मेरे पिता का परिवार
बड़ा था सो साथ में छह चाचाजी और तीन बुआ जी
उपहार मिले, दूसरी तरफ माँ के परिवार से तीन मामाजी और तीन मौसीयाँ
भी उपहार में मिलीं।
माँ और पिताजी, दोनों ही अपने अपने
भाई बहनों में सबसे बड़े थे।
मैं आज बात करूँगी मुझे मिले एक अनमोल उपहार मेरे तीसरे नम्बर के
चाचाजी
यानी पिता के बाद चौथे नंबर के भाई, हम सब के प्रिय, मोहन भैया की।
जब हम छोटे थे, तब किसी ने चाचा की जगह भैया कहना सिखा दिया
था,
तब से मोहन भैया और उनसे छोटे तीन चाचाजी को हमने
हमेशा भैया कहकर ही
पुकारा। रिश्ता भी हमने सदैव उसी तरह
हमें गिफ़्ट या पैसा देते।
किस्मत से बचपन में
भरे पूरे संयुक्त परिवार
में रहने का अवसर मिला जो कि बाद में समय के साथ एकल
परिवार में बदल गया। लेकिन जो नहीं बदला, वह था
हमारा आपस का प्रेम। हम
चाहे कितना भी दूर रहे किन्तु
बचपन वाला प्रेमपूर्ण
, सौहार्द्र वाला व्यवहार सदा कायम रहा।
मुझसे सत्रह साल बड़े मोहन भैया बड़े ही मनमोहक दिखते थे,
मोहन नाम के अनुरूप ही मोह लेने वाली atyant सुन्दर सूरत और
सीरत पाई उन्होंने।
।जब भी उन्हें देखो तो वे मुस्कुराते हुए ही दिखते।
पढ़ने में बेहद मन
लगता था उनका तथा ईश्वर ने उन्हें कुशाग्र बुद्धि
पश्चात् उन्होंने सीधे दसवीं कक्षा की
परीक्षा दी थी। घर में हम सभी उनकी
प्रतिभा का लोहा मानते थे। उनकी हस्तलिपि
भी हमेशा अद्भुत सुंदर रही।
स्वभाव से वे जानकारी एकत्रित करने के शौकीन थे,
अत: सवाल खूब
पूछते थे। मुझे याद है
कि वे हमें भी पढ़ाई की तरफ प्रेरित करते they।
सम्पूर्ण परिवार में वे हर एक के चहेते तो थे ही,
उनकी सलाह प्रत्येक
कार्य हेतु ज़रूरी थी, साथ ही यदि किसी से दोस्ती करते तो बड़े ही
जतन और मन से दोस्ती भी निभाते थे। कभी
कोई नाराज़ हो जाए
तो बड़े प्यार से हंस कर मना लेते उसे। मिल बाँट कर हँसते
हँसते
सिर्फ
स्वयं कदम आगे बढ़ाते बल्कि दूसरों को भी प्रेरित करते।
मेहनती इतने कि दुकान
के कामकाज के अलावा प्रतिदिन समाज सेवा
के काम के लिये भी तन मन धन से जुटे
रहते। अपने परिवार के साथ
समय बिताने में भी पूरी लगन से आगे रहते। इतना काम
करने का
नतीजा यह होता था कि कभी कभी हम सबसे बात करते करते
ही उन्हें कहीं
भी नींद आ जाती थी, फिर अचानक से उठ बैठते
और पूछते कि जो बात चल रही थी,
उसका क्या हुआ!
उनकी इस भोली सी अदा पर हम सब हंस पड़ते थे।
घूमना फिरना,
पिकनिक, पारिवारिक भोज की व्यवस्था हो या
समाज में जुलूस का प्रबंध करना या
फिर अखबार में समाचार
देने की व्यवस्था करना हो, प्रत्येक कार्य को ऐसी
कुशलता मगर इतनी
सहजता से कर देते कि लगता यह केवल उनके ही बस की बात थी।
घर
परिवार में किसी को कोई समस्या आ जाए तो आधी रात उठकर
भी मदद करने को चल देते
थे। वे बच्चो के साथ बच्चा बन जाते और
बड़ी सरलता से उन्हें भी दोस्त बना
लेते। यहाँ तक कि वे जब स्वयं
नाना बने तो नन्हे से नाती को भी अपना दीवाना बना दिया।
हमारे लिए बड़े
ही आकर्षण का केंद्र बन गए। इतनी बड़ी टी वी लाए
वहाँ से कि उस ज़माने में
कभी हमने सोची भी न थी। हर तरफ उनकी
विदेश यात्रा की चर्चा होती और हम बड़ा गर्व
अनुभव करते कि ये
हमारे अपने मोहन भैया हैं।
जब हम बड़े हुए,
तो पिता जी की अनुपस्थिति में हम हर काम में
उनकी सलाह लेते। मेरी शादी में भी
उनका आशीर्वाद मिला। बाद में
मेरी ससुराल में फोन करके मेरा हाल चाल हमेशा लेते थे वे।
मेरे मेड्रिड आने के बाद भी मेरे निरंतर संपर्क में रहे मोहन भैया,
पत्र या ईमेल
भी लिखते थे।
जब मैं मद्रिद से उदयपुर लौटती तो ऐसी प्रसन्नता से वे सुबह शाम
मुझसे मिलने
माँ के घर आते थे, कि पिता की कमी महसूस न होने देते कभी।
मन ऐसा जुड़ा
था उनसे भावनात्मक स्तर पर कि पिता और
तब उन दिनों में भी, जब विदेश फोन करना बडा ही खर्चीला हुआ
करता
था तब भी एक पिता की तरह जिम्मेदारी निभाते हुए मुझसे फोन
पर बात करते रहते थे, और तब भी जब व्हाट्सएप्प जैसी सुविधा मिल
गई तो भी बात हुआ करती उनसे। संयोग से आखिरी बार अपने दुनिया से
कूच करने से एक दिन पहले
ही उन्होंने मुझसे बात की थी।
मेरे पिताजी को बहुत जल्दी ईश्वर ने अपने पास बुला लिया था।
2020 में माँ भी
वहीं चलीं गईं। और अब मोहन भैया भी अपने
भाई भाभी के संग हो लिये। गुरुवार 21
अप्रैल की शाम को मंदिर
में प्रणाम करने को नतमस्तक हुए तो वहीं ईश्वर को
समर्पित हो गए।
कि प्रभु को स्मरण करते हुए ही प्रभु से जा मिलें! इस विदा होने से
एक
दिन पहले ही उन्होंने मुझे कॉल किया था और पौन घंटा
क़रीब बात करते रहे। कह
रहे थे कि इलाज से अब आँख की रोशनी
लौट रही है तथा वे जल्दी ही आँखों के
डॉक्टर से मिलने दिल्ली जाएँगे।
तब यह पता भी न था कि वही उनसे अंतिम बातचीत
होगी।
अब उनकी राह में रोशनी ही रोशनी होगी, दुनिया के सर्वश्रेष्ठ
डॉक्टर के
पास जो पहुँच गये हैं मेरे प्यारे भैया। हमारे पास अब उनकी
अनन्त यादें बाकी
हैं, जिनके जरिये वे हमारे साथ हर पल बने रहेंगे।
मेरे सबसे छोटे चाचाजी ने बताया कि मोहन भैया की दृष्टि बाधित होने
के बाद
किसी दिन वे मंदिर जा रहे थे तो किसी ने उनसे कहा कि कुछ दिखता
तो है नहीं,
आप क्या करोगे मंदिर जाकर?
तब मोहन भैया ने बड़ी सहजता से
मुस्कुराकर जवाब
दिया कि, “ मैं नहीं देख सकता
मगर भगवान तो मुझे देख सकते हैं न!”
तो ऐसे थे
वे धुन के पक्के और दृढ़ विश्वास से भरपूर।
यह सब लिखते हुए बार बार आँसू उमड़ रहे हैं।
एक और बार, पिता से बिछड़ने का दुख झेल रही हूँ।
खूब याद कर रही है मोहन भैया!
कमोबेश मेरे जैसी ही स्थिति परिवार में सबकी है।
इतने अपने हो आप मोहन भैया कि
सदैव सदैव दिल में रहोगे।
-पूजानिल