एक गुलाबी कमरा
सूनेपन की दहलीज़ पर खड़ा,
गिनता था दिन और घड़ियाँ,
सूँझता था आती जाती परछाईयाँ,
सुनता रहता था,
घर में पसरी ख़ामोश उदासियाँ,
कहीं कोई हँसी सुनाई देती तो,
भर जाता उम्मीद से,
कि अब वो दिन दूर नहीं,
जब बिस्तर पर सीधी सपाट बिछी चादर पर
सिलवटों का रूआब होगा,
बिखरे होंगे कपड़े, किताबें और
बिखरेगी सतरंगी मुस्कुराहट।
एक गुलाबी कमरा,
प्रतीक्षा के अंतिम छोर पर टिका,
लाल पर्दे के पीछे अपनी सिसक छुपाकर,
करता है स्वागत चमकीली धूप का,
खोलता है खिड़की के पल्ले,
ताज़ा हवा के झोंके से
करता है गुदगुदी अठखेलियाँ,
घर भर में गूंजती चहक से जान गया है,
कि बेटी घर लौट आई है,
घर के साथ ही साथ
एक गुलाबी कमरा भी गुलज़ार हो गया है।
-पूजा अनिल
याद आती है ममा की बात सुना कर के जा रही घर
जवाब देंहटाएंसुन्दर सृजन
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर रचना
जवाब देंहटाएंबहुत खूब।
जवाब देंहटाएंसही कहा, बेटियां तो घर की जान होती है।
बहुत सुंदर।
जवाब देंहटाएंबहुत ही सुंदर रचना लिखी गयी है ।
जवाब देंहटाएंप्रिय हिन्दी
वाह 👍 में
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