मंगलवार, 20 अक्तूबर 2009

एक रक्षा कवच

तुम्हारी मीठी बातें,
मुझे ही नहीं,
मोह लेती हैं बाकी सब को भी,
इन बाकी ´सब´ में शामिल हैं,
तुम्हारे दादा-दादी, नाना - नानी,
और मोहल्ले के सभी
चाचा- चाची, भुआ, भैया और दीदी.

तुम्हे देख कर चहक उठता है मन,
दौड़ जाती हैं खुशियों की लहरें,
फिर अचानक आती है एक लहर भय की,
कहीं नज़र ना लग जाये तुम्हे.......!!!!
इसीलिए...
सोचती हूँ कि तुम्हारी सलामती के लिए,
हो आऊं पंडित जी के पास,
और एक रक्षा कवच बनवा लूं.

फिर उठते हैं कई सवाल....
और यह सब अंधविश्वास लगने लगता है,
क्या दुनिया में बुराई इतनी प्रबल है कि,
सोचने भर से किसी का बुरा होगा???
मन कहता है कि,
सच्चाई और अच्छाई की हमेशा जीत हुई है..........
हर बुरी नजर का तोड़,
तुम्हारा भोलापन /मासूमियत है
कौन हानि पहुंचा पायेगा इस ईश्वरीय मुस्कान को....!!!

8 टिप्‍पणियां:

  1. रक्षा कवच आपके इस भावनात्मक प्रगाढता की रक्षा करे

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  2. रक्षा कवच किसी न किसी रूप में तो आजकल आवश्यक है न? सुन्दर रचना. आभार.

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  3. पूजा जी ,
    शुरू में साधारण लगती कविता को आपने जिस लाइन पर ख़त्म किया है ..
    वो मन को भीतर तक छू गया ....
    पता नहीं ऐसा होता है या नहीं...
    लेकिन आपका नजरिया बेहद पसंद आया

    हर बुरी नजर का तोड़ तुम्हारी मासूमियत है...कमाल

    भला कौन हानि पहुंचायेगा इस ईश्वरीय मुस्कान को....?
    बेहद मासूम लगी ये लाइन..

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  4. Sach hai...eshwar ki di muskaankoi nai cheen sakta....per ye bhi sach hai ki hum andh vishwas me je rahe hain...

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