क्या तुम्हें पता है कि
-कितनी दूर तक जा कर लौट आती है मन की आवाज़?
असीम आसमान और निस्सीम समुन्दर की तरह
अनन्त तक चली जाती है आवाज़,
रखी रहती है गुदगुदी बनकर,
मन की आवाज़ वही गुनगुनाहट है
जो तुम कभी-कभी अनचाहे अपने होंठों पर ले आते हो
न, नहीं बना अकूत को नापने का कोई यंत्र, मगर तुम जो मेरे सामने हो, मैंने सुन लिया सब कुछ तुम्हारे मन का!
-कि किसी से बात करने के बाद कितनी बची रह जाती हैं बातें?
एक गुच्छा भर फूल बिखर जाएँ तो बिखर जाती है ख़ुशबूदार बात,
तुमसे की गई अथाह बातों के बाद जाने कितनी ख़ुशी बिखरी होगी, तुम्हें भी तो नहीं पता!
फिर भी मन किया तुमसे कुछ और बात करूँ,
लगा था कि यह तो कहा ही नहीं, जबकि सोच रखा था कि इस बार यह ज़रूर कहना है,
हाँ, बातें तो होंगी अनगिनत, कहे जाने के बाद भी होंगी बातें कई, जो बार बार कही जाएंगी,
क्योंकि मन की पुलक पर सवाल उठाने का प्रश्न ही नहीं!
-कि कितनी रातें हमने चुपचाप बिता दीं, अनमने मन को समझा पाए क्या?
इस अबोले से न तुम राज़ी हो न मैं, फिर भी ढोए जा रहे हैं अनचाहे बोझ की तरह,
अब समाप्त करो इस खामोश स्याह रात को, तोड़ दो चुप्पी की दीवार,
सच कहूँ, यदि तुम वहाँ से आओ और मैं यहाँ से, तो दुगुनी गति से मिटेंगी अहंकार की दूरियाँ,
फिर हम उन अनसुलझी गुत्थियों के ग़ुब्बारे पिन से फोड़ देंगे
और आवाज़ की गुफ़ा में पुलकित मन के बिस्तर पर सितारों संग जगमगाएँगे!
- पूजा अनिल
सुन्दर
जवाब देंहटाएंसच कहूँ, यदि तुम वहाँ से आओ और मैं यहाँ से, तो दुगुनी गति से मिटेंगी अहंकार की दूरियाँ,
जवाब देंहटाएंबहुत सुंदर सार्थक रचना सच कहा आपने अहंकार संवादहीनता का प्रमुख कारण है।मेरे ब्लॉग पर भी आइए और अपनी अनमोल प्रतिक्रिया दीजिए। सादर
बहुत बहुत सुन्दर रचना
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