बुधवार, 31 जुलाई 2024

एक जग पानी



तीसरे फ्लोर पर रहने वाली आँटी  ने शादी नहीं की थी। कोई विशेष कारण रहा होगा जो वे किसी से इस विषय पर चर्चा तक करना पसंद नहीं करतीं थीं। 

मैं हर सप्ताह में एक दिन उनसे मिलने चली जाती थी। बुधवार को मेरी क्लास जल्दी ख़त्म हुआ करती थी इसलिए हर बुधवार को मैं अपना टिफ़िन लेकर उनके साथ लंच करती थी। 
उनके लिए भी अकेलेपन की ऊब से बचने के लिए, सप्ताह में एक दिन ही सही, मेरा साथ सुखद हुआ करता था। हम दोनों मिलकर खाना खाते और ढेर सारी बातें करते। फिर शाम को मैं अपने घर चली जाती, जो कि चौथे फ्लोर पर था। 
इधर कुछ दिनों से आँटी मार्था अपनी टाँग टूटने से बेहद परेशान थीं। टाँग पर प्लास्टर चढ़ा दिया गया था। एक नर्स रोज़ सुबह आती थी, उन्हें नहलाने और मरहम पट्टी करने के लिए। बाद में एक हेल्पर आती घर में साफ़ सफ़ाई करने और खाना बनाने के लिए। यह तो रोज़ का काम निपट ही जाता लेकिन उनका घर से बाहर निकलना बिलकुल बंद हो गया था, जिससे उन्हें लगता था कि दुनिया के दरवाज़े ही बंद हो गए हैं। उस पर नीचे सड़क पर होने वाले शोर से उनको बड़ी चिढ़ मचने लगी थी। तन का दर्द मन की पीड़ा में परिलक्षित होने लगा था। 

एक बुधवार को जब मैं उनके पास बैठी थी तो बिल्डिंग के नीचे सड़क की बैंच पर बैठे किसी प्रेमी युगल की हँसी खिलखिलाहट सुनकर अचानक उन्हें ग़ुस्सा आ गया। उन्होंने अपनी हेल्पर अनिता को कहा कि जल्दी से एक जग भरकर पानी ले आए। मैं हैरान थी कि वे इतने सारे पानी का क्या करेंगी? जैसे ही अनिता पानी ले आई, आँटी ने मुझसे कहा, ये बेख़ौफ़ हँसी सुन रही हो न? देखो, कैसे निर्लज्ज हो गए हैं आजकल के युवा! इतना भी ख़्याल नहीं आता इन्हें कि कोई बूढ़ा बीमार इंसान ऐसी निर्लज्ज हरकतों पर कितना शर्मिंदा हो रहा होगा! तुम उस खिड़की से इन बेशर्मों पर यह पानी फेंक दो तो वे हटें यहाँ से! 
मैं उनकी ऐसी निष्ठुर बातें सुनकर सन्न रह गई। फिर खिड़की से झांका तो पाया कि बड़े प्यारे से दो लोग प्रेम में सुधबुध खोए एक दूसरे से बातें कर रहे थे। 
आँटी की फिर से आवाज़ आई, तुमने भी देखा न उन्हें? लो यह पानी, फेंक दो उनके ऊपर। 
मैंने कहा, नहीं आँटी,  इतनी कठोरता? यह तो बिलकुल ठीक बात नहीं! तोता मैना की जोड़ी बैठी बातें कर रही है, मैं उन्हें नहीं सता सकती। पानी फेंक कर तो कदापि नहीं। आप चाहें तो मैं नीचे जाकर उनसे बात कर सकती हूँ कि वे कहीं अन्यत्र जाकर बैठें ताकि आपको परेशानी न हो। 

मेरी बात सुन आँटी मुझसे भी नाराज़ हो गई। कुछ बड़बड़ाते हुए एकाएक वे रोने लगीं। “मैं चल पाती तो अब तक तो अवश्य उन्हें वहाँ से भगा देती। मुझे पता है, तुम मेरी सुनोगी ही नहीं! फिर उनका स्वर शांत होता गया- हाँ, यदि उस दिन तुम्हारी तरह अच्छे दिल वाली कोई लड़की वहाँ होती तो मेरी भी जोड़ी कभी नहीं टूटी होती! मैं और अन्तोनियो आज साथ जीवन जी रहे होते! मगर उस दिन  किसी ने हम पर पानी फेंका और गलती से जग भी आ गिरा, अन्तोनियो कोमा में चला गया, फिर कुछ वर्षों बाद डॉक्टर ने उम्मीद छोड़ दी, उसे जीवन से मुक्त कर दिया, रह गई मैं अंतहीन अकेलेपन के साथ! लेकिन आज तुमने मुझे वही पाप करने से बचा लिया बेटी!” अब वे अपने होश में आने लगी थीं। उनके कष्टकारी अतीत से परिचय होना भी कम पीड़ादायक न था। उन्हें एक आलिंगन देते हुए मैं सोच रही थी कि कोई इतना निर्दयी कैसे हो सकता था कि दो प्यार करने वालों को सहन नहीं कर पाए! 
-पूजा अनिल 
 #थोड़ासाप्यार 

गुरुवार, 18 जुलाई 2024

जागृति की शादी - आख़िरी किस्त

 अध्याय 4 - दार्शनिक जागृति और ओम की बातें 

18 जुलाई 1999 
अरेंज मैरिज में वर की तलाश करते समय जागृति की मम्मी ने उससे पूछा था कि उसे शादी के लिए कैसा परिवार चाहिए? जागृति ने कहा था कि ऐसा परिवार हो जहाँ सास ससुर दादा दादी से भरा पूरा परिवार हो। मम्मी ने पूछा -और? जागृति ने कहा- और कोई डिमांड नहीं है, घर में बड़े बुजुर्ग होंगे तो वे अपने आप मेरा ध्यान रखेंगे, मैं उनका ध्यान रखूँगी, वे मुझसे बेहद प्रसन्न रहेंगे, मुझे कुछ और नहीं चाहिए। आज के ज़माने में जब सब लोग बुजुर्गों से दूर भागते हैं, तब ऐसी अटपटी डिमांड भला कौन रखता है? लेकिन जागृति दार्शनिक वृत्ति वाली लड़की है, वह बुजुर्गों के सानिध्य में प्रसन्न होती है। परन्तु क़िस्मत ने उसकी इस एकमात्र डिमांड को भी ठुकरा दिया। जहाँ शादी तय हुई, वहाँ दादा दादी तो बहुत दूर की बात, सास ससुर तक नहीं मिले उसे। ओम की माँ आठ साल पहले ही स्वर्ग लोक चली गई थी और पिता उनसे भी पहले। कोई अन्य डिमांड न होने की स्थिति में जागृति को अपनी इकलौती डिमांड ख़ारिज होने से ही संतुष्ट होना पड़ा। कुछ हद तक इस कमी को पूरा करने का अवसर मिला उसे, जब विवाह के कुछ वर्षों पश्चात जागृति रेड क्रॉस वॉलिंटियर के रूप में बुजुर्गों को कम्पनी देने की निःस्वार्थ सेवा करने लगी। 

जागृति और ओम के विवाह का दिन आ गया है। तेल की, हल्दी की रस्में शुरू हो गई हैं। 
भारतीय परिवारों में कई अलग सी, अनूठी सी रस्में होती हैं, जो क्षेत्र और समाज के अनुसार विविधता से भरपूर हुआ करतीं हैं। 
17 जुलाई की रात ईश्वर को साक्षी मानकर जागृति को तेल लगाया गया। दुल्हे अथवा दुल्हन की माँ एक गुलाबी चुनरी में अपनी संतान को अपने साथ बिठाकर पूजन विधि करवाती है। यह रस्म परिवार के बेहद क़रीबी लोगों द्वारा ही की जाती है। जिसमें दुल्हे/दुल्हन के सुखद भविष्य के लिए आशीर्वाद देते हुए बड़े बुजुर्ग दुल्हे /दुल्हन के सिर पर तेल लगाते हैं फिर एक चक्की में गेहूं के दाने डाल कर पीसे जाते हैं, जो कि अपने श्रम द्वारा धन धान्य से परिपूर्ण होने का प्रतीक माना जाता है। इसके बाद प्रसाद बाँटकर, पूजा इत्यादि से निपट कर पूरे परिवार को सुबह तक आराम करने के लिए कुछ समय मिल गया। 

सुबह उठते ही तेल भरे बालों को धोने की सख़्त ज़रूरत थी, अत: जागृति ने पहला काम यही किया। लेकिन स्नानागार में पूरा तालाब बन गया और पानी निकल ही नहीं रहा था। तो पहले उसे स्नानघर की पानी निकासी वाली जाली साफ़ करनी पड़ी। उफ! उसकी गाढ़ी रची मेंहदी की चिंता! और फिर यह काम आज की उसकी लिस्ट में शामिल नहीं था। लेकिन कभी-कभी नॉन लिस्टेड काम भी करने पड़ते हैं। अतः किसी तरह स्नानघर की जल निकासी को भी ठीक किया उसने। 

अब दुल्हन के सजने संवरने की बारी आई। जयपुर के सुनहरे ज़री वर्क से बने मैरून लहंगे में जागृति दुल्हन की तरह सज संवर कर तैयार हो गई। 
बारात आने पर उसकी मम्मी ने दुल्हे का स्वागत किया। द्वार पूजन और दूल्हे द्वारा पैर के अंगूठे से माटी का दिया तोड़ने की रस्में हुईं। फिर दूल्हा दुल्हन को एक दूसरे के दर्शन करने का मौक़ा दिया गया। 
फिर उन्हें फेरों के लिए ले जाया गया। वहाँ पंडित जी ने कहा कि आज का दिन तुम दोनों लक्ष्मी नारायण का स्वरूप हो, जो भी आशीर्वाद माँगने आए, उसे आशीष ज़रूर देना। इस बात ने दोनों को पहले चौंकाया, फिर उन्हें दिली खुशी दी। दुल्हा और दुल्हन दोनों ही बड़े मन से आस्तिक स्वभाव वाले हैं तो कुछ देर के लिए लक्ष्मी नारायण बनना उनके लिए सुंदर सुखद अनुभव था। जयमाला, पाणिग्रहण, फेरे, मंगलसूत्र पहनाने और सिंदूर दान के पश्चात् एक विशेष रस्म होती है जिसमें लड़की का नाम लड़के की जन्मपत्री के अनुरूप करने के लिए बदल दिया जाता है। यही वह पल था जब जागृति का नाम ओम की पत्रिका के अनुसार पूजा हो गया। वैश्विकरण के चलते नई दुल्हन के नाम परिवर्तन से कई परेशानियाँ खड़ी हो जाती हैं, अत: अब इस रस्म को असल जीवन में अपनाने की बजाय केवल रस्म अदायगी के तौर पर निभाया जाता है। हालाँकि कुछ लोग अब भी इसे संजीदगी से निभाते हैं। 
शादी के रिसेप्शन में उनकी शादी में शामिल सभी लोगों से उनकी मुलाक़ात हुई। रिसेप्शन और रात्रि भोज के बाद वे लोग ओम के घर गए।  वहाँ दुल्हा दुल्हन की आरती की गई। फिर चावल से भरे लौटे को पाँव की छुअन से गिराया और फिर एक लाल सिंदूर की थाली में पूजा ने पाँव रखे और अपने कदमों के निशान बनाकर गृहप्रवेश  किया। सब लोग फूल बरसा रहे थे। मंगल गीत गा रहे थे। 
फिर लूंण मटाएण की रस्म हुई जिसमें एक बड़े से थाल में मोटा समुद्री नमक भरा हुआ था। नई दुल्हन अपनी अँजुरी में नमक को भरती है और एक एक कर ससुराल के सभी छोटे बड़े सदस्यों के हाथ में सात बार उस नमक का लेन देन करती है। आशीर्वाद स्वरूप सभी लोग दुल्हन को पैसे अथवा गहने देते हैं। इस रिवाज के पीछे यह तथ्य है कि दुल्हन के संबंध अपनी ससुराल वालों के साथ मधुर और मज़बूत बनते हैं। फिर हँसी मज़ाक़ चलता रहा। इतने सारे रीति रिवाजों के बीच कारगिल युद्ध मस्तिष्क के किसी कोने में सुप्त हुआ बैठ गया था,  निश्चित ही यह विस्मरण की बात नहीं थी! फेरों के समय भी जागृति को स्मरण हुआ था कि देश के वीर सैनिक बॉर्डर पर लड़ रहे हैं और वे शादी जैसा बड़ा उत्सव मना रहे थे! यह सोचकर उसे ग्लानि हुई थी। 
सब रिवाज रस्मों के बाद दुल्हा दुल्हन को होटल रूम में भेज दिया गया। 

शादी की प्रथम रात्रि थी। वह रात जिसे फ़िल्मों में अजीबोग़रीब जादुई या करामात की रात की तरह प्रस्तुत किया जाता है और समाज में भी इस रात को लेकर लोगों का उत्साह देखते ही बनता है! उनकी सुहाग सेज गुलाब के फूलों से सजी हुई थी, वहाँ फ़ोटोग्राफ़र ने उन दोनों की कई तस्वीरें निकालीं। अब वे दोनों ही बुरी तरह थक चुके थे। दुल्हे को तो शादी की तैयारियों में लगातार चल रही भागदौड़ के कारण बुख़ार ही आ गया था। अतः उसने दवा ली और तुरंत नींद की गोद में सोने चला गया। दुल्हन भी थकी हुई थी लेकिन उसके वस्त्राभूषण निकालने और बालों में फँसे अनगिनत हेयर पिन निकालने में उसे अच्छी ख़ासी मशक़्क़त करनी पड़ी, कुछ झल्लाहट थी, लेकिन यह करना आवश्यक था, अत: वह कुछ समय पश्चात् सोई। 

दो घंटे सोने के बाद दोनों ही नींद से जाग गए। दुल्हन ने पूछा, बुख़ार उतरा? दुल्हे ने कहा, हाँ, अब बुख़ार नहीं है। फिर दुल्हे ने ही कहा, कोई भी परिस्थिति सदा के लिये नहीं रहती है इसलिए अब इस सबक़ को सदा याद रखना कि यह भी गुज़र जाएगा। दुल्हन स्वयं इस विचार पर एकमत थी अतः उसने मुस्कुराते हुए हामी भरी और कहा कि आप भी याद रखना कि हम एक दिन का झगड़ा कभी भी अगले दिन तक नहीं ले जाएँगे। यानि रात बीती बात बीती! दुल्हे को यह विचार पसंद आया। उसने भी हामी भरी। फिर भविष्य के बारे में बातें करते करते वे दोनों वापस सो गए। ऐसे दार्शनिक दुल्हा दुल्हन थे कि विवाह के पच्चीस वर्षों बाद भी वे आज तक अपने उन विचारों को निभाते हैं। 

18 जुलाई 2024
अब जब विवाह के पच्चीस वर्ष सम्पूर्ण हुए तो पूजा बन चुकी जागृति के मन का भय भी समाप्त हो गया। इस भय को जानने के लिए जागृति के अतीत में जाना होगा। यह तब की बात है जब जागृति के माता-पिता ने उनके विवाह के चौबीस वर्ष पूरे किए थे और उनके विवाह के पच्चीसवें वर्ष की शुरुआत हो रही थी। तब जागृति के पिता ने कहा कि अब वे सिल्वर जुबली समारोह रखना चाहते हैं। लेकिन जागृति ने कहा कि पच्चीस वर्ष पूरे होने पर समारोह रखा जाता है तो क्यों न एक साल बाद सिल्वर जुबली मनाई जाए? और पिताजी ने उसकी यह बात मान ली। 
लेकिन जीवन की क्षणभंगुर विधि को कौन जान पाया है भला? जागृति भी इससे अनजान थी। उनकी चौबीसवीं सालगिरह के ठीक एक महीने और सत्रह दिन पश्चात् जागृति के पिता को अचानक ही ह्रदयाघात हुआ और वे इस दुनिया से आगे की दुनिया में चल बसे। इस प्रकार जागृति के माता-पिता को पच्चीसवीं सालगिरह मनाने का कभी अवसर ही नहीं मिल पाया। जागृति के मन में एक गहरा अपराधबोध घर कर गया कि उसके कहने पर ही पिता ने सालगिरह समारोह स्थगित किया था, और उसके कारण ही उसके माता-पिता एक सुंदर जश्न मनाने से वंचित रह गए! अत: उस दिन के बाद जागृति ने कभी किसी को कोई भी कार्यक्रम स्थगित करने के लिए नहीं कहा। उसके मन में यह भय भी बैठ गया कि वह भी अपनी शादी की पच्चीसवीं सालगिरह शायद न मना पाए! लेकिन कहते हैं कि अनहोनी होती नहीं इसलिए होनी टलती नहीं। पूजा और अनिल ने अपनी शादी की पच्चीसवीं सालगिरह अपने परिवार और कुछ ख़ास मित्रों के साथ मनाई और इस प्रकार जागृति का वर्षों पुराना भय नष्ट हो गया। बस कमी थी तो उनके माता-पिता की, वे इस मौक़े पर उपस्थित होते तो कुछ और ही बात होती! निश्चित ही स्वर्ग से उनका आशीर्वाद पूजा अनिल को प्राप्त हुआ होगा। 
अब तक आप समझ चुके होंगे कि ओम ही अनिल है। 
-पूजा अनिल 




जागृति की शादी - पार्ट 3




17 जुलाई - जब फूलों से सजी जागृति 

दरबार से बाहर निकले तो ढोल बाजे बजने लगे, आतिशबाज़ी होने लगी।शादियों वाले अटपटे नाच भी हुए। जागृति अपने लिए यह सब देख कर ख़ूब ख़ुश हो गई, उसकी पिछले चार दिन से चल रही भाग दौड़ की थकान मिट गई। 

इसके बाद सब लोग शांताई होटल में गए, जागृति और ओम के द्वारा मावा केक काटा गया। फिर सबने खाना खाया, लोग नाचे गाए, बड़ी शानदार पार्टी हुई। यहाँ कुछ स्पेनिश लोग भी शामिल थे, उन्होंने फ्लामेंको डांस किया। 
 एक खूबसूरत यादगार शाम जीवन का हिस्सा बन गई। 

17 जुलाई 1999 को मेंहदी की रस्म हुई और एक नई रस्म हुई, सगरी, जिसे जागृति नहीं जानती थी। ओम के परिवार की औरतें अपने साथ फूलों के गहने और मेकअप का सामान लेकर आईं, फिर जागृति का इन गहनों से शृंगार किया, ओम को भी फूलों के गहनों से सजाया गया। लाॾे यानि कुछ शादी गीत गाए गए। बहुत सारे फ़ोटो लिए गए। परिवार के लोगों के बीच हुई इस रस्म के साथ ही एक और सुंदर दिन सबके दिलों में बस गया।  
अब जागृति कारगिल पर की गतिविधियों से अनजान हो गई। 

-पूजा अनिल 

मंगलवार, 16 जुलाई 2024

कारगिल युद्ध और जागृति की शादी- पार्ट 2

 अध्याय २- 16 जुलाई 1999 - सगाई करवाने वाले पंडित जी की धमकी 


प्रार्थना का असर था या इन्द्र देव बरस बरस कर थक चुके थे…कौन जानता है!! किन्तु मूसलाधार बारिश अब कम हुई और रूकी हुई गाड़ियों का क़ाफ़िला धीरे-धीरे ही सही लेकिन आगे बढ़ने लगा। लैंड स्लाइड वाली  पहाड़ी चढ़ाई की जगह पर भी मलबे को एक तरफ़ हटा कर गाड़ियों के गुजरने जितनी जगह बना दी गई थी। 16 जुलाई की सुबह हो चुकी थी  कल वाले कष्टों के बादल छँटने लगे थे। सही समय पर पहुँच जाने की उम्मीद जगने लगी थी। कुछ ही घंटों में जागृति की मिनीबस बंबई पुणे टनल तक पहुँच गई। टनल के बाहर बड़े से बोर्ड पर लिखा था “बोगद्यात थांबा नको (टनल में रूकें नहीं)! सब लोग प्रसन्न हुए कि अब गंतव्य तक पहुँचने से पहले कहीं रूकना नहीं है। 

लेकिन यह विचार जल्दी ही निराशा में बदल गया जब टनल क्रॉस करने के बाद पुनः ट्रैफ़िक जाम में अटक गए! 


जागृति के मन में दार्शनिक विचार आ रहे थे कि यदि एक शादी के लिए मार्ग पार करने में इतनी कठिनाई उठानी पड़ सकती है तो कारगिल युद्ध में सैनिकों को कितनी परेशानी हो रही होगी! देश प्रेम जन्मजात उसके ह्रदय में अंकित था। होता भी क्यों न? जागृति के पूर्वज देश का बँटवारा होने से पहले सिंध प्रांत में रहते थे। भारत देश को अपना देश मानने का उनका जज़्बा बँटवारे के समय उन्हें राजस्थान ले आया। अपना सब कुछ छोड़ छाड़ कर चले आना अत्यंत कष्टकारी था लेकिन देश प्रेम से बढ़कर नहीं था। शून्य से जीवन आरम्भ करने की हिम्मत जागृति को अपने पुरखों से ही प्राप्त हुई है। लेकिन आज तक उसे शिकायत है कि सरकार के वादे के मुताबिक़ उसके दादा परदादा को पाकिस्तान में छोड़ आए ज़मीन जायदाद में से कुछ भी नहीं दिया गया। ज़मींदार थे, शाही जीवन जीते थे, मगर शरणार्थियों की तरह ख़ाली हाथ आए वे, धीरे-धीरे अपने श्रम से जीवन अर्जित किया। 

लगता है कि सरकारों के वादे होते ही तोड़ने के लिए हैं! अन्यथा कारगिल युद्ध भी न हो रहा होता! फ़रवरी 1999 में ही तो लाहौर संधि के तहत बॉर्डर पर संदिग्ध गतिविधियों पर रोक लगाने की बात हुई थी। लेकिन हुआ क्या? पाकिस्तान के ग़लत इरादों के चलते युद्ध हो रहा था और हमारे देश के जवान सैनिक मारे गए। जागृति को इस बात से सख्त ऐतराज़ है कि राजनीतिक कारणों से जवानों की जान पर जोखिम हो! किसी अति महत्वाकांक्षी राजा के मन में एक विचार आता है कि उसे किसी अन्य देश की ज़मीन भी चाहिए और उसके पास हथियार भी तो हैं जो बिना प्रयोग किये जंग खा रहे हैं! तो बस..कर दो हमला पड़ोसी देश पर….और राजा के इस विचार की क़ीमत चुकाते हैं जवान सैनिक, जो देश प्रेम में अपनी जान न्योछावर करने के जज़्बे के साथ ही दिन रात जीते हैं!  और यह जुमला तो उसे बिलकुल हज़म नहीं होता कि “सैनिक बने ही इस लिए हैं!” उसका बस चले तो किसी जवान को असमय मृत्यु का सामना न करने दे। 


बात को भटकने से पहले ही मैं जागृति की कहानी पर लौट आई हूँ। तो हुआ यह कि रूक रूक कर चलती उनकी मिनीबस पुणे सबर्ब के किसी रेलवे स्टेशन के नज़दीक पहुँच गई थी। ट्रैफ़िक जाम को देखते हुए सबने तय किया कि जागृति और उसकी मम्मी को ट्रेन से पुणे रवाना कर दिया जाए, ताकि वे समय सगाई स्थल पर पहुँच सकें। इतनी सारी समस्याओं के बीच यही सबसे अच्छा समाधान था। उनके साथ एक चाचाजी और जागृति का भाई भी ट्रेन में पुणे पहुँच गए। 

चार दिन की निरंतर बिना सोए की गई यात्रा की भयंकर थकान के बाद पुणे पहुँच जाना उनके लिए किसी उपलब्धि से कम नहीं था। एक सामुदायिक भवन में ठहरने की व्यवस्था थी। वहाँ जागृति की मौसी जी ने उनके खाने पीने का बंदोबस्त भी कर दिया था। उन चारों ने नहा कर फ़्रेश महसूस किया। जागृति के ससुराल वालों से संपर्क करके उन्हें आश्वस्त किया कि दुल्हन पुणे पहुँच गई है और शाम को सगाई की रस्म के लिए गुरू दरबार में समय पर आ जाएगी। 


दुल्हन के पास झपकी लेने तक का समय नहीं था। अतः वह बाक़ी सबको छोड़ कर अपनी मौसी जी के साथ पहले से ही तय किए गए ब्यूटी पार्लर में तैयार होने के लिए चली गई। लेकिन मुसीबतों ने अभी पीछा नहीं छोड़ा था। वहाँ पहुँच कर देखा क्या कि पार्लर तो बंद था! पता  चला कि पार्लर वाली के परिवार में कोई घटना हो गई है और वह पार्लर नहीं खोल पाएगी। 

दुल्हन के मेकअप के लिए पच्चीस साल पहले भी पार्लर का ही सहारा हुआ करता था। मौसी जी ने पी सी ओ से इधर-उधर अपने जान पहचान वालों को कुछ फ़ोन किए और उन्हें स्थिति बताई, थोड़ी मशक़्क़त के बाद एक नौसिखिया पार्लर वाली ने जागृति को तैयार करने की ज़िम्मेदारी उठा ली।

 लेकिन इस बीच, इतनी समस्याओं से जूझकर जागृति अब रूआंसी हो गई थी। उसका मन कर रहा था कि कहीं रूक कर किसी के कंधे पर सिर रखकर रोकर मन हल्का कर ले! लेकिन रूकने जितना तो क्या आंसू बहाने जितना भी समय न था। 

उसे ओम की हिदायत याद आ रही थी कि शाम को आठ बजे दरबार बंद होता है, उस से पहले सगाई की रस्म पूरी करनी होगी। ओम उसके होने वाले पति का नाम है। 

पहले ही शाम के पाँच बज रहे थे। यदि तैयार होने और दरबार तक पहुँचने का समय गिनें तो वैसे ही बहुत देर हो चुकी थी। वह तुरंत तैयार होने चल दी। दो घंटे में वह तैयार हो गई। अब मौसीजी की बारी थी तैयार होने की क्योंकि वहाँ से सीधे सगाई स्थल पर जाना तय था। 

उधर सात बजते ही दरबार के महराज जी यानि पंडित जी ग़ुस्सा होने लगे कि “इतनी देर हो चुकी है, दुल्हन अब तक नहीं आई है! अब 15 मिनट में नहीं पहुँची तो मैं दरबार बंद करके चला जाऊँगा, फिर तुम लोग जाने और तुम्हारा काम जाने! मेरे समय की थोड़ी तो क़दर करो! तुम लोगों को मैंने पहले ही बता दिया था कि….” महराज की धमकी सुनकर ओम और उसके परिवार वालों पर बेहद बुरी बीत रही थी। लेकिन 16 जुलाई की उस शाम को, जागृति की मम्मी और अन्य सदस्य भी मौजूद थे, अत: वे भी महराज को शांत करने की कोशिश कर रहे थे। उस ज़माने में मोबाइल फ़ोन तो थे नहीं कि पल पल की खबर मिल सके। 

ठीक आठ बजे जागृति ने दरबार में प्रवेश किया। महाराज ने ग़ुस्से वाले खरे खोटे बोल उसे भी सुनाए। जागृति ने समस्याओं की फ़ेहरिस्त में इसे भी शामिल कर लिया और मुस्कुराते हुए महराज के आगे हाथ जोड़ दिए। महराज ने कुछ मंत्र पढ़े फिर दूल्हा दुल्हन को अँगूठियाँ पहनवाई, फिर माला पहनवाई। शगुन का आदान-प्रदान करवाया, बड़ों के पैर छूने की रस्म हुई और सबको मिठाई खिलाई। झटपट झटपट 20 मिनट में यह सारा कार्यक्रम संपन्न हो गया। महराज ने सबको दरबार से बाहर निकाल कर दरबार का द्वार बंद कर दिया। 

इस तरह जागृति और ओम की सगाई सम्पन्न हुई! 

क्रमशः 

पूजा अनिल

सोमवार, 15 जुलाई 2024

कारगिल युद्ध और जागृति की शादी

 

अध्याय १- 15 जुलाई 1999 - विवाह के पहले फ़ंक्शन में जागृति की अनुपस्थिति 

ठीक पच्चीस साल पहले यानी साल 1999 और महीना जुलाई का। जम्मू कश्मीर के कारगिल क्षेत्र में युद्ध चल रहा था। पाकिस्तान ने भारतीय सीमा में घुसपैठ करके भारत में युद्ध की परिस्थिति पैदा कर दी थी। 3 मई 1999 से आरम्भ हुआ यह युद्ध जुलाई 1999 में अपने चरम पर था। पूरे देश के समाचारों में इस युद्ध की चर्चा हो रही थी। चारों तरफ़ टाइट सिक्योरिटी रहने लगी थी। भारत की तीनों सेनाओं ने एकजुट होकर इस युद्ध में भागीदारी की। भारतीय सेना के जवानों ने हार न मानने का प्रण ले रखा था। वे जी जान लगा कर देश की रक्षा में जुटे हुए थे। 

ऐसे भयानक युद्ध के माहौल में एक और घटना घट रही थी। और वो यह कि जागृति की शादी होने वाली थी। जिस तरह युद्ध टाला नहीं जा सकता था, ठीक उसी तरह जागृति की शादी भी टाली नहीं जा सकती थी। जागृति के घर के सामने ही सैनिक छावनी थी। वहाँ होने वाली रोज़ की सैन्य गतिविधियों से इतना तो स्पष्ट था कि स्थिति गंभीर है। इधर जागृति के घर में भी शादी की तैयारी ज़ोर शोर से चलती रही। यानि जागृति के विवाह के प्रति भी पूरी गंभीरता थी। 

12 जुलाई 1999 को राजस्थान राज्य के उदयपुर शहर से जागृति अपने परिवार के साथ सड़क यात्रा द्वारा एक मिनीबस में पुणे की तरफ़ निकल गई। पुणे में भी सैन्य छावनी है। वहाँ भी कमोबेश उदयपुर जैसी ही स्थिति थी। ख़ैर… राम राम करके यात्रा आरम्भ हो चुकी थी और 12 जुलाई की रात गुजरात राज्य के बड़ौदा शहर में गुज़ार कर अगली सुबह तड़के वहाँ से आगे की यात्रा तय करनी थी। किन्तु बड़ौदा में जागृति की चाची के मायके में रात्रि भोजन के दौरान हुई बातचीत में उन्होंने बताया कि बड़ौदा में भी सैन्य छावनी है और कारगिल युद्ध के तनाव के कारण किसी भी समय शहर बंद करने की सूचना दी गई थी। अतः शहर की सीमा पर आवाजाही की रोक लगने से पहले ही वहाँ से चल देना चाहिए।  इस अंदेशे को अनदेखा नहीं किया जा सकता था। सो भोजन के पश्चात् तुरंत पुणे की तरफ़ चल दिए। 
जैसे जैसे आगे बढ़ रहे थे, वैसे वैसे शहर की सीमा, राज्य की सीमा… बंद किए जाने की बात सुनाई दे रही थी। हाई एलर्ट जारी होने की संभावना थी, कहीं रूकने का प्रश्न ही नहीं था। गाड़ी चालक भी थक चुका था लेकिन रूकने जैसी स्थिति न होने के कारण बिचारे ने गाड़ी चलाने का जोखिम उठाया। 
लेकिन ज़रा सोचिए, आज से 25 वर्ष पहले सड़क मार्ग द्वारा यात्रा करना, वो भी लगभग 1000 किलोमीटर दूर की यात्रा, उस पर मानसून का मौसम और युद्ध का माहौल, आप समझ सकते हैं कि कितनी कठिनाई भरी यात्रा रही होगी! कहीं रूकने का ठिकाना नहीं था। साथ ले ज़ाया गया भोजन बड़ा सहारा था। समस्या वाशरूम की भी थी। तेज बारिश में कहीं रूकने की जगह ही नहीं दिखती थी। ऐसे में एक अच्छी बात यह हुई कि गुजरात की सीमा पार हो गई और अब महाराष्ट्र की सीमा में प्रवेश कर लिया था। कम से कम सीमा पर रोक लेने का भय समाप्त हो गया था। 
15 जुलाई को बहराणा (विशेष विधि से झूलेलाल भगवान को समर्पित भजन पूजन) में भाग लेने के लिए जागृति के परिवार को 14 जुलाई को पुणे पहुँच जाना था। जागृति के ससुराल पक्ष ने यह साझा आयोजन किया था। लेकिन हाय री क़िस्मत! दो दिन पहले से ही ऐसा मदमस्त होकर मानसून बरसा कि बंबई (अब मुम्बई) - पुणे मार्ग, लैंडस्लाइड के कारण बंद हो गया। पुणे तो दूर, वे लोग पुणे के सबर्ब में भी प्रवेश न कर पाए। 14 के साथ 15 जुलाई भी बीत गई! जागृति के परिवार में युद्ध के जैसा भयंकर तनाव फैल गया था। और जागृति के ससुराल में डबल तनाव कि जागृति के परिवार के लोग बहराणा में आए ही नहीं, कहीं दुल्हन को इस विवाह से इनकार तो नहीं!! बहराणे में आने वाले मेहमान भी कम नहीं थे… वे जागृति के ससुराल वालों से ऐसे ऐसे सवाल कर रहे थे मानो जागृति और उसके परिवार की अनुपस्थिति के लिए जागृति के ससुराल वाले ही ज़िम्मेदार हों! ससुराल वाले भी जागृति की अनुपस्थिति से हैरान परेशान थे ही। लेकिन किसी तरह सब्र रखे हुए थे। 
ग़ज़ब तनावपूर्ण स्थिति थी, जिसमें न कोई ओर छोर दिखता था और न ही मिलन की कोई डोर! 
एक तरफ़ नॉन स्टॉप बरसात, दूसरी तरफ़ फुल्ली स्टॉपड ट्रैफ़िक, तीसरी तरफ़ लैंड स्लाइड और चौथी तरफ़ कारगिल युद्ध। ऐसा चौतरफ़ा हमला जागृति के विवाह में ही होना था!!! करें तो क्या करें? विवाह स्थल तक जाएँ तो कैसे जाएँ? प्रथम दिवस के वैवाहिक उत्सव में तो सम्मिलित न हो पाए लेकिन 16 जुलाई को सगाई की रस्म होनी थी, यह रस्म दुल्हन के बिना नहीं हो सकती, यदि तब तक भी नहीं पहुँचे तो क्या होगा? ऐसी मुश्किल घड़ी में केवल ईश्वर का ही सहारा था। जागृति के परिवार के सब लोग अपने अपने तरीक़े से ईश्वर से प्रार्थना करने लगे कि “राम तू, महान तू, आई बला को टाल तू, मुश्किल घड़ी से निकाल तू!” जो प्रार्थना बहराणे में की जाती, वे प्रार्थना के स्वर उस मिनी बस में गूंज रहे थे। 
-पूजा अनिल 

रविवार, 7 जुलाई 2024

बेटी से गुलज़ार है घर

 एक गुलाबी कमरा 

सूनेपन की दहलीज़ पर खड़ा, 

गिनता था दिन और घड़ियाँ, 

सूँझता था आती जाती परछाईयाँ, 

सुनता रहता था, 

घर में पसरी ख़ामोश उदासियाँ, 

कहीं कोई हँसी सुनाई देती तो, 

भर जाता उम्मीद से, 

कि अब वो दिन दूर नहीं, 

जब बिस्तर पर सीधी सपाट बिछी चादर पर 

सिलवटों का रूआब होगा, 

बिखरे होंगे कपड़े, किताबें और 

बिखरेगी सतरंगी मुस्कुराहट। 

एक गुलाबी कमरा, 

प्रतीक्षा के अंतिम छोर पर टिका, 

लाल पर्दे के पीछे अपनी सिसक छुपाकर, 

करता है स्वागत चमकीली धूप का, 

खोलता है खिड़की के पल्ले, 

ताज़ा हवा के झोंके से 

करता है गुदगुदी अठखेलियाँ, 

घर भर में गूंजती चहक से जान गया है, 

कि बेटी घर लौट आई है, 

घर के साथ ही साथ 

एक गुलाबी कमरा भी गुलज़ार हो गया है। 

-पूजा अनिल