सोमवार, 20 सितंबर 2010

अन्तर्द्वन्द

रुके हुए सारे ख़याल ,
मौन की मुखरता को
चित्त की चंचलता को ,
और मन् की एकाग्रता को ,
पानी का सा प्रवाह देते रहे ,

कशमकश
ध्वनि और स्वर की चलती रही ,
ना दुःख जीता
ना सुख हारा
अन्तर्द्वन्द समेटे रहा निशा को,
हर नयी भोर, नयी संध्या,
नयी चुनौती देते रहे.

रविवार, 12 सितंबर 2010

फुदकते हुये चाँद को देख फुदकने लगती तुम

तुम्हारा और मेरा मिलना
मेरे लिये सबसे ज्यादा
ख़ुशी के पलों का आना होता ,
मैं तुम्हे चाँद कहता
और तुम निर्विकार, निस्पृह बैठी रहती,
यूँ लगता जैसे प्यार के उन पलों को
खो देने से पहले समेट कर
मुझे ही भेंट कर देना चाहती हो,
मैं पूछता तुमसे, "अपने लिये क्यों नहीं रख लेती कुछ पलों को? "
तुम कहती,"तुम हो ना मेरे लिये"
और मैं पुलकित हो
तुम्हे ऐसे कितने ही पल देता
जो फिर से तुम्हे "यही" कहने पर बाध्य करते....
पर
जब नीले काले आसमान का चाँद
दीखता तुम्हे,
तुम बदल जाती....
(ना जाने कितने रूप लिये हुये हो!!!!!!!!!)
फुदकते चाँद को देख,
हिरनी सी फुदकने लगती तुम भी,
तभी,
गोल गोल रोटी सा आकार देख
अचानक याद आ जाते तुम्हे
आज कई हज़ार भूखे रहे बच्चे
और
चाँद की असमतल ज़मीन पर
गिनने लगती
तारे बन चुके बच्चों की संख्या को
और
मैं गिना करता तुम्हारे आंसुओं को
जो मेरी हथेली में समाने से इनकार कर
फुदक पड़ते या लपक लेते
तुम्हारे चाँद की तरफ....
तुम कहती,
"चलो, हमें उस घर जाना है,
जहां बच्चे अकेले पलते हैं,"
"अनाथालय" कहना
बच्चों की तौहीन लगता तुम्हें,
कई बार सोचा, कह दूं तुमसे,
कि चाँद को रोटी कह देने से
वो रोटी नहीं हो जाता,
फिर तुम्हारी भावनाओं को
आघात पहुंचाए बिना
मैं कह देता हूँ,
चलो, तुम और मैं मिलकर
चाँद को रोटी और
सितारों को आलू बना दें
और
ले चलें उस घर ,
जहां अकेले बच्चे पलते हैं
और
साथ ले चलें
मेरे- तुम्हारे प्यार की रजाई,
आज... यहीं....
तुम और मैं भगवान बन जाएँ
और
रच दें एक ऐसी सृष्टि जिसमें
कोई बाल गोपाल भूख से ना मरे
ना ही शीत से कंपकंपाये....

गुरुवार, 24 जून 2010

कटोरी आज भी खाली है.......

बच्चे चाहे जितने भी बड़े हो जाएँ, माँ का प्यार अपने बच्चों के लिये कभी कम नहीं होता. शादी के समय बेटी की विदाई माँ के लिये जितनी दुखदायक होती है, उतनी ही तकलीफदेह बेटी के लिये भी होती है. शादी के बाद कुछ साल माँ से दूर रही एक बेटी अपनी भावनाओं को व्यक्त करते हुये माँ से अपने दिल की बात कह रही है साथ ही साथ माँ के दिल की बात भी उस से छुपी नहीं है.





1 ) इन आँखों को छिपाना नहीं आता कुछ,
अब जब भी मिलती हूँ तुमसे.
ना चाहते हुये भी कह देती हो तुम,
कि काश! तुम अब भी गुड़िया सी होती
और हम तुम साथ खेल पाते.....
किसी अंतराल के बिना....


2 ) तुम्हारे
मुस्कुराते होंठ
और
नम आँखें
अलग अलग कहानी कह रहे थे
तुम भी कहाँ समझ पाई कि,
बेटी ब्याहने की ख़ुशी अधिक थी तुम्हे,
या विदा करने का दुःख......

3 ) अपना सारा प्यार उड़ेल कर
उस छोटी कटोरी में तेल गर्म करके,
मेरे बालों में मालिश कर दिया करती थी,
तुम्हारे प्यार भरे छुअन को तरसती,
वो कटोरी अब खाली रहती है.....

4 ) गालों पर लुढ़कते मोती,
समेटने की कोशिश में,
नैनों का बाँध छलक आया.
तुमसे मिलने
और
बिछड़ने की प्रक्रिया में,
हर बार मिले आंसूं
और
हर बार हम गले मिलकर खूब रोये ...

सोमवार, 31 मई 2010

उन्हें हमारी जरूरत है



पिछले साल 22 मई को जब इस ब्लॉग की नींव रखी थी, तब यह पता नहीं था कि एक वर्ष बाद उन्ही बुजुर्गों के लिये काम कर रही होउंगी, जिनकी प्रेरणा से ब्लॉग बनाने का विचार पुख्ता हुआ था. पहली पोस्ट उन्हें ही समर्पित थी और आगे भी उन पर लिखती रहूंगी.

इस ब्लॉग की पहली पोस्ट में अपील की थी कि हम बुजुर्गों को पुनः शिक्षित करने के लिये कदम उठायें. उसे दोहराने के साथ आप सब से एक निवेदन करना चाहूंगी कि बुजुर्गों को सम्मान दें, उन्हें भी उतने ही प्यार की आवश्यकता है जितना कि किसे नन्हे शिशु को , किसी बढ़ते बच्चे को, किसी जवान को अथवा किसी प्रौढ़ व्यक्ति को.

पिछले कुछ महीने हुये, रेड क्रोस को पास से जानने का अवसर मिला, उन्ही के द्वारा चलाये जा रहे, एक बुजुर्गों के लिये समर्पित प्रोग्राम में सम्मिलित हुई, बुजुर्गों के एकाकीपन को भी जाना और सर्वस्व अर्पित कर उन्होंने जिन बच्चों को पाल पोस कर बड़ा किया था, उन्ही की जुदाई में बहते आंसुओं का दरिया भी देखा. और उस से भी बड़ी बात यह देखी कि उनके बच्चे उन्हें छोड़ कर चले गये, बुजुर्ग फिर भी अपने बच्चों को दोषी नहीं कहते . यह ममता का एक स्वरुप हो सकता है पर मेरी नज़र में यह करुणा हम सभी को बुजुर्गों के प्रति अपनानी चाहिए. उन्हें हमारी जरूरत है.

शुक्रवार, 30 अप्रैल 2010

एकांत

दीवारें (अनधिकृत परेशानियाँ ) शोर करें और उन्हें शांत होने को ना कह सकें, ऐसा एकांत अपने ही वजूद में गहरे... और गहरे घाव करता जाता है.
अध्यात्म की दुनिया से विवेचनाओं की कुछ बूंद अमृत प्राप्त करने को सिसकता मन दिमाग के बंद दरवाजों पर दस्तक देते हार जाता है और मस्तिस्क एक जिद्दी बालक सा हठ लिये अपने अस्तित्व को खोजने नहीं देता. हार और समर्पण एक दूसरे के पूरक लगने लगते हैं. जीतने से भी विवेक लौट तो नहीं आता !!!!





कहीं पास ही किसी मधुर गीत के स्वर अचानक आमंत्रित करते हैं (शायद किसी का मोबाइल है) और मन चल पड़ता है उन स्वर लहरियों के भ्रमित मायाजाल की ओर..... इस मोह जनित भटकाव को ईश्वर की लीला कह कर झूठे सुकून से मन को बहलाया जाता है और अपने निश्चित लक्ष्य को भूल, भटकी राहों पर उठे क़दमों को दोबारा वास्तविकता की ओर मोड़ लाने का संकल्प मन को याद आ जाता है. पर भावनाओं के गहरे भंवर से लौटना इतना आसान तो नहीं होता................!!!!!

बुधवार, 14 अप्रैल 2010

परछाईयों का शहर 4 (अंतिम भाग)

गतांक से आगे....

"रामधारी ले चलो इन्हें पूछ ताछ के लिये."
"येस सर."
पुलिस के साथ उन तीनों की पूछताछ चल रही है.
"ड्रग्स का तस्करी में पकड़ा गया है तुम लोगों को .... मालूम है ना कितना बड़ा जुर्म होता है ये?"
तीनों गर्दन झुकाए अपनी आने वाली मुश्किल का ताना बना बुन रहे हैं. उनसे वो सवाल पूछा जा रहा है, जिसका जवाब उन्हें पता ही नहीं है. उन्हें तो यह भी नहीं पता कि कपडे में ड्रग्स कहाँ से आया!!! तस्करी तो बड़ी दूर की बात है, तीनों ने कभी ड्रग्स की शक्ल भी नहीं देखी.

"देखो, तुम तीनों अब तक दुनिया में खड़े होना भी नहीं सीखे हो... कोई तुम्हारा नाजायज़ फायदा उठा कर बच रहा है और तुम पकडे गये हो, अब अगर यहाँ से बच कर जाना चाहते हो तो सीधे सीधे बता दो कि तुम किसके लिये काम करते हो?"
"साहब, बताया ना कि हम रविन सर के लिये काम करता है...."
"फिर झूठ!!!!! ऐसा नाम का कोई आदमी है ही नहीं."
"तुम तीनों भले घर के दिखते हो, क्यों बेफालतू के लफड़े में पड़ते हो, तुम सिर्फ अपने मालिक का नाम बता दो, आगे हम देख लेंगे.समझाओ भाई ... कोई समझाओ इनको"
"हम सच बोलता है साहब..." मनीष खुद को एकदम असहाय पाता है, उसे कुछ सूझ नहीं रहा कि क्या करे, कैसे समझाए!!!
"साहब, आपको मांगता तो हम फिर से अपना ऑफिस ले चलता है ना आपको."
"ऑफिस ले चलेगा!!! उधर ना कोई तुझे पहचानता है ना तू किसी को पहचानता है.... हाँ!! चल, ले चल ना !!! (इंस्पेक्टर उन्हें चिड़ाते हुये बोलता है) अब तो लगता है तुम लोग इसी जेल की चारदीवारी में परमानेन्ट बसने वाले हो. क्यों भाई आराम से तो हो ना? तुम्हारे वास्ते खटिया मंगाये दूं?"
"गला सूख रहा है साहब, थोडा पानी मिलेगा?"
"पानी पीना है....हाँ मिलेगा ना, जरूर मिलेगा... हवलदार, इन साहब को पानी चाहिए, जाओ ले आओ पानी."
हवलदार पानी लाता है, इंस्पेक्टर मनीष के चेहरे पर पानी फेंकता है, "क्यों इतना पानी बहुत है या और मंगवाऊं?
"हमें छोड़ दो साहब, हम सच कह रहे हैं, हमने कुछ नहीं किया.... आई!! देवा!! बचाओ!!!"
"अब तुम्हे भगवान् याद आ रहे हैं, जब ऐसा गन्दा काम करते हो तब भगवान् याद नहीं आते? हाँ??"
"अब कैसे बतायें तुम्हे साहब, हमने कुछ नहीं किया...हमने कुछ नहीं किया...हमने कुछ नहीं किया." मनीष रोता है.
"हवलदार, यह ऐसे नहीं मानेगा, एक बाल्टी पानी और ले आओ."
"क्या हुआ रे मनुआ? क्यों चिल्ला रहा है?" मनीष को अपनी आई की आवाज़ सुनाई देती है.
"आई!! तू आ गई आई!!! देख आई देख, तेरे मनु को कैसे सता रहे हैं यह पुलिस वाले!!!"
इंस्पेक्टर फिर से उस पर पानी फेंकता है, मनीष रोता है और चिल्लाता है,"आईइ इ इ इ इ !!!"
"अरे चल उठ मनुआ!!! कब तक नींद में चिल्लाता रहेगा!!!"
मनीष हडबड़ाहट में उठता है, "आई! आई!!! यह तू है? इतना पानी डालने की क्या जरूरत थी आई?"
"साहब, साहब, हम कुछ नहीं किया साहब!.... अरे तू नींद में ऐसा बड़बड़ाता रहेगा तो तेरेको कैसे जगाये कोई!!!" आई खिलखिलाकर हंस पड़ती है.
"क्या आई!! तू ना कभी बच्चों से भी छोटी बन जाती है. मैं सीरियस सपना देख रहा था और तू हंस रही है? मालूम तेरे को, सपने में पुलिस पकड़ कर ले गई मेरे को, मेरी तो हालात हीच खराब होने को थी, वो तो देवा बचाया मेरेको... नहीं नहीं...आई, तुने बचा लिया आज."
"हाय देवा!!! मनुआ, तू ठीक तो है रे?
"हाँ आई! अब्बी ठीक है मैं, पन थोड़ी देर पहले ऐसा लगा कि गया अपुन तो काम से." मनीष आँखें झपकाते हुये फिर से अपने कमरे को और सामने खड़ी आई को देख कर खुद को आश्वस्त करता है कि अब सब ठीक है.
"क्या क्या सोचता रहता है रे तू! देवा है ना तेरे साथ... कुछ नहीं होने देगा तेरेको."
"हाँ आई, तेरा आशीर्वाद भी तो है.... तब्बी तो इधर तक पहुंचा है."
"चल, अब देर ना कर, तैयार हो जा, तेरा साहब आता होगा, मालूम ना समय का अंग्रेज है वो."
"हाँ आई, तू डब्बा बना, मैं अभी आया ."

समाप्त.


बुधवार, 7 अप्रैल 2010

परछाईयों का शहर 3

इसके पहले -

गतांक से आगे......

5 महीने बाद

मनीष और उसके साथी शिपमेंट उतार रहे हैं, कुछ कस्टम ऑफिसर वहाँ पर चेकिंग के लिये आये हैं, मनीष के 3 साथी तत्काल भाग जाते हैं, मनीष और उसके दो साथियों से ऑफिसर जांच पड़ताल करते हैं.
"क्या हो रहा है यहाँ?"
"माल उतार रहे हैं साहब."
"तुम्हारे साथी भाग क्यों गये?"
"पता नहीं साहब... कोई लफड़ा किया रहेगा..."
"अच्छा दिखाओ, क्या है माल में !!!"
"कपड़ा है साहब..."
"खोलो ज़रा, देखें कैसा कपड़ा है?"
"रामधारी, चेक करो यह सामान"
"यस सर"
.....
" सर, इसमें यह कोकीन बरामद हुआ है.."
"क्यों बे!!! तुम तो कह रहे थे कि कपड़ा है, एक तो सरकार की आँखों में धूल झोंकते हो, और ऊपर से झूठ भी बोलते हो, रामधारी ... लगाओ इन सब को हथकड़ी और ले चलो हमारे ऑफिस ."
"साहब , हमारा कोई कसूर नहीं, हम तो बस सामान उतारते हैं, यह तो कम्पनी वालों का सामान है, आप कहो तो हमारे साहब से बात करवा दें."
"अब बात- वात थाने पहुँच कर ही होगी."
"हम सच कह रहे हैं साहब, हमारा कोई दोष नहीं, हमें तो पता भी नहीं साहब कि इसमें कोकीन है..."
"बस्स्स... चुप रहो. ज्यादा बक बक मत करो."
"साहब , सुन तो लो हमारी बात..."
"रामधारी, यह माल ज़ब्त कर लो और इन्हें ले चलो ."
उन तीनों को ड्रग्स तस्करी के अभियोग पर गिरफ्तार कर थाने ले जाते हैं .
"सर, एक बार हमारे ऑफिस बात कर लेने दीजिये.... प्लीज़."
" हाँ सर, तब आपको भी यकीन हो जायेगा कि इसमें हमारा कोई दोष नहीं ...प्लीज़ सर."
"यह भी ठीक है, रामधारी, गाडी इनके ऑफिस ले चलो, वहीँ पता चल जायेगा कि मामला क्या है..."
"तुम्हारे ऑफिस का पता बताओ...."
"फेब्रिक एन फेब्रिक कम्पनी........."
******
सब लोग फेब्रिक एन फेब्रिक कंपनी पहुँचते हैं, मनीष और उसके साथियों को लेकर ऑफिसर अन्दर दाखिल होता है.
" हेल्प डेस्क की लड़की अनजान लग रही है, शायद कोई नई लड़की है, दूसरे डिपार्टमेंट्स के लोग भी अनजान लग रहे हैं , जाने सब लोग कौन हैं???"- एक साथी आश्चर्य से कहता है.
"हाँ, यहाँ तो सब चेहरे अनजान लग रहे हैं...!!!!!"
"चलो रविन सर के लिये पूछते हैं..." मनीष सुझाव देता है .
"मैडम, रविन सर से बात करनी है."
"हू आर यू? एंड हू इस रविन? व्हाट डू यू वांट ?"
" मैं मनीष हूँ और इस कम्पनी में रविन सर ने काम दिलाया था, आप शायद नई हैं और उन्हें नहीं जानती."
"व्हाट!!! इ हेव बीन वर्किंग हियर सिन्स पास्ट एट ईयर्स, इ हेव नेवर सीन यू बीफोर एंड मोर ओवर नो वन नेम्ड रविन वर्क्स हियर .एनी थिंग एल्स ?"
"रामधारी, ले चलो इन तीनों को, यह लोग हमारा समय नष्ट करने के लिये किसी गलत जगह पर ले आये हैं."
"नहीं साहब, हम सच कह रहे हैं , यही हमारा ऑफिस है, रोज़ का आना जाना होता है यहाँ हमारा..."
" अच्छा, रोज़ यहाँ आते हो... तब किसी को तो पहचानते होगे???"
तीनों के चेहरे लटक गये.. कोई भी चेहरा उन्हें पहचाना हुआ नहीं लग रहा.
"यही तो मुश्किल है साहब, आज कोई भी पहचान में नहीं आ रहा."
"पता नहीं क्या माजरा है!!!!"
तीनों पशोपेश में एक दूसरे को देख रहे हैं, उनकी हैरानी अब डर में बदलती जा रही है.

क्रमशः ........

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