछ नहीं, हर कदम को उठाने से पहले वह बोलता जरूर है।
जवाब देंहटाएंसहमत! मन और अंतरात्मा सब कुछ कहती है, सिखाती है, आगाह करती है। बहुत सुंदर आलेख
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