कितना लाचार महसूसती होगी
न यह पृथ्वी!
कैसे हर सांस निशब्द रोती होगी!
बीज की जगह
बेजान देहों से
भरी जा रही है इसकी मिट्टी,
मासूम किलकारियों की जगह
करुण क्रंदन से
गूँज रही है हर एक वादी।
मन करता है कि मैं
बन जाऊँ आकाश,
अपने बड़े से आलिंगन में
समेट लूँ सम्पूर्ण पृथ्वी का दुख,
धरती के मौन से पहचान लूँ
आंसुओं का गीलापन।
मैं जानती हूँ
धरती का रुदन सुनने के लिए
ओस बनना होगा!
-पूजानिल
आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल बुधवार (06-05-2020) को "शराब पीयेगा तो ही जीयेगा इंडिया" (चर्चा अंक-3893) पर भी होगी। --
जवाब देंहटाएंसूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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आप सब लोग अपने और अपनों के लिए घर में ही रहें।
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
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सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
धन्यवाद शास्त्री जी।
हटाएंअच्छी कविता
जवाब देंहटाएंधन्यवाद बहुत अरुण जी।
हटाएंसुंदर
जवाब देंहटाएंधन्यवाद बहुत पावन जी।
हटाएंबहुत भावपूर्ण.
जवाब देंहटाएंपसंद करने के लिए धन्यवाद बहुत जेन्नी शबनम जी।
हटाएंबहुत प्रभावी ...
जवाब देंहटाएंपर इसके लिए भी इंसान ही ज़िम्मेवार है ... ये धरती आकाश भी क्या क्या करे ...
यह बात सही है। इंसान ने इतना अधिक दोहन किया पृथ्वी का कि अब पृथ्वी भी त्रस्त हो गई है।
हटाएंधन्यवाद बहुत दिगंबर जी।
Nice
जवाब देंहटाएंधन्यवाद बहुत।
हटाएंबहुत सुंदर अभिव्यक्ति
जवाब देंहटाएंपसंद करने के लिए धन्यवाद बहुत अनिता सैनी जी।
हटाएंhttps://jeevanrrag.blogspot.com/
जवाब देंहटाएंसुंदर भावात्मक सृजन।
जवाब देंहटाएंपसंद करने के लिए धन्यवाद बहुत मन की वीणा जी।
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