गुरुवार, 18 जुलाई 2024

जागृति की शादी - पार्ट 3




17 जुलाई - जब फूलों से सजी जागृति 

दरबार से बाहर निकले तो ढोल बाजे बजने लगे, आतिशबाज़ी होने लगी।शादियों वाले अटपटे नाच भी हुए। जागृति अपने लिए यह सब देख कर ख़ूब ख़ुश हो गई, उसकी पिछले चार दिन से चल रही भाग दौड़ की थकान मिट गई। 

इसके बाद सब लोग शांताई होटल में गए, जागृति और ओम के द्वारा मावा केक काटा गया। फिर सबने खाना खाया, लोग नाचे गाए, बड़ी शानदार पार्टी हुई। यहाँ कुछ स्पेनिश लोग भी शामिल थे, उन्होंने फ्लामेंको डांस किया। 
 एक खूबसूरत यादगार शाम जीवन का हिस्सा बन गई। 

17 जुलाई 1999 को मेंहदी की रस्म हुई और एक नई रस्म हुई, सगरी, जिसे जागृति नहीं जानती थी। ओम के परिवार की औरतें अपने साथ फूलों के गहने और मेकअप का सामान लेकर आईं, फिर जागृति का इन गहनों से शृंगार किया, ओम को भी फूलों के गहनों से सजाया गया। लाॾे यानि कुछ शादी गीत गाए गए। बहुत सारे फ़ोटो लिए गए। परिवार के लोगों के बीच हुई इस रस्म के साथ ही एक और सुंदर दिन सबके दिलों में बस गया।  
अब जागृति कारगिल पर की गतिविधियों से अनजान हो गई। 

-पूजा अनिल 

मंगलवार, 16 जुलाई 2024

कारगिल युद्ध और जागृति की शादी- पार्ट 2

 अध्याय २- 16 जुलाई 1999 - सगाई करवाने वाले पंडित जी की धमकी 


प्रार्थना का असर था या इन्द्र देव बरस बरस कर थक चुके थे…कौन जानता है!! किन्तु मूसलाधार बारिश अब कम हुई और रूकी हुई गाड़ियों का क़ाफ़िला धीरे-धीरे ही सही लेकिन आगे बढ़ने लगा। लैंड स्लाइड वाली  पहाड़ी चढ़ाई की जगह पर भी मलबे को एक तरफ़ हटा कर गाड़ियों के गुजरने जितनी जगह बना दी गई थी। 16 जुलाई की सुबह हो चुकी थी  कल वाले कष्टों के बादल छँटने लगे थे। सही समय पर पहुँच जाने की उम्मीद जगने लगी थी। कुछ ही घंटों में जागृति की मिनीबस बंबई पुणे टनल तक पहुँच गई। टनल के बाहर बड़े से बोर्ड पर लिखा था “बोगद्यात थांबा नको (टनल में रूकें नहीं)! सब लोग प्रसन्न हुए कि अब गंतव्य तक पहुँचने से पहले कहीं रूकना नहीं है। 

लेकिन यह विचार जल्दी ही निराशा में बदल गया जब टनल क्रॉस करने के बाद पुनः ट्रैफ़िक जाम में अटक गए! 


जागृति के मन में दार्शनिक विचार आ रहे थे कि यदि एक शादी के लिए मार्ग पार करने में इतनी कठिनाई उठानी पड़ सकती है तो कारगिल युद्ध में सैनिकों को कितनी परेशानी हो रही होगी! देश प्रेम जन्मजात उसके ह्रदय में अंकित था। होता भी क्यों न? जागृति के पूर्वज देश का बँटवारा होने से पहले सिंध प्रांत में रहते थे। भारत देश को अपना देश मानने का उनका जज़्बा बँटवारे के समय उन्हें राजस्थान ले आया। अपना सब कुछ छोड़ छाड़ कर चले आना अत्यंत कष्टकारी था लेकिन देश प्रेम से बढ़कर नहीं था। शून्य से जीवन आरम्भ करने की हिम्मत जागृति को अपने पुरखों से ही प्राप्त हुई है। लेकिन आज तक उसे शिकायत है कि सरकार के वादे के मुताबिक़ उसके दादा परदादा को पाकिस्तान में छोड़ आए ज़मीन जायदाद में से कुछ भी नहीं दिया गया। ज़मींदार थे, शाही जीवन जीते थे, मगर शरणार्थियों की तरह ख़ाली हाथ आए वे, धीरे-धीरे अपने श्रम से जीवन अर्जित किया। 

लगता है कि सरकारों के वादे होते ही तोड़ने के लिए हैं! अन्यथा कारगिल युद्ध भी न हो रहा होता! फ़रवरी 1999 में ही तो लाहौर संधि के तहत बॉर्डर पर संदिग्ध गतिविधियों पर रोक लगाने की बात हुई थी। लेकिन हुआ क्या? पाकिस्तान के ग़लत इरादों के चलते युद्ध हो रहा था और हमारे देश के जवान सैनिक मारे गए। जागृति को इस बात से सख्त ऐतराज़ है कि राजनीतिक कारणों से जवानों की जान पर जोखिम हो! किसी अति महत्वाकांक्षी राजा के मन में एक विचार आता है कि उसे किसी अन्य देश की ज़मीन भी चाहिए और उसके पास हथियार भी तो हैं जो बिना प्रयोग किये जंग खा रहे हैं! तो बस..कर दो हमला पड़ोसी देश पर….और राजा के इस विचार की क़ीमत चुकाते हैं जवान सैनिक, जो देश प्रेम में अपनी जान न्योछावर करने के जज़्बे के साथ ही दिन रात जीते हैं!  और यह जुमला तो उसे बिलकुल हज़म नहीं होता कि “सैनिक बने ही इस लिए हैं!” उसका बस चले तो किसी जवान को असमय मृत्यु का सामना न करने दे। 


बात को भटकने से पहले ही मैं जागृति की कहानी पर लौट आई हूँ। तो हुआ यह कि रूक रूक कर चलती उनकी मिनीबस पुणे सबर्ब के किसी रेलवे स्टेशन के नज़दीक पहुँच गई थी। ट्रैफ़िक जाम को देखते हुए सबने तय किया कि जागृति और उसकी मम्मी को ट्रेन से पुणे रवाना कर दिया जाए, ताकि वे समय सगाई स्थल पर पहुँच सकें। इतनी सारी समस्याओं के बीच यही सबसे अच्छा समाधान था। उनके साथ एक चाचाजी और जागृति का भाई भी ट्रेन में पुणे पहुँच गए। 

चार दिन की निरंतर बिना सोए की गई यात्रा की भयंकर थकान के बाद पुणे पहुँच जाना उनके लिए किसी उपलब्धि से कम नहीं था। एक सामुदायिक भवन में ठहरने की व्यवस्था थी। वहाँ जागृति की मौसी जी ने उनके खाने पीने का बंदोबस्त भी कर दिया था। उन चारों ने नहा कर फ़्रेश महसूस किया। जागृति के ससुराल वालों से संपर्क करके उन्हें आश्वस्त किया कि दुल्हन पुणे पहुँच गई है और शाम को सगाई की रस्म के लिए गुरू दरबार में समय पर आ जाएगी। 


दुल्हन के पास झपकी लेने तक का समय नहीं था। अतः वह बाक़ी सबको छोड़ कर अपनी मौसी जी के साथ पहले से ही तय किए गए ब्यूटी पार्लर में तैयार होने के लिए चली गई। लेकिन मुसीबतों ने अभी पीछा नहीं छोड़ा था। वहाँ पहुँच कर देखा क्या कि पार्लर तो बंद था! पता  चला कि पार्लर वाली के परिवार में कोई घटना हो गई है और वह पार्लर नहीं खोल पाएगी। 

दुल्हन के मेकअप के लिए पच्चीस साल पहले भी पार्लर का ही सहारा हुआ करता था। मौसी जी ने पी सी ओ से इधर-उधर अपने जान पहचान वालों को कुछ फ़ोन किए और उन्हें स्थिति बताई, थोड़ी मशक़्क़त के बाद एक नौसिखिया पार्लर वाली ने जागृति को तैयार करने की ज़िम्मेदारी उठा ली।

 लेकिन इस बीच, इतनी समस्याओं से जूझकर जागृति अब रूआंसी हो गई थी। उसका मन कर रहा था कि कहीं रूक कर किसी के कंधे पर सिर रखकर रोकर मन हल्का कर ले! लेकिन रूकने जितना तो क्या आंसू बहाने जितना भी समय न था। 

उसे ओम की हिदायत याद आ रही थी कि शाम को आठ बजे दरबार बंद होता है, उस से पहले सगाई की रस्म पूरी करनी होगी। ओम उसके होने वाले पति का नाम है। 

पहले ही शाम के पाँच बज रहे थे। यदि तैयार होने और दरबार तक पहुँचने का समय गिनें तो वैसे ही बहुत देर हो चुकी थी। वह तुरंत तैयार होने चल दी। दो घंटे में वह तैयार हो गई। अब मौसीजी की बारी थी तैयार होने की क्योंकि वहाँ से सीधे सगाई स्थल पर जाना तय था। 

उधर सात बजते ही दरबार के महराज जी यानि पंडित जी ग़ुस्सा होने लगे कि “इतनी देर हो चुकी है, दुल्हन अब तक नहीं आई है! अब 15 मिनट में नहीं पहुँची तो मैं दरबार बंद करके चला जाऊँगा, फिर तुम लोग जाने और तुम्हारा काम जाने! मेरे समय की थोड़ी तो क़दर करो! तुम लोगों को मैंने पहले ही बता दिया था कि….” महराज की धमकी सुनकर ओम और उसके परिवार वालों पर बेहद बुरी बीत रही थी। लेकिन 16 जुलाई की उस शाम को, जागृति की मम्मी और अन्य सदस्य भी मौजूद थे, अत: वे भी महराज को शांत करने की कोशिश कर रहे थे। उस ज़माने में मोबाइल फ़ोन तो थे नहीं कि पल पल की खबर मिल सके। 

ठीक आठ बजे जागृति ने दरबार में प्रवेश किया। महाराज ने ग़ुस्से वाले खरे खोटे बोल उसे भी सुनाए। जागृति ने समस्याओं की फ़ेहरिस्त में इसे भी शामिल कर लिया और मुस्कुराते हुए महराज के आगे हाथ जोड़ दिए। महराज ने कुछ मंत्र पढ़े फिर दूल्हा दुल्हन को अँगूठियाँ पहनवाई, फिर माला पहनवाई। शगुन का आदान-प्रदान करवाया, बड़ों के पैर छूने की रस्म हुई और सबको मिठाई खिलाई। झटपट झटपट 20 मिनट में यह सारा कार्यक्रम संपन्न हो गया। महराज ने सबको दरबार से बाहर निकाल कर दरबार का द्वार बंद कर दिया। 

इस तरह जागृति और ओम की सगाई सम्पन्न हुई! 

क्रमशः 

पूजा अनिल

सोमवार, 15 जुलाई 2024

कारगिल युद्ध और जागृति की शादी

 

अध्याय १- 15 जुलाई 1999 - विवाह के पहले फ़ंक्शन में जागृति की अनुपस्थिति 

ठीक पच्चीस साल पहले यानी साल 1999 और महीना जुलाई का। जम्मू कश्मीर के कारगिल क्षेत्र में युद्ध चल रहा था। पाकिस्तान ने भारतीय सीमा में घुसपैठ करके भारत में युद्ध की परिस्थिति पैदा कर दी थी। 3 मई 1999 से आरम्भ हुआ यह युद्ध जुलाई 1999 में अपने चरम पर था। पूरे देश के समाचारों में इस युद्ध की चर्चा हो रही थी। चारों तरफ़ टाइट सिक्योरिटी रहने लगी थी। भारत की तीनों सेनाओं ने एकजुट होकर इस युद्ध में भागीदारी की। भारतीय सेना के जवानों ने हार न मानने का प्रण ले रखा था। वे जी जान लगा कर देश की रक्षा में जुटे हुए थे। 

ऐसे भयानक युद्ध के माहौल में एक और घटना घट रही थी। और वो यह कि जागृति की शादी होने वाली थी। जिस तरह युद्ध टाला नहीं जा सकता था, ठीक उसी तरह जागृति की शादी भी टाली नहीं जा सकती थी। जागृति के घर के सामने ही सैनिक छावनी थी। वहाँ होने वाली रोज़ की सैन्य गतिविधियों से इतना तो स्पष्ट था कि स्थिति गंभीर है। इधर जागृति के घर में भी शादी की तैयारी ज़ोर शोर से चलती रही। यानि जागृति के विवाह के प्रति भी पूरी गंभीरता थी। 

12 जुलाई 1999 को राजस्थान राज्य के उदयपुर शहर से जागृति अपने परिवार के साथ सड़क यात्रा द्वारा एक मिनीबस में पुणे की तरफ़ निकल गई। पुणे में भी सैन्य छावनी है। वहाँ भी कमोबेश उदयपुर जैसी ही स्थिति थी। ख़ैर… राम राम करके यात्रा आरम्भ हो चुकी थी और 12 जुलाई की रात गुजरात राज्य के बड़ौदा शहर में गुज़ार कर अगली सुबह तड़के वहाँ से आगे की यात्रा तय करनी थी। किन्तु बड़ौदा में जागृति की चाची के मायके में रात्रि भोजन के दौरान हुई बातचीत में उन्होंने बताया कि बड़ौदा में भी सैन्य छावनी है और कारगिल युद्ध के तनाव के कारण किसी भी समय शहर बंद करने की सूचना दी गई थी। अतः शहर की सीमा पर आवाजाही की रोक लगने से पहले ही वहाँ से चल देना चाहिए।  इस अंदेशे को अनदेखा नहीं किया जा सकता था। सो भोजन के पश्चात् तुरंत पुणे की तरफ़ चल दिए। 
जैसे जैसे आगे बढ़ रहे थे, वैसे वैसे शहर की सीमा, राज्य की सीमा… बंद किए जाने की बात सुनाई दे रही थी। हाई एलर्ट जारी होने की संभावना थी, कहीं रूकने का प्रश्न ही नहीं था। गाड़ी चालक भी थक चुका था लेकिन रूकने जैसी स्थिति न होने के कारण बिचारे ने गाड़ी चलाने का जोखिम उठाया। 
लेकिन ज़रा सोचिए, आज से 25 वर्ष पहले सड़क मार्ग द्वारा यात्रा करना, वो भी लगभग 1000 किलोमीटर दूर की यात्रा, उस पर मानसून का मौसम और युद्ध का माहौल, आप समझ सकते हैं कि कितनी कठिनाई भरी यात्रा रही होगी! कहीं रूकने का ठिकाना नहीं था। साथ ले ज़ाया गया भोजन बड़ा सहारा था। समस्या वाशरूम की भी थी। तेज बारिश में कहीं रूकने की जगह ही नहीं दिखती थी। ऐसे में एक अच्छी बात यह हुई कि गुजरात की सीमा पार हो गई और अब महाराष्ट्र की सीमा में प्रवेश कर लिया था। कम से कम सीमा पर रोक लेने का भय समाप्त हो गया था। 
15 जुलाई को बहराणा (विशेष विधि से झूलेलाल भगवान को समर्पित भजन पूजन) में भाग लेने के लिए जागृति के परिवार को 14 जुलाई को पुणे पहुँच जाना था। जागृति के ससुराल पक्ष ने यह साझा आयोजन किया था। लेकिन हाय री क़िस्मत! दो दिन पहले से ही ऐसा मदमस्त होकर मानसून बरसा कि बंबई (अब मुम्बई) - पुणे मार्ग, लैंडस्लाइड के कारण बंद हो गया। पुणे तो दूर, वे लोग पुणे के सबर्ब में भी प्रवेश न कर पाए। 14 के साथ 15 जुलाई भी बीत गई! जागृति के परिवार में युद्ध के जैसा भयंकर तनाव फैल गया था। और जागृति के ससुराल में डबल तनाव कि जागृति के परिवार के लोग बहराणा में आए ही नहीं, कहीं दुल्हन को इस विवाह से इनकार तो नहीं!! बहराणे में आने वाले मेहमान भी कम नहीं थे… वे जागृति के ससुराल वालों से ऐसे ऐसे सवाल कर रहे थे मानो जागृति और उसके परिवार की अनुपस्थिति के लिए जागृति के ससुराल वाले ही ज़िम्मेदार हों! ससुराल वाले भी जागृति की अनुपस्थिति से हैरान परेशान थे ही। लेकिन किसी तरह सब्र रखे हुए थे। 
ग़ज़ब तनावपूर्ण स्थिति थी, जिसमें न कोई ओर छोर दिखता था और न ही मिलन की कोई डोर! 
एक तरफ़ नॉन स्टॉप बरसात, दूसरी तरफ़ फुल्ली स्टॉपड ट्रैफ़िक, तीसरी तरफ़ लैंड स्लाइड और चौथी तरफ़ कारगिल युद्ध। ऐसा चौतरफ़ा हमला जागृति के विवाह में ही होना था!!! करें तो क्या करें? विवाह स्थल तक जाएँ तो कैसे जाएँ? प्रथम दिवस के वैवाहिक उत्सव में तो सम्मिलित न हो पाए लेकिन 16 जुलाई को सगाई की रस्म होनी थी, यह रस्म दुल्हन के बिना नहीं हो सकती, यदि तब तक भी नहीं पहुँचे तो क्या होगा? ऐसी मुश्किल घड़ी में केवल ईश्वर का ही सहारा था। जागृति के परिवार के सब लोग अपने अपने तरीक़े से ईश्वर से प्रार्थना करने लगे कि “राम तू, महान तू, आई बला को टाल तू, मुश्किल घड़ी से निकाल तू!” जो प्रार्थना बहराणे में की जाती, वे प्रार्थना के स्वर उस मिनी बस में गूंज रहे थे। 
-पूजा अनिल 

रविवार, 7 जुलाई 2024

बेटी से गुलज़ार है घर

 एक गुलाबी कमरा 

सूनेपन की दहलीज़ पर खड़ा, 

गिनता था दिन और घड़ियाँ, 

सूँझता था आती जाती परछाईयाँ, 

सुनता रहता था, 

घर में पसरी ख़ामोश उदासियाँ, 

कहीं कोई हँसी सुनाई देती तो, 

भर जाता उम्मीद से, 

कि अब वो दिन दूर नहीं, 

जब बिस्तर पर सीधी सपाट बिछी चादर पर 

सिलवटों का रूआब होगा, 

बिखरे होंगे कपड़े, किताबें और 

बिखरेगी सतरंगी मुस्कुराहट। 

एक गुलाबी कमरा, 

प्रतीक्षा के अंतिम छोर पर टिका, 

लाल पर्दे के पीछे अपनी सिसक छुपाकर, 

करता है स्वागत चमकीली धूप का, 

खोलता है खिड़की के पल्ले, 

ताज़ा हवा के झोंके से 

करता है गुदगुदी अठखेलियाँ, 

घर भर में गूंजती चहक से जान गया है, 

कि बेटी घर लौट आई है, 

घर के साथ ही साथ 

एक गुलाबी कमरा भी गुलज़ार हो गया है। 

-पूजा अनिल

गुरुवार, 30 मई 2024

धरती पर हमारी ज़िम्मेदारी


 आजकल मेरे फ़ोन में मौसम एप्प में एक फ़ीचर पर रोज़ ध्यान जा रहा है। वो है, तापमान के एवरेज रेंज से तुलना करके यह बताना कि औसत तापमान से कितना अधिक तापमान चल रहा है। जैसे इस तस्वीर में दिखा रहा है कि मद्रिद में औसत से 10 डिग्री अधिक तापमान चल रहा है। 
2050 तक तापमान के बहुत ऊँचा जाने की मौसम विज्ञान की भविष्यवाणी थी। लेकिन यदि इस गति से तापमान बढ़ता रहा तो 2030 तक तो धरती के निवासी भुने हुए धरतीवासी हो जाएँगे। क्या अब पेड़ लगाने की मुहीम कुछ काम आएगी? शहर तो शहर, अब तो गाँवों में भी पेड़ लगाने की ज़मीन नहीं मिलती। तो फिर? ऐसे में कितने वृक्ष लगाए जा सकते हैं?
और मान लीजिए कि मर जुड़ कर हर तरफ़ पौधारोपण/ वृक्षारोपण कर भी लिया तो कितने वर्षों में घने पेड़ों की सुहानी छाँव मिल पाएगी? 
कुल मिलाकर इस समस्या का हल ए सी कमरों में बैठ कर तो नहीं ही मिलेगा। वीआईपी स्टेट्स भुलाकर एक साधारण मनुष्य की तरह धरती पर जीवन जी सकें तो कितना कुछ त्यागना पड़ेगा, है न? 
त्याग नहीं करना है तो थोड़े छोटे छोटे काम इस धरती के प्रति अपनी ज़िम्मेदारी समझ कर अवश्य कर लीजिए। कुछ बहुत आसान से काम हैं। अमीर गरीब का भेद भूलकर इन पर केवल जनता को ही नहीं बल्कि कॉरपोरेट जगत और राजनीतिक दुनिया, फ़िल्म वर्ल्ड वालों को भी अमल करना चाहिए। 

१- दिन भर चलते पंखे, ए सी, कूलर पर टाइमर लगाइए ताकि जब कमरे में ठंडक हो जाए तो ये सारे उपकरण स्वतः बंद हो जाएँ। बिजली का बिल भरने से आप अमीर नहीं होते बल्कि स्वच्छ हवा में साँस लेना, आपको अमीर बनाता है। अत: स्वच्छ हवा के लिए बिजली कम से कम खर्च करके बिजली के बिल में कटौती करें, बदले में शुद्ध हवा पाएँ। 
२- टी वी, फ्रिज, वाशिंग मशीन आदि घरेलू उपयोग के उपकरण, बिजली खपत में A सिम्बल वाले लें। जो कुछ ऊर्जा आप खर्च करते हैं, वो इसी पृथ्वी पर उत्पादित की जाती है। अत: जितनी अधिक खपत उतना अधिक उत्पादन और उसी अनुपात में पृथ्वी के रिसोर्सेज़ का दोहन किया जाएगा। पड़ोसी का न सही, अपना ही भला सोच कर ऊर्जा की बचत करें। 
३- अंधाधुंध कपड़े और जूते ख़रीदने के कार्यक्रम पर स्वयं रोक लगाइए। धरती पर ऐसे कपड़ों का ढेर लग गया है जिन्हें कोई पहनने वाला नहीं है। नए, पुराने… हर तरह के कपड़े धरती की साँसें घोंट रहे हैं। यदि आप खुद साफ़ हवा में साँस लेना चाहते हैं तो पहले इस धरती को भी साँस लेने दीजिए। अनावश्यक कपड़ों की ख़रीदारी मत कीजिए। बाज़ार को केवल पैसे से मतलब है, आपकी सेहत से नहीं, अत: अपनी सेहत की चिंता आप स्वयं कीजिए। कपड़ों जूतों से सेहत नहीं बनती, केवल आपकी अलमारी भरती है। एक ही बार उपयोग कर कपड़े फेंक देने की प्रवृत्ति को टाटा बाय बाय कर दीजिए अब। आपको अंदाज़ा भी नहीं होगा कि एक कपड़ा बनने में धरती की कितनी ऊर्जा खर्च हो रही है और नतीजे में धरती गर्म हो रही है। 
४- सजावटी सामान की कितनी आवश्यकता होती है आपको? बहुत ही कम, है न? लेकिन सजावट के सामान से घर भरा पड़ा है, किसलिये? उस पर तुर्रा यह कि एक वस्तु से बोर हो गए तो उसे  उठा कर फेंक दिया और मार्केट से नया प्रोडक्ट ले आए, क्यों भई क्यों? ज़रा रूक जाओ। घर को मार्केट प्रोडक्ट प्रयोगशाला मत बनाओ। थोड़ी कम सजावट होगी तो कोई असुंदर नहीं दिखेगा घर। घर की वास्तविक रौनक़ तो आप स्वयं ही हो। 
५- पानी को नहीं भूल सकते। उतना ही खर्च करें जितनी ज़रूरत हो। आप अफोर्ड कर सकते हैं इसका यह मतलब नहीं कि जितना मर्ज़ी पानी बहाएँगे!! धरती पर सीमित सप्लाई है पानी की, जिस दिन ख़त्म हो जाएगा, उस दिन राजा हो या मिडिल क्लास, सबके लिए त्राहि त्राहि होगी। अभी ही संभव जाइए। सोसायटी में रहते हैं तो वहाँ नियम बनाइए कि सभी इस प्राकृतिक उपहार का महत्व समझ सकें। 
६- अनावश्यक प्रोडक्शन की बढ़ती माँग के कारण कई ज़हरीली गैस, अशुद्ध पानी का बायप्रोडक्ट उपजाती फ़ैक्टरी से अनियंत्रित पर्यावरण प्रदूषण हो रहा है। कोशिश कीजिए कि अनावश्यक वस्तुओं के लालच में न आएँ। दिखावे के छल से खुद को भी रोकें और दूसरों को भी। इस तरह प्रदूषण कम करने में सहायक बनें। 
आप सजग हों तो औरों को भी सजग कीजिए। धरती पर बढ़ते तापमान, साइक्लोन, असमय भारी वर्षा इत्यादि की प्राकृतिक चेतावनी को नज़रअंदाज़ नहीं करें। रईसी इसी में है कि स्वच्छ हवा पानी से भरपूर हरी भरी धरती आपके रहने लायक़ सुंदर और स्वस्थ हो, उसके लिए अपने हिस्से का प्रयास अवश्य कंरे, तभी आप धरती पर रहने का आनंद ले पाएँगे। हर एक, छोटे से छोटा प्रयास निश्चित ही काम करेगा, ऐसा मैं मानती हूँ। 
इस संदेश को अन्य लोगों तक भी पहुँचाइए। 

गुरुवार, 9 मई 2024

बच्चों को अपनी भाषा सिखाएँ

हम भारत से बाहर रहने वालों के लिए अपनी भाषा सिखाना चुनौती भरा कार्य होता है। यहाँ की भाषा तो वे स्कूल में सीख जाते हैं। लेकिन अन्य भाषाओं के लिए अभी तक कम ही स्कोप है। वैसे स्पेन में अंग्रेज़ी अब पाँव पाँव चलना सीख चुकी है लेकिन जब मेरे बच्चों ने जन्म लिया तब तक यहाँ की सड़कों पर (अंग्रेजों को छोड़कर) अंग्रेज़ी कहीं सुनाई नहीं देती थी। 

और यहाँ छोटे से परिवार में अपनी भाषा सिखाने के लिए अधिकतर परिवारों में माँ पापा ही होते हैं। ऐसा ही हमारे साथ भी था। ऐसे में हमने बच्चों को पैदाइश से ही सिखाने के लिए अथवा कहिए कि बहुभाषी बनाने के लिए तय किया कि मैं अंग्रेज़ी में बात करूँगी और बच्चों के पापा सिंधी भाषा में। स्पेनिश लोग आस-पास थे ही, स्पेनिश में बात करने के लिए। 

सिंधी भाषा में हिंदी से भी अधिक वर्ण होते हैं। मर्मस्थल सम्मत वर्णों का उच्चारण अत्यधिक उन्नत है। इससे दोनों बच्चों की ज़बान शुरू से ही साफ़ हो गई। बाद में (जन्म से ही ) टी वी पर भारतीय चैनल सुनते देखते और हिंदी गीत सुनकर हिंदी सीख गए और स्कूल शुरू करने पर स्पेनिश सीख ली, बाद में फ़्रेंच सीख गए। अब डच सीख रहे हैं। 

यह जो बच्चों का एक साथ चार भाषाएँ सीखने का क्रम था, इससे मैंने एक बात सीखी कि बच्चों को किसी भी भाषा में अनुवाद करके किसी से वार्तालाप नहीं करना पड़ता था बल्कि वे उसी भाषा में सोचने में सक्षम हैं जिस भाषा में बात हो रही है। 

अत: मैं प्रत्येक माता-पिता, अभिभावक से कहूँगी कि बच्चों को आप वे सभी भाषाएँ सिखाएँ जो आप और आपके परिवार में बोली जाती हैं। अपने और कई अन्य परिवारों के अनुभव से कहती हूँ कि इस प्रक्रिया में बच्चों पर बिलकुल मानसिक दबाव नहीं पड़ता है, बल्कि वे बड़ी प्रसन्नता से एक साथ कई भाषाएँ सीख जाते हैं। और बड़े होने पर आपको धन्यवाद कहेंगे कि आपने न केवल उन्हें  भाषाई ज्ञान से समृद्ध किया है बल्कि दुनिया में आगे बढ़ने के लिए भी द्वार खोल दिए हैं।

बुधवार, 6 मार्च 2024

जीवन जीना मत टालो


 इन पुरानी हो चुकी 

झर्झर दहलीजों के पीछे, 

कभी ज़िंदगी से लबरेज़ 

गुनगुनाहटें गूँजती होंगी! 

कच्चे आटे की महक 

और पके आम की ख़ुशबू 

सरसरातीं होंगी! 

देखो, आज यह सब 

कैसे ख़ामोश हैं! 

मानो, कह रहे हों कि 

रोटी की दौड़ दौड़ते, 

टुकड़ों में समय का 

मटका फूट जाएगा। 

पल दो पल में ही, 

सदा सलामत रहने का 

यह भ्रम टूट जाएगा। 

मेरे सूखे दर्द की चौखट पर,

मौन पड़ी जलधार का,

यह इशारा है कि आज 

जीवन जी लो क्योंकि 

जीवन ख़त्म होने के बाद,

कोई आशिक़,

वह माशूक़ तराना,

लौटा न पाएगा! 

-पूजा अनिल