बुधवार, 28 फ़रवरी 2018

निर्बंध


कभी भविष्य में और कभी अतीत में 
जीने की विवशता से 
मुक्ति पाना आसान नहीं होता
पर  समय की इस तेज धारा में
मैं ' आज'  और ' अभी'  के 
संयोग से मिले
'
इसी पल''  में जी रही हूँ
मैं देख रही हूँ हर ' एक क्षण'  को
अपने सामने ' मचलते हुये'
और उसी पल
फिसल कर ' चले जाते हुये'
जब तक लिखती हूँ ' यह´ शब्द
इसकी जगह ले लेता है नया कोई शब्द,
और मैं इस बार आने देती हूँ
प्रत्येक नवीन शब्द को 
अपनी स्वतंत्र गति से,
मेरे विचारों की
बनावट से मुक्त,
मेरे पुरानेपन की
संवेदनाओं से भी मुक्त।
ठीक वैसा ही जैसा
होना चाहिए एक नहर को
जैसे होना चाहिए आकाश को
जैसा होना चाहिए जीवन को...
हाँ... ठीक वैसा ही
निर्बंध..
मुक्त हरअतीत'  और ' भविष्य'  से।
   


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