जीवन को जीने की कला शायद जीवन को लम्बे समय तक जीने, हजारों अनुभवों से गुजरने और हज़ारों तरीकों से जीने के बाद भी सीखी नहीं जा सकती, और कभी यूँ भी होता है कि जीवन खुद से ही एक पल में, सब अनुभवों को दरकिनार करते हुये, बोधि होने कि स्थिति जैसे, तुरंत जीना सीखा देता है.
ख़ुशी और दुःख जीवन के साथ चलने वाले दो साथी हैं, कभी एक का साथ ज्यादा होता है कभी दुसरे का साया हमसफ़र होता है. हर कदम पर जो साथ दे, उसे हमसफ़र कह सकते हैं... हालांकि अधिकतर जीवन हमसफ़र के होते हुए भी अकेले ही बीतता है. जीने की कला यहाँ पर बहुत साथ देती है, साथी को खुश देख कर खुद खुश रहने का हौसला देती है, (उत्साह वर्धन और प्रेरणा की कमी होते हुए भी) यह इसलिए नहीं कि सामने वाले की ख़ुशी ही सब कुछ होती है, बल्कि यह इसलिए है कि हम स्वयं में ही एक ख़ुशी की स्थापना चाहते हैं. स्वयं हर पल खुश रहना चाहते हैं. साधन चाहे जो भी हो, अनंत समय तक स्वयं की खुशियों को स्थायित्व देना लक्ष्य रहता है. इस कारण हमसफ़र को ख़ुशी देते हुये स्वयं ख़ुशी पा लेना मूलतः प्रेम से मिलने वाली ख़ुशी का ही रूप है.स्वार्थ यहाँ भी है पर ना हो तो ख़ुशी कि आवश्यकता ना रहे.
कुछ साधन बुरे होते हुए भी प्रयुक्त किये जाते हैं, तब जीने की कला का क्षय होता है. शायद अपेक्षाएं इतनी अधिक रहती हैं कि उसे पूरा करने के लिये सब कुछ जायज़ प्रतीत होता है. अतीत अथवा भविष्य में किसी को पीड़ा देकर भी अपने लिये सुखमय जीवन की कामना को गलत होते हुये भी गलत इसलिए नहीं कहा जा सकता कि आखिर इंसान जीता तो अपने लिये ही है. तब यह जरूर पूछा जा सकता है कि क्या नैतिकता का प्रभाव उसे अपराध करने से रोकने और अपराध हो जाने पर अपराध बोध से भरने में असंतुलित मनः स्थिति जगाता है? अथवा नैतिकता उसने कभी जानी ही नहीं? हालांकि इस तरह मिलने वाली ख़ुशी क्षणिक है और बेचैनी, अवसाद का मूल भी है.
अगर जीवन जीने की कला की आवाज़ सुनें तो वो कहती है कि जो भी पल जियो, उसे अभी इसी क्षण में जियो. इसी पल में अर्थात इसी ही पल में, ना उस पल में जो गुज़र गया और ना उस पल में जो आने वाला है. जैसे जिस समय आप पानी पी रहे होते हैं, आप पानी की शीतलता को अपने कंठ में अनुभव कर लेना चाहते हैं. प्यास पानी के कारण नहीं बुझती, बल्कि कंठ को मिली तरावट के कारण बुझती है. तरावट की स्मृति आपको वो तरावट कभी अनुभव नहीं करा पाती ना ही तरावट का भविष्य. अगर जीवन जीने को पानी पीने की तरह मानें तो जिस समय आप पानी पी रहे हैं, उस ही समय जी रहे हैं, उसका अनुभव भी उस ही समय कीजिये, यानि उस ही पल में जी लीजिये.
अगर अभी, इस समय आपने अपने भीतर स्थापित ख़ुशी को पा लिया है, ढूंढ कर सहेज लिया है तो आने वाले पल को भी अपने हाथ में जानिये, जबकि आने वाले पल के बारे में सोचने की और चिंता करने की आवश्यकता आपको कभी नहीं होती. बस एक तैयारी की जरूरत है जो किसी भी अवांछित समय में जीवन जीने की कला की तरह साथ दे. कैसी तैयारी?? तैयारी इसी ही पल में जी पाने की :) , तैयारी इसी पल को भरपूर ख़ुशी देने की, तैयारी इस पल को समझ सकने की, तैयारी इस पल को पहचान पाने की. कि जो कुछ है वो अभी ही है, इसी ही समय है, इसी ही पल में है, ना इस पल के पहले कुछ था और ना इस पल के बाद कुछ होगा. आओ, जी लें, इस पल को.
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गुरुवार, 16 जून 2011
सोमवार, 6 जुलाई 2009
स्वार्थ..... अच्छा या बुरा???
कल हमारे एक मित्र से बातों बातों में बात निकल पड़ी कि स्वार्थ अच्छा होता है या बुरा? उनका कहना है कि स्वार्थ दो तरह का हो सकता है, अच्छा, जो कि जनहित में स्वार्थ हो, अथवा बुरा, जिसमें कोई लालच छिपा हो।
अब हमारा यह कहना है कि स्वार्थ सिर्फ स्वार्थ ही होता है, जिसका अर्थ ही - स्व अर्थ - अर्थात स्वयं के लिए - हो , तो उसके लिए बुरा अर्थ ही प्रस्तुत होता है। हाँ, दूसरों के लिए कुछ करने की भावना को अच्छी इच्छा में जरूर शामिल किया जा सकता है, किन्तु अच्छा स्वार्थ............ संभव नहीं लगता हमें ।
अब आप सभी सुधीजनों से इस पर विचार आमंत्रित हैं कि आप क्या सोचते हैं? क्या स्वार्थ अच्छा अथवा बुरा हो सकता है? स्वार्थ और इच्छाओं के दरमियान एक निश्चित दूरी होती है, क्या इन दोनों को एक साथ लेकर अच्छा स्वार्थ निर्मित होता है?
क्या स्वार्थ को दो भागों में बांटा जा सकता है....अच्छा और बुरा???
अब हमारा यह कहना है कि स्वार्थ सिर्फ स्वार्थ ही होता है, जिसका अर्थ ही - स्व अर्थ - अर्थात स्वयं के लिए - हो , तो उसके लिए बुरा अर्थ ही प्रस्तुत होता है। हाँ, दूसरों के लिए कुछ करने की भावना को अच्छी इच्छा में जरूर शामिल किया जा सकता है, किन्तु अच्छा स्वार्थ............ संभव नहीं लगता हमें ।
अब आप सभी सुधीजनों से इस पर विचार आमंत्रित हैं कि आप क्या सोचते हैं? क्या स्वार्थ अच्छा अथवा बुरा हो सकता है? स्वार्थ और इच्छाओं के दरमियान एक निश्चित दूरी होती है, क्या इन दोनों को एक साथ लेकर अच्छा स्वार्थ निर्मित होता है?
क्या स्वार्थ को दो भागों में बांटा जा सकता है....अच्छा और बुरा???
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