सोमवार, 8 अक्तूबर 2018

मरीचिका

हम धीरे धीरे ख़त्म हो रहे थे 
जैसे एक बादल बूँद बूँद बरस रहा हो 
देर तक हवा में झूलने की इच्छा लिये हुए। 
हम कम कम ख़्वाब देख रहे थे 
मानो सारा ख़्वाब अाज ही देख लिया 
तो सारी सांसें भी आज ही ख़त्म हो जायेंगी। 
हम और जीना चाहते थे, 
लेकिन धरती भारी हुई जा रही थी 
और हमारा मरना निश्चित ही तय था। 
हमारे पास नीले गुलाब थे 
किन्तु अनदेखे लाल गुलाब की अबूझ आस ने 
साँस को जन्मों तक अटकाए रखा। 
हमारी हड्डियाँ हर रोज़ चूरा हुए जा रहीं थीं 
और हम दिन रात नाहक ही प्रेम प्रेम रट रहे थे। 
कोई तमाशा चल रहा था आँखों के आगे, 
टाँगे मरगिल सी थीं, 
किन्तु मन ठुमकता रहा प्राण चलने तक। 
-पूजा अनिल

1 टिप्पणी:

  1. आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल बुधवार (10-10-2018) को "माता के नवरात्र" (चर्चा अंक-3120) पर भी होगी।
    --
    चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
    जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
    --
    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
    सादर...!
    राधा तिवारी

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