इन पुरानी हो चुकी
झर्झर दहलीजों के पीछे,
कभी ज़िंदगी से लबरेज़
गुनगुनाहटें गूँजती होंगी!
कच्चे आटे की महक
और पके आम की ख़ुशबू
सरसरातीं होंगी!
देखो, आज यह सब
कैसे ख़ामोश हैं!
मानो, कह रहे हों कि
रोटी की दौड़ दौड़ते,
टुकड़ों में समय का
मटका फूट जाएगा।
पल दो पल में ही,
सदा सलामत रहने का
यह भ्रम टूट जाएगा।
मेरे सूखे दर्द की चौखट पर,
मौन पड़ी जलधार का,
यह इशारा है कि आज
जीवन जी लो क्योंकि
जीवन ख़त्म होने के बाद,
कोई आशिक़,
वह माशूक़ तराना,
लौटा न पाएगा!
-पूजा अनिल
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