sasmaran लेबलों वाले संदेश दिखाए जा रहे हैं. सभी संदेश दिखाएं
sasmaran लेबलों वाले संदेश दिखाए जा रहे हैं. सभी संदेश दिखाएं

शनिवार, 10 मई 2025

मधुमालती वाली खिड़की

 मेरी माँ के घर में किचन की खिड़की अपेक्षाकृत काफ़ी लम्बी (ऊँचाई में) थी इसलिए किचन के प्लेटफ़ॉर्म से भी थोड़ी नीचे तक जाती थी। (अब भी वैसी ही है।) उस खिड़की के पल्ले खोलकर आप सर बाहर निकाल कर देख सकते थे कि घर में कौन आया! जब माँ किचन में काम कर रही होती थी और हम सब लोग स्कूल, कॉलेज या फिर ऑफिस गए होते थे तब यदि कोई आए तो यह बड़ी ज़बरदस्त काम की खिड़की थी। एक पल में पता चल जाता था कि कौन आया है! कभी डाकिया, कभी पड़ोसनें, कभी लम्बे चौड़े परिवार के कोई सदस्य आ जाते थे तो माँ तुरंत देख लेती थी। उस खिड़की के बाहर लम्बे गलियारे के दायीं तरफ लोहे की मज़बूत जाली से बना हुआ मुख्य द्वार था। पता नहीं कैसे पापा को सिल्वर रंग पसंद आ गया था तो वह लोहे का दरवाजा सिल्वर कलर का रखा गया। तेज भड़कीले रंगों के बीच वह शांत चांदी का रंग बेहद आकर्षक लगता था। उसी दरवाज़े से सबका आवागमन होता था, आने वाले कुंडी ठोंक कर या ज़ोर से  आवाज़ देकर अपने आने की सूचना देते थे। माँ भी आवाज़ देकर कहती कि अभी आ रहीं दरवाज़ा खोलने। (आजकल ऐसे दृश्य गायब होते जा रहे हैं, आजकल घर चारदीवारी में बंद रहते हैं और विडियो कैमरा से आप देख लेते हैं कि कौन आया है, घंटी बजा दीजिए, दरवाजा खोल दीजिए, आवाज़ देने की ज़रूरत ही नहीं रही अब)

फिर से किचन की खिड़की की तरफ चलते हैं। उसी खिड़की के बाहर ठीक नीचे की कच्ची जमीन पर एक छोटी सी क्यारी भी बनी हुई थी। उसमें समय समय पर अलग-अलग पौधे उगाए जाते थे। जैसे करेले की बेल, टमाटर के पौधे, भिंडी या बैंगन के पौधे, तुलसी और अनार भी। ये सब एक साथ नहीं उगते थे, हम कभी कोई और कभी कोई पौधा उगाते थे। लेकिन इन सबके साथ एक बेल हमेशा उगी रही, वह थी मधु-मालती की बेल। यह बेल झूमती झूलती एक बार जो ऊपर उठना शुरू हुई तो फिर बढ़ती ही चली गई और बढ़ते बढ़ते छत तक जा पहुँची। पापा ने बेल को छत पर सहारा देकर बांध दिया तो  वह बेल किचन की खिड़की के बाहर छज्जे के समान फैल गई। अब जब भी उस पर फूल आते तो पूरी बेल गुलाबी लाल फूलों के गुच्छों से भर जाती और किचन के भीतर से एवं बाहर से खिले फूलों का ऐसा सुंदर नजारा दिखाई देता कि जिस पर से दृष्टि ही न हटती थी। मुझे फूलों से बेहद लगाव है, तो मैं छत पर जाकर भी उन फूलों को देखकर प्रसन्न होती थी। और जब फूल खिल कर बिखरने लगते तब पूरा गलियारा और छत उन्हीं फूलों से भर जाते थे। इन्हें देखकर महसूस होता कि डाल पर से टूटे फूल भी बड़े लुभावने लगते हैं। इन खिले फूलों पर तितली, मधुमक्खी, कीड़े मकोड़े और तरह-तरह की चिड़ियों का दिन भर आना जाना लगा रहता था। चिड़ियों की चहचहाहट से गुंजार होता था माँ का किचन।

छत के सामने नेशनल हाईवे गुजरता था और हाइवे से ठीक जुड़ी हुई शांति काल की सैन्य छावनी थी। हरे भरे ऊँचे पेड़ों से घिरी हुई बंद जगह, जहाँ से भीतर कुछ नहीं दिखता था। कभी कभार आते जाते सैनिक दिख जाते थे। गेट के बाहर दो सिपाही पहरे पर खड़े रहते थे! जब भी कोई महत्वपूर्ण घटना होती तो छावनी के पास आर्मी की गाड़ियों की आवाजाही बढ़ जाती थी। हम केवल दूर से ही देखा करते थे। जिज्ञासा हुआ करती थी लेकिन संयम रखते थे, जब तक समाचारों से न पता चले तब तक हम प्रतीक्षा करते थे कि क्या हुआ होगा! बहुत बार ऐसा भी हुआ कि पता ही न चला कि क्या हुआ था!! सेना अपने तौर तरीक़े से काम करती है,  हमारी और उनकी सुरक्षा के लिए बहुत कुछ गुप्त रखना आवश्यक होता है। यह हम सभी समझते हैं और इस नियम का पालन भी करते हैं। सोशल मीडिया पर भी इसका पालन किया जाना चाहिए। इसलिए सेना से संबंधित कोई जानकारी साझा न करें।जो कुछ बताना होगा वो सेना के अधिकारी स्वयं साझा करेंगे। 

जब जब माँ की खिड़की के बाहर वाले मधुमालती के वे सुंदर खिले फूल याद करती हूँ तब तब ईश्वर से प्रार्थना करती हूँ कि हमारे सैनिक भी खिले रहें, खुश रहें, देश में शांति रहे, कभी युद्ध जैसी स्थिति न बने और हमारी सेना सुरक्षित रहे ताकि देश सुरक्षित रहे।

पूजा अनिल

रविवार, 1 मई 2022

माँ के लिए पत्र

 



मेरी मम्मा को समर्पित 

माँ से सीखने का क्रम तो ताउम्र चलता रहता है।  कभी रसोई में खाना बनाने का तरीका तो कभी घर में साज सज्जा का सलीका, कभी रिश्तेदारी निभाने का शिष्टाचार तो कभी सामाजिक कर्त्तव्य पूर्ण करने का परिष्कार।  

अक्सर ऐसा होता है कि मैं माँ के साथ फ़ोन पर बातें करते समय अपने परिवार, परिवेश और नैतिक शिक्षा पर बात करती रहती हूँ। वैसे तो होना यूँ चाहिए कि माँ मुझे इन सब बातों पर भाषण दे लेकिंन होता इसका ठीक विपरीत है।  मैं माँ के सामने बड़ी बड़ी ज्ञान ध्यान की बातें करती रहती हूँ और मेरी माँ बड़े मन और जतन से उन बातों को इस तरह ध्यानपूर्वक सुनती हैं  जैसे उन्हें इन सभी बातों का कोई ज्ञान ही ना हो! मैं उन से जो कुछ भी कहूं, वे कभी उसका प्रतिरोध नहीं करतीं।  और सच कहूं तो उनकी असाधारण रूप से स्नेह और सम्मान देने को एकमेक कर देने वाली यह सहज बात मुझे उनके प्रति अगाध श्रद्धा से भर देती है। 
             
    -- 1 --

स्पेन में मई के प्रथम रविवार को मातृ दिवस मनाया जाता है, जैसे कि आज एक मई को मनाया जा रहा है। माँ को मातृ दिवस पर अनंत प्रेम के साथ बधाई भेज रही हूँ। मेरे पास माँ के लिए लिखा गया एक पुराना पत्र है, अब माँ तो नहीं रहीं, लेकिन उनकी याद प्रति पल जीवित रहती है, आज उन्हें लिखा मेरा यह पत्र अपने ब्लॉग पर साझा कर रही हूँ जो उनके जीते जी उन तक भेजने की कभी हिम्मत  नहीं जुटा पाई। ​

-*-*-*-*--*-*-*-*-*-*-*-*-*-*-*-*-* 


15/09/2019 
मद्रिद 

मेरी प्यारी ममा!

कैसी हो आप?
इस समय यानि इन दिनों, मैं जब भी आप से पूछती हूँ कि ''आप कैसी हो?'', लगता है जैसे मैं कोई अपराध कर रही हूँ। 

मन से और बुद्धि से भी जानती तो हूँ ही कि आप इन दिनों अपार कष्टमय दिन बिता रही हैं। फिर भी पूछने की धृष्टता करती हूँ और स्वयं ही एक अपराध-बोध की गिरफ़्त में सहम सी जाती हूँ। 
लगभग पिछले बारह महीनों से आप कैंसर से लड़ाई लड़ रही हैं और इलाज के नाम पर  थोपी जा रही अंग्रेजी, आयुर्वेदिक या होमियोपैथी,  हर तरह की दवाइयों से दो चार होते हुए शरीर-तोड़ व्यथा से भी जूझ रही हैं। आपके भीतर जो उथल पुथल मची हुई होगी और जो दर्द आप सहन कर रही हैं, मैं वो सब कुछ आपके चेहरे पर पढ़ने की कोशिश करती हूँ। मुझे लगता है आप सारा दर्द बताती ही नहीं हैं हमें। लेकिन जो दिल से जुड़े हों, उन से छुपा लेना सरल नहीं होता, हमें पता चल ही जाती है आपकी असहनीय पीड़ा! 

मैं अपने अंतस की गहराइयों से चाहती हूँ कि आपको  इस पीड़ा से विराम मिले और आप पुनः स्वस्थ होकर सुन्दर जीवन जियें। चाहने की सीमा लेकिन  न्यूनतम  दायरा रखती है। मैं हर तरह से कोशिश करके भी आपको स्वास्थ्य देने में विफल रही हूँ और यह विफलता मुझे भी अत्यंत पीड़ा देने वाली साबित हुई है। आपको तुरंत स्वस्थ लाभ प्राप्त करने की कोशिश में  ऐसा भी हुआ कि कई बार हमने बेहद क्रूर हो कर आपको दवा निगलने के लिए मजबूर कर दिया, जिसे आप न चाहते हुए भी निगल जाती हैं। कई बार यूँ भी होता है कि बड़ी ही निर्ममता से आप इंकार कर देती हैं दवा लेने से और तब हम तीनों भाई-बहन आपकी ज़िद के आगे हतोत्साहित हो जाते हैं।   

जानती हो, मेरी कल्पना क्या कहती है? यह कहती है कि किसी तरह आपके तन में प्रवेश कर जाऊं और तुरंत बाहर निकाल लाऊँ उस उद्दण्ड कैंसर रूपी ग्रंथि को जिसने आपको भयंकर कष्ट दिया है! लेकिन दुखद है यह कि मैं ऐसा कर पाने में भी असमर्थ हूँ। 

जब मेरी सभी असमर्थता मेरे समक्ष प्रकट हो जाती हैं, मेरी आँखों के आगे भीषण उत्पात करने लगती हैं, मैं अपनी तमाम कोशिशों से निढाल हो जाती हूँ और तब मैं हार मान कर आपसे कह देती हूँ कि आप अपना बहुत ध्यान रखिये।  ( मन मैं तब यही ​विचार ​आता है कि मैं तो इस लायक भी नहीं कि आपका ध्यान रख पाऊं! )

इस समय बहुत प्यार आपको प्यारी मम्मा!​ 
आपकी गुड़िया 



मंगलवार, 26 अप्रैल 2022

मेरे प्यारे मोहन भैया





जन्म लेते ही माता पिता, दादा दादी, नाना नानी इत्यादि परिवार के 
सदस्य इकट्ठे ही लगभग प्रत्येक बच्चे को उपहार स्वरूप मिल जाते हैं। 
मेरे पिता का परिवार बड़ा था सो साथ में छह चाचाजी और तीन बुआ जी ​ 
उपहार मिले, ​ दूसरी तरफ माँ के परिवार से तीन मामाजी और तीन मौसीयाँ 
भी उपहार में मिलीं। माँ और पिताजी, दोनों ही अपने अपने 
भाई बहनों में सबसे बड़े थे। 

मैं आज बात करूँगी मुझे मिले एक अनमोल उपहार मेरे तीसरे नम्बर के 
चाचाजी यानी पिता के बाद चौथे नंबर के भाई, हम सब के प्रिय​,​ मोहन भैया की। 
जब हम छोटे थे, तब किसी ने चाचा की जगह भैया कहना सिखा दिया था, 
तब से मोहन भैया और उनसे छोटे तीन चाचाजी को हमने 
हमेशा भैया कहकर ही पुकारा। रिश्ता भी हमने सदैव उसी तरह 
भाई बहन सरीखा निभाया। हम उन्हें राखी बांधते, वे ​ आशीर्वाद स्वरुप ​
हमें गिफ़्ट या पैसा देते। ​ किस्मत से​ बचपन में ​ भरे पूरे  ​संयुक्त परिवार 
में रहने का अवसर मिला जो कि बाद में समय के साथ एकल 
 परिवार में बदल गया। लेकिन जो नहीं बदला, वह था 
हमारा आपस का प्रेम। हम चाहे कितना भी दूर रहे किन्तु 
बचपन वाला प्रेमपूर्ण ​, सौहार्द्र वाला ​व्यवहार सदा कायम रहा। 

मुझसे सत्रह साल बड़े मोहन भैया बड़े ही मनमोहक दिखते थे,
 मोहन नाम के अनुरूप ही मोह लेने वाली atyant सुन्दर सूरत और 
सीरत पाई उन्होंने। ​।जब भी उन्हें देखो तो वे मुस्कुराते हुए ही दिखते।  
पढ़ने में बेहद मन लगता था उनका तथा ईश्वर ने उन्हें कुशाग्र बुद्धि 
प्रदान की थी। कहते हैं कि छठी कक्षा की परीक्षा उत्तीर्ण करने के 
पश्चात् उन्होंने सीधे दसवीं कक्षा की परीक्षा दी थी। घर में हम सभी उनकी 
प्रतिभा का लोहा मानते थे। उनकी हस्तलिपि भी हमेशा अद्भुत सुंदर रही। 
स्वभाव से वे जानकारी एकत्रित करने के शौकीन थे, अत: सवाल खूब 
पूछते थे। मुझे याद है ​ कि वे ​हमें भी पढ़ाई की तरफ प्रेरित करते they।

सम्पूर्ण परिवार में वे हर एक के चहेते तो थे ही, ​ उनकी सलाह प्रत्येक 
कार्य हेतु ज़रूरी थी, साथ ही यदि किसी से दोस्ती करते तो बड़े ही 
जतन और मन से दोस्ती भी निभाते थे। कभी कोई नाराज़ हो जाए 
तो बड़े प्यार से हंस कर मना लेते उसे। मिल बाँट कर हँसते हँसते 
ज़िंदगी जीने का हुनर सिखाते थे मोहन भैया। योग करने के लिए न 
सिर्फ स्वयं कदम आगे बढ़ाते बल्कि दूसरों को भी प्रेरित करते। 
मेहनती इतने कि दुकान के कामकाज के अलावा प्रतिदिन समाज सेवा 
के काम के लिये भी तन मन धन से जुटे रहते। अपने परिवार के साथ 
समय बिताने में भी पूरी लगन से आगे रहते। इतना काम करने का 
नतीजा यह होता था कि कभी कभी हम सबसे बात करते करते 
ही उन्हें कहीं भी नींद आ जाती थी, फिर अचानक से उठ बैठते 
और पूछते कि जो बात चल रही थी, उसका क्या हुआ! 
उनकी इस भोली सी अदा पर हम सब हंस पड़ते थे। 

उनके किस्से परिवार तक सीमित नहीं थे। व्यापार हो, बैंकिंग हो, 
घूमना फिरना, पिकनिक, पारिवारिक भोज की व्यवस्था हो या 
समाज में जुलूस का प्रबंध करना या फिर अखबार में समाचार 
देने की व्यवस्था करना हो, प्रत्येक कार्य को ऐसी कुशलता मगर इतनी 
सहजता से कर देते कि लगता यह केवल उनके ही बस की बात थी। 
घर परिवार में किसी को कोई समस्या आ जाए तो आधी रात उठकर 
भी मदद करने को चल देते थे। वे बच्चो के साथ बच्चा बन जाते और 
बड़ी सरलता से उन्हें भी दोस्त बना लेते। ​यहाँ तक कि ​​वे जब स्वयं 
​नाना बने तो नन्हे से नाती को भी अपना दीवाना बना दिया। ​

वे जब 80 के दशक में बिज़नेस ट्रिप से सिंगापुर घूमकर लौटे तो 
हमारे लिए बड़े ही आकर्षण का केंद्र बन गए। इतनी बड़ी टी वी लाए 
वहाँ से कि उस ज़माने में कभी हमने सोची भी न थी। ​हर तरफ उनकी 
विदेश यात्रा की चर्चा होती और हम बड़ा गर्व 
अनुभव करते कि ये हमारे अपने मोहन भैया हैं। ​

​जब ​हम बड़े हुए, ​तो ​पिता जी की अनुपस्थिति में हम हर काम में 
उनकी सलाह लेते। मेरी शादी में भी उनका आशीर्वाद मिला। बाद में ​ 
मेरी ससुराल में फोन करके ​मेरा हाल चाल हमेशा लेते थे वे।
मेरे​ ​मेड्रिड आने के बाद भी मेरे निरंतर संपर्क में रहे मोहन भैया,
पत्र या ईमेल ​ भी ​लिखते थे।

​जब मैं ​मद्रिद से उदयपुर लौटती तो ऐसी प्रसन्नता से वे सुबह शाम 
मुझसे मिलने माँ के घर आते थे, कि पिता की कमी महसूस न होने देते कभी। 
मन ऐसा जुड़ा था उनसे भावनात्मक स्तर पर कि पिता और 
बेटी जैसा ही संबंध अनुभव होता है मुझे। 

तब उन दिनों में भी, जब विदेश फोन करना बडा ही खर्चीला हुआ 
करता था ​तब भी एक ​पिता की तरह जिम्मेदारी निभाते हुए मुझसे फोन 
पर बात करते रहते थे, और तब भी जब व्हाट्सएप्प जैसी सुविधा मिल 
गई​ तो भी बात हुआ करती उनसे​। ​संयोग से आखिरी बार अपने दुनिया से  
कूच करने से एक दिन पहले ही उन्होंने मुझसे बात की थी। 

मेरे पिताजी को बहुत जल्दी ईश्वर ने अपने पास बुला लिया था। 
2020 में माँ भी वहीं चलीं गईं। और अब मोहन भैया भी अपने 
भाई भाभी के संग हो लिये। गुरुवार 21 अप्रैल की शाम को मंदिर 
में प्रणाम करने को नतमस्तक हुए तो वहीं ईश्वर को समर्पित हो गए। 
आत्मा का परमात्मा में विलीन होने का इस से अच्छा क्षण क्या होगा 
कि प्रभु को स्मरण करते हुए ही प्रभु से जा मिलें! इस विदा होने से 
एक दिन पहले ही उन्होंने मुझे कॉल किया था और पौन घंटा 
क़रीब बात करते रहे। कह रहे थे कि इलाज से अब आँख की रोशनी 
लौट रही है तथा वे जल्दी ही आँखों के डॉक्टर से मिलने दिल्ली जाएँगे। 
तब यह पता भी न था कि वही उनसे अंतिम बातचीत होगी। 
अब उनकी राह में रोशनी ही रोशनी होगी, दुनिया के सर्वश्रेष्ठ 
डॉक्टर के पास जो पहुँच गये हैं मेरे प्यारे भैया। हमारे पास अब उनकी 
अनन्त यादें बाकी हैं, जिनके जरिये वे हमारे साथ हर पल बने रहेंगे। 
हाँ, अपनी ढेर सारी जिज्ञासाओं के साथ वे अब वहाँ ईश्वर से खूब सवाल कर रहे होंगे। 

मेरे सबसे छोटे चाचाजी ने बताया कि मोहन भैया की दृष्टि बाधित होने 
के बाद किसी दिन वे मंदिर जा रहे थे तो किसी ने उनसे कहा कि कुछ दिखता 
तो है नहीं, आप क्या करोगे मंदिर जाकर? 
तब मोहन भैया ने बड़ी सहजता से 
मुस्कुराकर जवाब दिया कि, “ मैं नहीं देख सकता 
मगर भगवान तो मुझे देख सकते हैं न!” 
तो ऐसे थे वे धुन के पक्के और दृढ़ विश्वास से भरपूर। 

यह सब लिखते हुए ​बार बार ​आँसू उमड़ रहे हैं। 
एक और बार, पिता से बिछड़ने का दुख झेल रही हूँ। 
आपकी अपनी दो बेटियों के अलावा यह बेटी भी आपको 
खूब याद कर रही है मोहन भैया! 
मो​बेश मेरे जैसी ही स्थिति परिवार में सबकी है। 
इतने अपने हो आप मोहन भैया कि सदैव सदैव दिल में रहोगे। 
-पूजानिल​