मंगलवार, 6 अगस्त 2019

स्कूल के मध्यावकाश

स्कूल के मध्यावकाश  

मेरे पास एक दोस्त थी।
उसका होना 
मेरे लिए 
अदृश्य अकथ्य सहारा था।
बहुत सारी लड़कियों की तरह 
वो भी वहीँ थी,
जहाँ मैं भी थी स्कूल के मध्यावकाश में,
जिस तरह अन्य लड़कियों को 
मज़ा आता था 
सतौलिया, पकड़म पकड़ाई 
और कंचे खेलने में 
उसे भी पसंद था ठीक यही,
लेकिन मेरी पसंद अलग थी, मेरे खेल भी अलग थे,
मुझे देखना होता था 
गिलहरियों को पूँछ मटकाते भागते हुए, 
तितलियों को एक पुष्प से दूसरे पुष्प तक मंडराते हुए 
और 
छोटे छोटे कंकड़ पत्थरों को उड़ते हुये,
और बस इसीलिए मैं उन सारी लड़कियों से दूर जा,
ग्राउंड के दूसरे छोर पर दौड़ती, 
देखती गिलहरियों को, तितलियों को 
और अंत में  
चुनती कुछ कंकड़, 
हथेली में रख कर उँगलियों से कुछ इस तरह उड़ाती उन्हें कि वे दूर तक उड़ते हुए जाएँ लेकिन लौट न पायें,
मैं इस बात का रखती ख्याल कि इन कंकड़ पत्थरों से किसी को चोट न पहुंचे,
इस लिहाज से मैं कुछ अधिक ही दूर हो जाती बाकी लड़कियों के झुण्ड से,
खेलती, चुपचाप, किसी से कुछ कहे बगैर, 
वो, सतौलिया खेलते- खेलते अचानक रुक जाती, 
उसकी दृष्टि, कुछ खोजते हुए मुझ तक आकर रूकती, 
वो, अपना खेल छोड़ कर पूरा स्कूल ग्राउंड दौड़ कर पार करते हुए मुझ तक चली आती,
मुझे देख मुस्कुराती किसी गाँव की बाला सी निश्छल 
कुछ शरारत और कुछ आग्रह से कहती, '' आओ, देखें, आज किसका कंकड़ दूर तक उछलता है?'' 
मैं मुस्कुराती और चुने हुए कंकड़ दोनों के बीच बाँट लेती। 
वो जीत रही होती थी  
फिर हारने लगती थी,
उसे उस हार में मज़ा आता,
उसे मेरे चेहरे पर जीत का निशान देखने में मज़ा आता,
वो तब तक हारती जब तक सभी चुने हुए कंकड़ समाप्त न हो जाएँ,
फिर मेरा हाथ पकड़ जल्दी से मुझे उड़ा ले जाती, कहती, ''चलो, अब मेरे साथ सतौलिया खेलो!''
अब मेरी बारी आती,
मैं हारती, मुझे मज़ा आता,
वो जीतती, मुझे ख़ुशी होती, 
इस तरह हमारे स्कूल के मध्यावकाश खुशियों की सौगात बन जाते। 
स्कूल से कॉलेज के सफर में हम बिछड़ गए। 
फिर मुलाक़ात होने में बीत गए कई वर्ष। 
एक दिन मुझे बड़ी तेज स्मरण हुआ उसका और 
किसी मित्र से पता पूछ उसका, पहुंची उसके घर। 
लेकिन मैं नहीं जानती थी कि उसका पता अपनी पुस्तिका में मृत्यु देव ने भी  कर लिया था दर्ज! 
भीषण गठिया रोग से वो वो चुकी थी बेजार, 
किसी के सहारे के बिना हिल सकने में भी थी वो तो लाचार,
मेरा दिल वहीँ एक पल में मर गया कई कई बार 
मेरी आँखों में आँसूं भर भर कर बह जाने को थे बेकरार, 
लेकिन मैंने उसे संभाला और उसने मुझे,
कुछ देर के लिए मैं गई थी किन्तु घण्टों बैठी रही उसका हाथ पकड़,
उसने कहा था, ''शायद आज के बाद मैं तुमसे कभी मिल ना पाऊं!'' 
अब हम दोनों के आँसूं बाँध तोड़ बह निकले,
वहीँ एक दूसरे को थामे हुए  
हम दोनों तितलियों की भांति फूल फूल मंडरा आईं,
हम दोनों ही गिलहरी की तरह दौड़ रही थीं,
हम दोनों के पत्थर कंकड़ वहां तक उछल रहे थे जहाँ से कोई लौट कर नहीं आता, 
हम दोनों सतौलिया में जीत गईं  
किन्तु मृत्यु देव के आगे हार गईं। 
हाँ, मैं गर्व से कह सकती  हूँ, मेरे पास भी एक दोस्त थी,
जिसका होना मेरे लिए अदृश्य अकथ्य सहारा था।
-पूजा अनिल 




 




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