घनघोर अंधेरे में
खो सी गयी थी कहीं ,
बैचेन आँखे
थक कर
सो ही गयीं थी यहीं .
राह सूझती ना थी कोई ,
सफर का साथी नहीं कोई .
अकेले कहाँ तक ले जाती
ये हमदर्द राहें !!!
तभी नज़र आई
इक
किरण उजाले की ,
उसे थाम लेने की देर थी बस....
पर,
इंतज़ार ,
किसी और को
था मेरा ,
मेरे गुजर जाने की देर थी बस ....
छंट गया सारा
अँधेरा !!!
बुधवार, 29 जुलाई 2009
सोमवार, 20 जुलाई 2009
मन को गुरु बनायें
गुरु की महिमा को हमारे शास्त्रों में खूब बखाना गया है, इस सन्दर्भ में एक दोहा याद आ रहा है,
गुरु गोविन्द दोनों खड़े, काके लागूँ पाय,
बलिहारी गुरु आपने, गोविन्द दियो बताय।
तात्पर्य यह कि इस दुनिया में गुरु ही हैं जो ईश्वर तक पहुँचने के लिए भी हमारा मार्ग प्रशस्त कर सकते हैं।
शैशव काल में माता पिता बच्चे के प्रथम गुरु होते हैं। बच्चा उनसे ना सिर्फ पोषण और संरक्षण पाता है बल्कि उन्ही से प्रारम्भिक ज्ञान सीखता भी है। थोडा बड़ा होने पर बाल्यावस्था में, किशोरावस्था में विद्यालय के शिक्षक उसके गुरु बन कर बहुत सी महत्वपूर्ण बातों का ज्ञान उसे देते हैं। और इन सबके अलावा व्यक्ति आध्यात्मिक गुरु की भी खोज करता है, जो उसके आध्यात्मिक जीवन के साथ साथ व्यवहारिक जीवन के सवालों को भी सुलझा पाने में सक्षम हो।
हम माता पिता के रूप में, शिक्षक के रूप में अथवा साधू -संत के रूप में हमेशा गुरु की खोज में रहते हैं, क्योंकि सीखने का क्रम निरंतर जीवन के समानांतर चलता रहता है , किन्तु ना जाने क्यों, अपने ही मन को हम नहीं देख पाते??? मन की शक्ति से कोई अनजान नहीं है, यह हमारे मन की सोच ही है जो कालांतर में सच बन कर सामने आती है। फिर क्यों कभी हम अपने ही मन को गुरु रूप में नहीं देख पाते??? क्या हमारा मन हमें कोई सवाल पूछने पर उसका जवाब नहीं देता? क्या हम उस पर पूर्ण विश्वास नहीं करते? इन सारे सवालों के जवाब खोजने जायेंगे तो यही जवाब मिलेगा कि मन हमेशा हमारी सभी शंकाओं का समाधान करता है, किन्तु हम ही उसकी आवाज़ नहीं सुनते...!!!
साथियों, आपने भी महसूस किया होगा कि जब हम किसी वस्तु, परिस्थिति या किसी बात पर एकाग्रचित्त होकर सोचते हैं तो हमारा मन मदद के लिए स्वयं प्रस्तुत हो जाता है, वो इसलिए कि उसे ज्ञात है कि अब आप उसकी शरण में हैं, और हमारा मन भी किसी बड़े उदारचित्त गुरु की भांति उसकी शरण में जाने पर निराश नहीं करता। कभी थोडा सा समय निकाल कर अपने ही मन को गुरु समान जान कर उस से दो घडी आदर एवं प्रेमपूर्वक बातें करके देखिये, आपको अपनी कितनी ही मुश्किल लगती समस्याओं का हल आसानी से प्राप्त होगा. इसके साथ साथ भटकते विचारों को शान्ति और एक सच्चा दोस्त मिलेगा ।
(यहाँ पर हम अपने मन को गुरु की तरह सम्मान देने एवं उस पर विश्वास करने की बात कर रहे हैं , किन्तु इसका यह अर्थ कदापि नहीं है कि हम आपके किसी भी गुरु के सम्मान को ठेस पहुचना चाहते हैं, हमारे भी धार्मिक गुरु हैं, और उन्ही की तरह हम सभी के गुरुओं को पूज्य मानते हैं, अतः हमारे इस लेख को व्यक्तित्व निर्माण के संदर्भ में ही देखा जाये)।
गुरु गोविन्द दोनों खड़े, काके लागूँ पाय,
बलिहारी गुरु आपने, गोविन्द दियो बताय।
तात्पर्य यह कि इस दुनिया में गुरु ही हैं जो ईश्वर तक पहुँचने के लिए भी हमारा मार्ग प्रशस्त कर सकते हैं।
शैशव काल में माता पिता बच्चे के प्रथम गुरु होते हैं। बच्चा उनसे ना सिर्फ पोषण और संरक्षण पाता है बल्कि उन्ही से प्रारम्भिक ज्ञान सीखता भी है। थोडा बड़ा होने पर बाल्यावस्था में, किशोरावस्था में विद्यालय के शिक्षक उसके गुरु बन कर बहुत सी महत्वपूर्ण बातों का ज्ञान उसे देते हैं। और इन सबके अलावा व्यक्ति आध्यात्मिक गुरु की भी खोज करता है, जो उसके आध्यात्मिक जीवन के साथ साथ व्यवहारिक जीवन के सवालों को भी सुलझा पाने में सक्षम हो।
हम माता पिता के रूप में, शिक्षक के रूप में अथवा साधू -संत के रूप में हमेशा गुरु की खोज में रहते हैं, क्योंकि सीखने का क्रम निरंतर जीवन के समानांतर चलता रहता है , किन्तु ना जाने क्यों, अपने ही मन को हम नहीं देख पाते??? मन की शक्ति से कोई अनजान नहीं है, यह हमारे मन की सोच ही है जो कालांतर में सच बन कर सामने आती है। फिर क्यों कभी हम अपने ही मन को गुरु रूप में नहीं देख पाते??? क्या हमारा मन हमें कोई सवाल पूछने पर उसका जवाब नहीं देता? क्या हम उस पर पूर्ण विश्वास नहीं करते? इन सारे सवालों के जवाब खोजने जायेंगे तो यही जवाब मिलेगा कि मन हमेशा हमारी सभी शंकाओं का समाधान करता है, किन्तु हम ही उसकी आवाज़ नहीं सुनते...!!!
साथियों, आपने भी महसूस किया होगा कि जब हम किसी वस्तु, परिस्थिति या किसी बात पर एकाग्रचित्त होकर सोचते हैं तो हमारा मन मदद के लिए स्वयं प्रस्तुत हो जाता है, वो इसलिए कि उसे ज्ञात है कि अब आप उसकी शरण में हैं, और हमारा मन भी किसी बड़े उदारचित्त गुरु की भांति उसकी शरण में जाने पर निराश नहीं करता। कभी थोडा सा समय निकाल कर अपने ही मन को गुरु समान जान कर उस से दो घडी आदर एवं प्रेमपूर्वक बातें करके देखिये, आपको अपनी कितनी ही मुश्किल लगती समस्याओं का हल आसानी से प्राप्त होगा. इसके साथ साथ भटकते विचारों को शान्ति और एक सच्चा दोस्त मिलेगा ।
(यहाँ पर हम अपने मन को गुरु की तरह सम्मान देने एवं उस पर विश्वास करने की बात कर रहे हैं , किन्तु इसका यह अर्थ कदापि नहीं है कि हम आपके किसी भी गुरु के सम्मान को ठेस पहुचना चाहते हैं, हमारे भी धार्मिक गुरु हैं, और उन्ही की तरह हम सभी के गुरुओं को पूज्य मानते हैं, अतः हमारे इस लेख को व्यक्तित्व निर्माण के संदर्भ में ही देखा जाये)।
बुधवार, 15 जुलाई 2009
आकर शब्द को जोड़ दे
कभी कभी अतीत में झांकना, सुखद स्मृतियों का खुशगवार झोंका साबित होता है. और उस पर यदि कोई मीठी सी कविता हो और उसमें अपने ही दोस्तों का जिक्र हो तो सोने पर सुहागा.
ऐसे ही अपनी पुरानी डायरी के पन्ने पलटते हुए एक कविता ने आवाज़ दी, हम भी उसकी आवाज़ अनसुनी नहीं कर पाए और चल दिये उसकी ओर, लिया हाथ में और लगे गुनगुनाने और बस यूँ ही गुनगुनाते हुए आप सब के साथ बांटने का मन किया तो ले आये उसे "एक बूँद" पर . आप सब भी आमंत्रित हैं इस तनाव रहित, गुनगुनी कविता को हमारे साथ साथ गुनगुनाने के लिये .
लेकिन इस से पहले आइये इसके सृजन का कारण जान लेते हैं :). एक गर्मी की दोपहर में जब धूप अपने पूरे निखार पर थी, हमारे ऑफिस के कुछ साथी लंच टाइम में हमारे टेबल पर आ जुटे और लगे बतियाने,(आप सब के साथ भी ऐसी घडियां कभी न कभी जरूर आती होंगी :)). तब सबकी बातें और उस कवितामय माहौल से हमने कुछ शब्द उठा लिये और थोडा सजा संवार कर एक कविता का रूप दे डाला. बहुत समय तक यह कविता हमारी डायरी में कैद रही, आज आजाद होकर आप सबके सामने प्रस्तुत है. भई, हमने तो बहुत बातें कर ली, अब आइये देखते हैं, यह कविता क्या कहती है..............???
सूरज सिर पर चमक रहा,
तू यहाँ वहाँ क्यूँ भटक रहा?
घडी में बज गए पूरे दो,
अब तो उसको जाने दो.
कल फिर वापस आना है,
सारा काम संभालना है.
कामों का है ढेर बड़ा ,
देखे क्या तू खडा खडा?
आकर शब्द को जोड़ दे,
या फिर पंक्ति तोड़ दे.
पंक्ति ख़त्म न हुई अभी,
टेड़े मेढे दांत सभी.
दांत में फंसी मछली,
निगली जाए ना उगली.
उगला चुगलखोर ने,
टेर लगाई मोर ने.
मोर ने देखे बादल,
नाच उठा वो पागल.
पागल ने घूँघरू बांधे,
ताली बजाये राधे.
राधे खाता है दही,
खाना अकेले नहीं सही.
दो चार को ले लो साथ,
सभी बटायेंगे फिर हाथ.
हाथ से हाथ जो मिल जाता,
सारा काम सुलझ जाता.
ऐसे ही अपनी पुरानी डायरी के पन्ने पलटते हुए एक कविता ने आवाज़ दी, हम भी उसकी आवाज़ अनसुनी नहीं कर पाए और चल दिये उसकी ओर, लिया हाथ में और लगे गुनगुनाने और बस यूँ ही गुनगुनाते हुए आप सब के साथ बांटने का मन किया तो ले आये उसे "एक बूँद" पर . आप सब भी आमंत्रित हैं इस तनाव रहित, गुनगुनी कविता को हमारे साथ साथ गुनगुनाने के लिये .
लेकिन इस से पहले आइये इसके सृजन का कारण जान लेते हैं :). एक गर्मी की दोपहर में जब धूप अपने पूरे निखार पर थी, हमारे ऑफिस के कुछ साथी लंच टाइम में हमारे टेबल पर आ जुटे और लगे बतियाने,(आप सब के साथ भी ऐसी घडियां कभी न कभी जरूर आती होंगी :)). तब सबकी बातें और उस कवितामय माहौल से हमने कुछ शब्द उठा लिये और थोडा सजा संवार कर एक कविता का रूप दे डाला. बहुत समय तक यह कविता हमारी डायरी में कैद रही, आज आजाद होकर आप सबके सामने प्रस्तुत है. भई, हमने तो बहुत बातें कर ली, अब आइये देखते हैं, यह कविता क्या कहती है..............???
सूरज सिर पर चमक रहा,
तू यहाँ वहाँ क्यूँ भटक रहा?
घडी में बज गए पूरे दो,
अब तो उसको जाने दो.
कल फिर वापस आना है,
सारा काम संभालना है.
कामों का है ढेर बड़ा ,
देखे क्या तू खडा खडा?
आकर शब्द को जोड़ दे,
या फिर पंक्ति तोड़ दे.
पंक्ति ख़त्म न हुई अभी,
टेड़े मेढे दांत सभी.
दांत में फंसी मछली,
निगली जाए ना उगली.
उगला चुगलखोर ने,
टेर लगाई मोर ने.
मोर ने देखे बादल,
नाच उठा वो पागल.
पागल ने घूँघरू बांधे,
ताली बजाये राधे.
राधे खाता है दही,
खाना अकेले नहीं सही.
दो चार को ले लो साथ,
सभी बटायेंगे फिर हाथ.
हाथ से हाथ जो मिल जाता,
सारा काम सुलझ जाता.
सोमवार, 6 जुलाई 2009
स्वार्थ..... अच्छा या बुरा???
कल हमारे एक मित्र से बातों बातों में बात निकल पड़ी कि स्वार्थ अच्छा होता है या बुरा? उनका कहना है कि स्वार्थ दो तरह का हो सकता है, अच्छा, जो कि जनहित में स्वार्थ हो, अथवा बुरा, जिसमें कोई लालच छिपा हो।
अब हमारा यह कहना है कि स्वार्थ सिर्फ स्वार्थ ही होता है, जिसका अर्थ ही - स्व अर्थ - अर्थात स्वयं के लिए - हो , तो उसके लिए बुरा अर्थ ही प्रस्तुत होता है। हाँ, दूसरों के लिए कुछ करने की भावना को अच्छी इच्छा में जरूर शामिल किया जा सकता है, किन्तु अच्छा स्वार्थ............ संभव नहीं लगता हमें ।
अब आप सभी सुधीजनों से इस पर विचार आमंत्रित हैं कि आप क्या सोचते हैं? क्या स्वार्थ अच्छा अथवा बुरा हो सकता है? स्वार्थ और इच्छाओं के दरमियान एक निश्चित दूरी होती है, क्या इन दोनों को एक साथ लेकर अच्छा स्वार्थ निर्मित होता है?
क्या स्वार्थ को दो भागों में बांटा जा सकता है....अच्छा और बुरा???
अब हमारा यह कहना है कि स्वार्थ सिर्फ स्वार्थ ही होता है, जिसका अर्थ ही - स्व अर्थ - अर्थात स्वयं के लिए - हो , तो उसके लिए बुरा अर्थ ही प्रस्तुत होता है। हाँ, दूसरों के लिए कुछ करने की भावना को अच्छी इच्छा में जरूर शामिल किया जा सकता है, किन्तु अच्छा स्वार्थ............ संभव नहीं लगता हमें ।
अब आप सभी सुधीजनों से इस पर विचार आमंत्रित हैं कि आप क्या सोचते हैं? क्या स्वार्थ अच्छा अथवा बुरा हो सकता है? स्वार्थ और इच्छाओं के दरमियान एक निश्चित दूरी होती है, क्या इन दोनों को एक साथ लेकर अच्छा स्वार्थ निर्मित होता है?
क्या स्वार्थ को दो भागों में बांटा जा सकता है....अच्छा और बुरा???
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