कितना लाचार महसूसती होगी
न यह पृथ्वी!
कैसे हर सांस निशब्द रोती होगी!
बीज की जगह
बेजान देहों से
भरी जा रही है इसकी मिट्टी,
मासूम किलकारियों की जगह
करुण क्रंदन से
गूँज रही है हर एक वादी।
मन करता है कि मैं
बन जाऊँ आकाश,
अपने बड़े से आलिंगन में
समेट लूँ सम्पूर्ण पृथ्वी का दुख,
धरती के मौन से पहचान लूँ
आंसुओं का गीलापन।
मैं जानती हूँ
धरती का रुदन सुनने के लिए
ओस बनना होगा!
-पूजानिल