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मंगलवार, 26 अप्रैल 2022

मेरे प्यारे मोहन भैया





जन्म लेते ही माता पिता, दादा दादी, नाना नानी इत्यादि परिवार के 
सदस्य इकट्ठे ही लगभग प्रत्येक बच्चे को उपहार स्वरूप मिल जाते हैं। 
मेरे पिता का परिवार बड़ा था सो साथ में छह चाचाजी और तीन बुआ जी ​ 
उपहार मिले, ​ दूसरी तरफ माँ के परिवार से तीन मामाजी और तीन मौसीयाँ 
भी उपहार में मिलीं। माँ और पिताजी, दोनों ही अपने अपने 
भाई बहनों में सबसे बड़े थे। 

मैं आज बात करूँगी मुझे मिले एक अनमोल उपहार मेरे तीसरे नम्बर के 
चाचाजी यानी पिता के बाद चौथे नंबर के भाई, हम सब के प्रिय​,​ मोहन भैया की। 
जब हम छोटे थे, तब किसी ने चाचा की जगह भैया कहना सिखा दिया था, 
तब से मोहन भैया और उनसे छोटे तीन चाचाजी को हमने 
हमेशा भैया कहकर ही पुकारा। रिश्ता भी हमने सदैव उसी तरह 
भाई बहन सरीखा निभाया। हम उन्हें राखी बांधते, वे ​ आशीर्वाद स्वरुप ​
हमें गिफ़्ट या पैसा देते। ​ किस्मत से​ बचपन में ​ भरे पूरे  ​संयुक्त परिवार 
में रहने का अवसर मिला जो कि बाद में समय के साथ एकल 
 परिवार में बदल गया। लेकिन जो नहीं बदला, वह था 
हमारा आपस का प्रेम। हम चाहे कितना भी दूर रहे किन्तु 
बचपन वाला प्रेमपूर्ण ​, सौहार्द्र वाला ​व्यवहार सदा कायम रहा। 

मुझसे सत्रह साल बड़े मोहन भैया बड़े ही मनमोहक दिखते थे,
 मोहन नाम के अनुरूप ही मोह लेने वाली atyant सुन्दर सूरत और 
सीरत पाई उन्होंने। ​।जब भी उन्हें देखो तो वे मुस्कुराते हुए ही दिखते।  
पढ़ने में बेहद मन लगता था उनका तथा ईश्वर ने उन्हें कुशाग्र बुद्धि 
प्रदान की थी। कहते हैं कि छठी कक्षा की परीक्षा उत्तीर्ण करने के 
पश्चात् उन्होंने सीधे दसवीं कक्षा की परीक्षा दी थी। घर में हम सभी उनकी 
प्रतिभा का लोहा मानते थे। उनकी हस्तलिपि भी हमेशा अद्भुत सुंदर रही। 
स्वभाव से वे जानकारी एकत्रित करने के शौकीन थे, अत: सवाल खूब 
पूछते थे। मुझे याद है ​ कि वे ​हमें भी पढ़ाई की तरफ प्रेरित करते they।

सम्पूर्ण परिवार में वे हर एक के चहेते तो थे ही, ​ उनकी सलाह प्रत्येक 
कार्य हेतु ज़रूरी थी, साथ ही यदि किसी से दोस्ती करते तो बड़े ही 
जतन और मन से दोस्ती भी निभाते थे। कभी कोई नाराज़ हो जाए 
तो बड़े प्यार से हंस कर मना लेते उसे। मिल बाँट कर हँसते हँसते 
ज़िंदगी जीने का हुनर सिखाते थे मोहन भैया। योग करने के लिए न 
सिर्फ स्वयं कदम आगे बढ़ाते बल्कि दूसरों को भी प्रेरित करते। 
मेहनती इतने कि दुकान के कामकाज के अलावा प्रतिदिन समाज सेवा 
के काम के लिये भी तन मन धन से जुटे रहते। अपने परिवार के साथ 
समय बिताने में भी पूरी लगन से आगे रहते। इतना काम करने का 
नतीजा यह होता था कि कभी कभी हम सबसे बात करते करते 
ही उन्हें कहीं भी नींद आ जाती थी, फिर अचानक से उठ बैठते 
और पूछते कि जो बात चल रही थी, उसका क्या हुआ! 
उनकी इस भोली सी अदा पर हम सब हंस पड़ते थे। 

उनके किस्से परिवार तक सीमित नहीं थे। व्यापार हो, बैंकिंग हो, 
घूमना फिरना, पिकनिक, पारिवारिक भोज की व्यवस्था हो या 
समाज में जुलूस का प्रबंध करना या फिर अखबार में समाचार 
देने की व्यवस्था करना हो, प्रत्येक कार्य को ऐसी कुशलता मगर इतनी 
सहजता से कर देते कि लगता यह केवल उनके ही बस की बात थी। 
घर परिवार में किसी को कोई समस्या आ जाए तो आधी रात उठकर 
भी मदद करने को चल देते थे। वे बच्चो के साथ बच्चा बन जाते और 
बड़ी सरलता से उन्हें भी दोस्त बना लेते। ​यहाँ तक कि ​​वे जब स्वयं 
​नाना बने तो नन्हे से नाती को भी अपना दीवाना बना दिया। ​

वे जब 80 के दशक में बिज़नेस ट्रिप से सिंगापुर घूमकर लौटे तो 
हमारे लिए बड़े ही आकर्षण का केंद्र बन गए। इतनी बड़ी टी वी लाए 
वहाँ से कि उस ज़माने में कभी हमने सोची भी न थी। ​हर तरफ उनकी 
विदेश यात्रा की चर्चा होती और हम बड़ा गर्व 
अनुभव करते कि ये हमारे अपने मोहन भैया हैं। ​

​जब ​हम बड़े हुए, ​तो ​पिता जी की अनुपस्थिति में हम हर काम में 
उनकी सलाह लेते। मेरी शादी में भी उनका आशीर्वाद मिला। बाद में ​ 
मेरी ससुराल में फोन करके ​मेरा हाल चाल हमेशा लेते थे वे।
मेरे​ ​मेड्रिड आने के बाद भी मेरे निरंतर संपर्क में रहे मोहन भैया,
पत्र या ईमेल ​ भी ​लिखते थे।

​जब मैं ​मद्रिद से उदयपुर लौटती तो ऐसी प्रसन्नता से वे सुबह शाम 
मुझसे मिलने माँ के घर आते थे, कि पिता की कमी महसूस न होने देते कभी। 
मन ऐसा जुड़ा था उनसे भावनात्मक स्तर पर कि पिता और 
बेटी जैसा ही संबंध अनुभव होता है मुझे। 

तब उन दिनों में भी, जब विदेश फोन करना बडा ही खर्चीला हुआ 
करता था ​तब भी एक ​पिता की तरह जिम्मेदारी निभाते हुए मुझसे फोन 
पर बात करते रहते थे, और तब भी जब व्हाट्सएप्प जैसी सुविधा मिल 
गई​ तो भी बात हुआ करती उनसे​। ​संयोग से आखिरी बार अपने दुनिया से  
कूच करने से एक दिन पहले ही उन्होंने मुझसे बात की थी। 

मेरे पिताजी को बहुत जल्दी ईश्वर ने अपने पास बुला लिया था। 
2020 में माँ भी वहीं चलीं गईं। और अब मोहन भैया भी अपने 
भाई भाभी के संग हो लिये। गुरुवार 21 अप्रैल की शाम को मंदिर 
में प्रणाम करने को नतमस्तक हुए तो वहीं ईश्वर को समर्पित हो गए। 
आत्मा का परमात्मा में विलीन होने का इस से अच्छा क्षण क्या होगा 
कि प्रभु को स्मरण करते हुए ही प्रभु से जा मिलें! इस विदा होने से 
एक दिन पहले ही उन्होंने मुझे कॉल किया था और पौन घंटा 
क़रीब बात करते रहे। कह रहे थे कि इलाज से अब आँख की रोशनी 
लौट रही है तथा वे जल्दी ही आँखों के डॉक्टर से मिलने दिल्ली जाएँगे। 
तब यह पता भी न था कि वही उनसे अंतिम बातचीत होगी। 
अब उनकी राह में रोशनी ही रोशनी होगी, दुनिया के सर्वश्रेष्ठ 
डॉक्टर के पास जो पहुँच गये हैं मेरे प्यारे भैया। हमारे पास अब उनकी 
अनन्त यादें बाकी हैं, जिनके जरिये वे हमारे साथ हर पल बने रहेंगे। 
हाँ, अपनी ढेर सारी जिज्ञासाओं के साथ वे अब वहाँ ईश्वर से खूब सवाल कर रहे होंगे। 

मेरे सबसे छोटे चाचाजी ने बताया कि मोहन भैया की दृष्टि बाधित होने 
के बाद किसी दिन वे मंदिर जा रहे थे तो किसी ने उनसे कहा कि कुछ दिखता 
तो है नहीं, आप क्या करोगे मंदिर जाकर? 
तब मोहन भैया ने बड़ी सहजता से 
मुस्कुराकर जवाब दिया कि, “ मैं नहीं देख सकता 
मगर भगवान तो मुझे देख सकते हैं न!” 
तो ऐसे थे वे धुन के पक्के और दृढ़ विश्वास से भरपूर। 

यह सब लिखते हुए ​बार बार ​आँसू उमड़ रहे हैं। 
एक और बार, पिता से बिछड़ने का दुख झेल रही हूँ। 
आपकी अपनी दो बेटियों के अलावा यह बेटी भी आपको 
खूब याद कर रही है मोहन भैया! 
मो​बेश मेरे जैसी ही स्थिति परिवार में सबकी है। 
इतने अपने हो आप मोहन भैया कि सदैव सदैव दिल में रहोगे। 
-पूजानिल​