रेत के कणों सी
बेबस उड़ रही है।
ज़िन्दगी है कि वाष्प है?
महसूस कर भी लो तो
हाथ आती नहीं है!
मन जल रहा है,
उन सब के दुःख से,
जो चले गए यहाँ से दूर
किन्तु
वे इस धरती के मेहमान थे।
देखो न,
धरती ने अपना वादा निभाया है,
उनको दी है
जगह
अपने विस्तृत सीने पर।
जहाँ सर रख कर सोना
सबसे आरामदेह लगता है
अनुभूति में वो माँ का साया लगता है।
2.
सुनिश्चित है जीवन अवधि,
बीत जाने की कला सीख लेनी चाहिये।
2.
सुनिश्चित है जीवन अवधि,
बीत जाने की कला सीख लेनी चाहिये।
लेकिन, मन कैसे माने?
यह क्या जन्मों से ही नादान है?
बीत जाने का अर्थ न कभी समझ पाया है न समझेगा।
और समझे भी तो क्यों समझे?
इसकी मंशा तो सदैव यही रहेगी न,
रेत का कण उड़ जाए लेकिन बीतने न पाए,
दीवार में चुन जाए लेकिन बीतने न पाए,
किसी रेत के टीले पर से उड़कर
अन्य किसी टीले पर पहुँच जाए,
लेकिन
बीतने न पाए!
कितना खारापन घुल गया है हवा में,
ज़िन्दगी है कि बादल है, बरसती ही जा रही है!
-पूजानिल
जिन्दगी के निभिन्न पहलुओ को दर्शाती सुन्दर रचना।
जवाब देंहटाएंAaj ka Sach baya ho gaya
जवाब देंहटाएंबढ़िया कविताएं
जवाब देंहटाएंhttps://designerdeekeshsahu.blogspot.com/?m=1
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