गुरुवार, 28 अप्रैल 2011

दया. क्रोध, स्नेह... जाने क्या?




मन में उठते विचारों को बुहारते हुए,
कभी दिल करता है कि इन्हें,
छोड़ आऊँ किसी एक चौराहे पर,
जहां आते जाते राही,
चुन कर ले जाएँ,
अपने मन पसंद विचार,
और उन्हें अमर कर दें... मेरे नाम के बिना.

फिर कभी उन्ही को चुन कर,
सहेज कर रख लेने का मन करता है,
कि एक सुन्दर से चित्रकारी किये हुए,
टीन के डिब्बे में,
बेतरतीब... डाल कर रख दूं इन्हें
और मैं सुनती रहूँ,
इनके खिलखिलाने का स्वर.

और जब दम घुटता हो इनका,
तब इनकी चीख पुकार सुन,
दिल से बाहर निकाल सहला दूं
अपने प्यार भरे स्पर्श से...
और इनके आंसुओं को विदा कर दूं
चाँद की डोली संग
ताकि इनकी हंसी
हवाओं में देर तक गूंजती रहे.


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