रविवार, 12 सितंबर 2010

फुदकते हुये चाँद को देख फुदकने लगती तुम

तुम्हारा और मेरा मिलना
मेरे लिये सबसे ज्यादा
ख़ुशी के पलों का आना होता ,
मैं तुम्हे चाँद कहता
और तुम निर्विकार, निस्पृह बैठी रहती,
यूँ लगता जैसे प्यार के उन पलों को
खो देने से पहले समेट कर
मुझे ही भेंट कर देना चाहती हो,
मैं पूछता तुमसे, "अपने लिये क्यों नहीं रख लेती कुछ पलों को? "
तुम कहती,"तुम हो ना मेरे लिये"
और मैं पुलकित हो
तुम्हे ऐसे कितने ही पल देता
जो फिर से तुम्हे "यही" कहने पर बाध्य करते....
पर
जब नीले काले आसमान का चाँद
दीखता तुम्हे,
तुम बदल जाती....
(ना जाने कितने रूप लिये हुये हो!!!!!!!!!)
फुदकते चाँद को देख,
हिरनी सी फुदकने लगती तुम भी,
तभी,
गोल गोल रोटी सा आकार देख
अचानक याद आ जाते तुम्हे
आज कई हज़ार भूखे रहे बच्चे
और
चाँद की असमतल ज़मीन पर
गिनने लगती
तारे बन चुके बच्चों की संख्या को
और
मैं गिना करता तुम्हारे आंसुओं को
जो मेरी हथेली में समाने से इनकार कर
फुदक पड़ते या लपक लेते
तुम्हारे चाँद की तरफ....
तुम कहती,
"चलो, हमें उस घर जाना है,
जहां बच्चे अकेले पलते हैं,"
"अनाथालय" कहना
बच्चों की तौहीन लगता तुम्हें,
कई बार सोचा, कह दूं तुमसे,
कि चाँद को रोटी कह देने से
वो रोटी नहीं हो जाता,
फिर तुम्हारी भावनाओं को
आघात पहुंचाए बिना
मैं कह देता हूँ,
चलो, तुम और मैं मिलकर
चाँद को रोटी और
सितारों को आलू बना दें
और
ले चलें उस घर ,
जहां अकेले बच्चे पलते हैं
और
साथ ले चलें
मेरे- तुम्हारे प्यार की रजाई,
आज... यहीं....
तुम और मैं भगवान बन जाएँ
और
रच दें एक ऐसी सृष्टि जिसमें
कोई बाल गोपाल भूख से ना मरे
ना ही शीत से कंपकंपाये....

22 टिप्‍पणियां:

  1. वाह, क्या कविता है!
    फुदकते चाँद को देख,
    हिरनी सी फुदकने लगती तुम भी!

    वाह!

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  2. सुंदर शब्दों के साथ.... बहुत सुंदर अभिव्यक्ति....

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  3. बेहद ही खुबसूरत और मनमोहक…
    आज पहली बार आना हुआ पर आना सफल हुआ बेहद प्रभावशाली प्रस्तुति
    बहुत ही सुन्‍दर प्रस्‍तुति ।

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  4. चलो, तुम और मैं मिलकर
    चाँद को रोटी और
    सितारों को आलू बना दें
    और
    ले चलें उस घर ,
    जहां अकेले बच्चे पलते हैं
    और
    साथ ले चलें
    मेरे- तुम्हारे प्यार की रजाई,

    बहुत ही सुंदर रचना, जितने सुंदर भाव, उतनी ही सुंदर रचना

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  5. कविता अच्छी बनी है....ये पंक्तियां बहुत सुन्दर हैं...तस्वीर बनातीं हैं...
    मैं तुम्हे चाँद कहता
    और तुम निर्विकार......निस्पृह बैठी रहती,...

    साधारण से प्रेम-द्रश्य से शुरुआत करती कविता...

    और मैं पुलकित हो
    तुम्हे ऐसे कितने ही पल देता
    जो फिर से तुम्हे "यही" कहने पर बाध्य करते...
    :)

    जब नीले काले आसमान का चाँद
    दीखता तुम्हे,
    और तुम बदल जाती
    न जाने कितने रूप लिये हुये हो...!
    जो अचानक मोड़ लेती है..पूजा की खासियत है..


    और...कि चाँद को रोटी कह देने से
    वो रोटी नहीं हो जाता.........केवल इस कविता को नहीं...हर कविता पर सोचने के लिए मजबूर करता है ...

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  6. इस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.

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  7. bahuut hi sundar rachnaa hai my cutie mumaa....assha hai aagai bhi aisi hi sundar kavitaa dekhne ko milengi:

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  8. चाँद को रोटी और
    -आ सितारों को आलू बना दें
    और
    ले चलें उस घर ,
    जहां अकेले बच्चे पलते हैं
    और
    साथ ले चलें
    मेरे- तुम्हारे प्यार की रजाई,
    आज... यहीं....
    तुम और मैं भगवान बन जाएँ
    और
    रच दें एक ऐसी सृष्टि जिसमें
    कोई बाल गोपाल भूख से ना मरे
    ना ही शीत से कंपकंपाये...

    क्या बात है ,

    क्या बात है
    बहोत ही खूबसूरत है यह कविता और मर्मस्पर्शी भी

    जवाब देंहटाएं
  9. मैं तुम्हे चाँद कहता
    और तुम निर्विकार, निस्पृह बैठी रहती,

    तुम कहती,
    "चलो, हमें उस घर जाना है,
    जहां बच्चे अकेले पलते हैं,"
    "अनाथालय" कहना
    बच्चों की तौहीन लगता तुम्हें,

    चाँद को रोटी कह देने से
    वो रोटी नहीं हो जाता,
    .................
    पूजा जी,
    आपकी रचना काफ़ी महीनों बाद पढ़ी...
    अभी नीलम जी से लिंक प्राप्त हुआ..
    ऊपर कि कुछ पंक्तियाँ लाजवाब हैं..
    कविता शुरु हुई तो लगा कि प्रेम-कविता.. वो प्रेम कब स्नेह में बदल गया और कब दिल-दिमाग पर असर कर गया पता ही नहीं चला...
    बहुत बढ़िया..

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  10. Tapan ji mai aap ki baat se puri tarah se sahmat hu jab maine kvita padna shuru kiya to muje bhi laga ki ye ek prem kavita hai ...lekin jab pura pada to dil ko chhu gayi. mai yanha par ek link pest kar rahi hu..aap sab se nivedan hai ki aap iase din mai ek baar jarur se click kare..isa kar ke aap un baccho ki madad kar payenge jin kae baar mai puja ne likha hai...

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    Tanuja

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  11. संजय भास्कर जी,
    बहुत बहुत धन्यवाद.
    एक बूँद पर आपका स्वागत है, पुनः पधारियेगा.

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  12. बहुत बहुत आभार डा. रूपचन्द्र शास्त्री जी.

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  13. मनु जी,
    आपने कविता को बहुत ध्यान से पढकर उसकी और मेरी दोनों की खासियत बता दी :) :)
    बहुत बहुत धन्यवाद .

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  14. जरूर क्षितिज बेटा,
    आपकी कामना अवश्य पुर्ण होगी.
    कविता पसंद करने का शुक्रिया.

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  15. नीलम जी,
    आपको कविता इतनी पसंद आई कि आपने औरों को भी पढवाया, हम खुशकिस्मत है कि आपने इसे पसंद किया.
    तहे दिल से शुक्रिया.

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  16. तपन जी,
    करीब एक साल से यह कविता मेरे मोबाइल में पल रही थी, काफी उतार चढ़ाव देखने के बाद इसको यह अंतिम रूप मिला. दरअसल अनाथ आश्रम और भूख पर ही लिखी गयी है. अधिकतर कविता प्रथम पंक्ति से विकसित होकर अंतिम पंक्ति तक जाती है, किन्तु इस कविता ने अपना सफर अंतिम पंक्तियों से शुरू किया था... :).
    आपको भी बहुत बहुत धन्यवाद.

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  17. शुक्रिया तनुजा,
    कविता पसंद करने के लिए भी और भूखे बच्चों के लिए कुछ कर पाने के लिए लिंक देने के लिए भी.

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  18. बेहतरीन ख्यालों पर रची बेहतरीन कविता...भले ही एक साल से सोच रही हो इस कविता के बारे में..लेकिन तुम्हारे इसे लिखने के बाद इसका पढ़ना हमें अब नसीब हुआ..धन्यबाद और शुभकामनायें !

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