शुक्रवार, 7 जनवरी 2011

कंटीली झाड़ी का प्रेम



अनियमित बिंदु के मध्य ,
संतुलित आकार लिये,
उन दोनों का मिलना,
नियति का
सांकेतिक खेल नहीं कहा जा सकता,
कुछ और उम्मीदों में डूब कर ,
उनकी आँखें नीली नहीं हुई होंगी...
किसी और संपर्क की प्रेरणा से ,
उन्होंने यह प्रेम राह चुनी होगी...
क्योंकि
दोनों के मिलने से उठी
वजनदार और निश्चित गोलाई की तरंगें
सृष्टि के अंतिम छोर तक
महसूसी गई थी,
आल्हाद और सुन्दरता का
अद्भुत जादू था बिखरा
इसी जमीन पर,
देखा जिसे खुशनुमा फूलों ने भी
और पहरेदार काँटों ने भी,
लड़की के नरम गाल.
गुलाबी आभा लिये और निखरे थे,
लाल हो जाने की हद तक ...
लड़के के साहस पर
प्रकृति ने मुहर लगाईं थी.
अपना अंशदान दे कर...
फूल सरलता से ग्राह्य कर मुस्कुरा दिये ,
कांटे अपनी गिरफ्त में लिये
उन्हें उलझा गये,
प्रेम का लगे तोड़ने एका
बन कर पहरेदार,
कंटीली झाड़ी ने किया
दोनों को तार तार,
प्रेम के आंसुओं ने भी
आखिर मानी हार,
जिद काँटों की
निर्ममता पर उतर आई,
चिंदी चिंदी हुये
दोनों के अरमानों से
उसने कंटीली झाड़ी सजाई,
प्रेम सह ना पाया
यह निर्दयता,
नम ह्रदय से उसने
ली दोनों से विदा,
जुदा हुये अस्तित्व को
भला किसने है पाया....
संदेह के काँटों से
भला कौन जीत है पाया?

10 टिप्‍पणियां:

  1. अच्छा शब्द-चयन.... संवेदना से भरी कविता। आपको अशेष बधाइयां.....

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  2. wah-2 kya likha hai aapnai. ek dum katuu satya........ yeh prem karna bhi asaan nahi hai..bahuut badiyaa kavitaa keep it mum:)

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  3. Ik khwaab pe lahra ke uthe jism bhi, jaan bhi, is khwaab pe dono hi pashemaan the agarche.

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  4. adbhut rachana...lajbab shabd sanyojan..
    samvedana se bharpur...hridayashparshi..!!

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  5. बहुत खूब पूजा जी... इसी तरह लिखती रहें।

    धन्यवाद,
    विश्व दीपक

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  6. पहली दफा ब्लॉग पर आया और एक बेहतरीन कविता मिली.....क्या दर्शन है और क्या दर्द है...बहुत खूब...

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  7. वाह ! बहुत सुंदर संवेदनशील रचना...

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