बुधवार, 6 मार्च 2024

जीवन जीना मत टालो


 इन पुरानी हो चुकी 

झर्झर दहलीजों के पीछे, 

कभी ज़िंदगी से लबरेज़ 

गुनगुनाहटें गूँजती होंगी! 

कच्चे आटे की महक 

और पके आम की ख़ुशबू 

सरसरातीं होंगी! 

देखो, आज यह सब 

कैसे ख़ामोश हैं! 

मानो, कह रहे हों कि 

रोटी की दौड़ दौड़ते, 

टुकड़ों में समय का 

मटका फूट जाएगा। 

पल दो पल में ही, 

सदा सलामत रहने का 

यह भ्रम टूट जाएगा। 

मेरे सूखे दर्द की चौखट पर,

मौन पड़ी जलधार का,

यह इशारा है कि आज 

जीवन जी लो क्योंकि 

जीवन ख़त्म होने के बाद,

कोई आशिक़,

वह माशूक़ तराना,

लौटा न पाएगा! 

-पूजा अनिल

शुक्रवार, 26 जनवरी 2024

नित उन्नत ज्ञान

 हम आसमान के तारों को फूल क्यों नहीं कहते?

फूलों को  सितारे क्यों नहीं कहते? 

हवा को पानी और 

अग्नि को भूमि क्यों नहीं कहते? 

कभी सोचा है कि 

कितनी नवीनता से देखती है,

इस विशाल जहान को

नन्हें बालक की अविराम दृष्टि?

जिज्ञासाओं में डूबे बच्चों को

हम नये शब्दकोश रचने का 

वितान क्यूँ नहीं देते? 

बस, रटवा देते हैं केवल उतना सा ज्ञान, 

जो हमारी थोड़ी सी इंसानी बुद्धि समेट पाई!! 

क्यों? 

क्योंकि हमने भी तो केवल 

इतना कम ही जाना और सीखा। 

बंधनों और व्यर्थ नियमों में जीना, 

निरर्थक बातें सुनना,

अकारण सिर हिलाना, 

समर्थन दर्ज करवाना, 

बंद मस्तिष्क के साथ, 

सवाल पूछने से पहले ही, 

किसी के वक्तव्य पर 

सहमत हो जाना, 

- ख़ामोश जी कर- 

बंधी चुप्पी में मर जाना। 

- हमारे देखते देखते- 

नन्हे बच्चे इस सुविधाजनक 

अव्यवस्था को तोड़ देंगे, 

अपने लिए नए शब्द और परिभाषाएँ 

वे स्वयं गढ़ेंगे। 

तब सितारे को धरा और 

धरती को अविश्वास कहेंगे। 

हवा को उम्मीद और 

जल को चमत्कार कहेंगे। 

नहीं! संभवतः बच्चे कहीं नहीं हों! 

बच्चों के सुकोमल स्पर्श के लिए 

पहले हम प्रयोगशाला का 

दरवाज़ा खटखटाएँगे।

यदि बच्चा पाने में 

सफल हो गए, 

तो……., 

फिर से उन्हें अपना घिसा पिटा 

शब्दकोश रटवाएंगे। 

-पूजानिल

सोमवार, 11 दिसंबर 2023

कपड़ा बाज़ार और प्रकृति



 आजकल हम कपड़े ख़रीदने जाते हैं तो किसी किसी स्टोर में उस पर एक टिकट लगी होती है कि कपड़े में कितना रिसाइक्ल्ड मटैरियल प्रयोग किया गया है। (जैसे यहाँ पर चित्र में देख सकते हैं कि कोई १००% और कोई ९६%।) कपड़े को रिसाइकल करने से उसके कुछ गुण परिवर्तित हो जाते है। 


जैसा कि हम सब जानते हैं कि दुनिया में रोज़ नए कपड़े पहनने की प्रवृत्ति बढ़ती जा रही है और उसका नतीजा यह हुआ है कि इतना अधिक कपड़ा उत्पादन हो रहा है कि अब हमारी धरती इस कपड़ा बाज़ार को संभाल नहीं पा रही है। क्या आपने कभी सोचा है कि दुनिया में इतने सारे कपड़ों का आख़िरी अंजाम क्या होता होगा ? अधिकतर कपड़ा कचरे के डिब्बे में पहुँच जाता है। बाक़ी का कपड़ा रिसाइकल किया जाता है। 


कपड़ा उत्पादन के लिए एशियाई देशों पर उसमें भी भारतीय उप-महाद्वीप में कपड़े बनाने के लिए यूरोप और अमेरिका आश्रित हैं।इसमें  कपड़ा बुनाई से लेकर वस्त्र निर्माण भी शामिल है। यह उन कंपनियों के लिए लाभदायक सौदा है क्योंकि भारत में मुख्यतः लेबर कम दाम पर मिलने और दूसरी तरफ़ उनके देश में बने हुए पर्यावरण प्रदूषण नियंत्रण के सख्त क़ानून से बचने के लिए आसान रास्ता है। स्पष्ट है कि भारत में ये क़ानून अब तक प्रभावी नहीं हैं। और श्रमिक वर्ग को अभी भी कोई उचित दाम नहीं दिया जाता है। 


दुनिया में एक तरफ़ निरंतर फलता फूलता कपड़ा उद्योग है और दूसरी तरफ़ पहले से बने हुए, पहने हुए प्रयोग किये जा चुके कपड़े को दूसरा जीवन देने के लिए कुछ विकल्प सामने आ रहे हैं। जैसे कि कुछ कपड़ा बेचने वाले ब्रांडेड शोरूम आपसे पुराने वस्त्र उन्हें दान देने की पब्लिसिटी करते हैं और उसके बदले उनके शोरूम पर कुछ डिस्काउंट भी देते हैं। वे कपड़ा बनाने वाली कंपनियाँ ही दान में प्राप्त कपड़ों को रिसाइकल करके पुनः अपने स्टोर पर बेच रही हैं। इसी के तहत यूरोप में आजकल एक मुहीम चल रही है वस्त्रों की तरह-तरह से रिसाइक्लिंग की -


1. विभिन्न वेब पोर्टल और एप्प पर आपके वस्त्र किसी और को बेच दें एवं आप किसी अन्य के वस्त्र ख़रीद कर धारण करें। इसमें अमीर गरीब हर तरह के लोग स्वतंत्र रूप से हिस्सा लेते हैं। 


2. आप अपने इस्तेमाल किए हुए कपड़े किसी कंपनी को दान कर दें, वह कंपनी इन कपड़ों को गला पिघला कर नए वस्त्र बना कर पुनः विक्रय के लिए बाज़ार में ले आएगी। इन रिसाइकल किए कपड़ों की विशेषता यह है कि एक तो इसकी धुलाई के लिए विशेष जतन नहीं करने पड़ते और दूसरे इन्हें इस्तरी करने की आवश्यकता नहीं होती। यानि साबुन पानी और बिजली की सीधे तौर पर बचत। 


3.आप अपने परिवार या किसी अन्य व्यक्ति को स्वेच्छा से, बिना किसी उम्मीद के, अपने कपड़े दे दें ताकि वे इन कपड़ों को पहन सके। एक तरह से इसे समाज सेवा मान लें। (भारत में यह विधि हमेशा से प्रयोग होती रही है)। इस तरह के कपड़े अदल बदल और दान हेतु कई शहरों के फ़ेसबुक पेज भी बने हुए हैं जिनके एडमिन तय करते हैं कि दान में प्राप्त कपड़े किसे दिए जाएँ। 


सोचने वाली बात यह है कि क्या वाक़ई हमें इतने कपड़ों की आवश्यकता होती है जितने हम लगातार ख़रीदते रहते हैं?  क्या ऐसा हो सकता है कि आप बिना किसी शर्म के अपने कपड़े रिपीट कर पाएँ? मध्यवर्गीय समाज अक्सर उच्च वर्ग की कॉपी/नकल करने का प्रयास करता है। तो क्या यह ज़िम्मेदारी जब उच्च वर्ग उठाएगा तब ही समाज में अंतहीन वस्त्र क्रय करने पर रोक लगेगी या मध्य वर्ग इसमें पहल करेगा? क्या प्रकृति की पूजा करने वाला भारतीय समाज चेतेगा कि कम से कम इस प्रकार प्रकृति को हानि नहीं पहुँचाई जाए? 


निश्चित ही कुछ लोग सवाल उठाएँगे कि मैं स्वयं प्रकृति संरक्षण हेतु कपड़ों के साथ क्या करती हूँ? तो मैं बताती हूँ कि मैं अपने कपड़े बहुत सारे अवसरों पर  बिना हिचक रिपीट करती हूँ, मेरे सोशल मीडिया चित्र इसके गवाह हैं। बच्चों के छोटे कपड़े दान कर देती हूँ। फ़ेसबुक पेज इसके गवाह हैं। कई बार कपड़ों के बीच अदला बदली भी कर लेते हैं। मैं, बाज़ारवादी संस्कृति के विरूद्ध, तब तक कपड़े नहीं ख़रीदती जब तक आवश्यकता न हो! 

अब आप बताइए कि आप क्या सुझाव दे सकते हैं! 

-पूजा अनिल 


रविवार, 19 नवंबर 2023

स्वयं से पहचान

 पहला, तुम हो 

दूजा, तुम ही हो 

तीसरा भी तुम 

चौथा हुआ कोई 

तो तुम ही होगे 

तुम से पहले भी 

तुम ही थे 

तुम्हारे बाद भी 

तुम्हें ही होना है 

स्वयं के भीतर भी 

तुम ही 

अपने से बाहर भी 

तुम ही 

अस्तित्त्व में तुम 

विलुप्त भी तुम 

गति में तुम 

स्थिरता भी तुम 

कहो, जाना तुमने

तुमसे अधिक कुछ?

- पूजा अनिल 

गुरुवार, 20 जुलाई 2023

प्रेम का स्पर्श

 मैं कितनी देर दरख्त के नीचे खड़ी रही, यहाँ तक कि उसके पत्ते मुझे पहचानने लगे। 

मैंने कितनी बार तुम्हारा नाम लिया, यहाँ तक कि तुम्हारे नाम से पहचानी जाने लगी! 

मैं पत्ता बन कर तुम्हारे आने की प्रतीक्षा नहीं कर सकती इसलिये सम्पूर्ण दरख्त बन कर खड़ी हूँ। 

मैं केवल तुम्हारा नाम नहीं हो सकती इसलिये ज़र्रे ज़र्रे में प्रेम का नरम नाज़ुक स्पर्श बन बस गई हूँ। 

-पूजानिल

बुधवार, 19 जुलाई 2023

उम्र से बढ़कर

 इन्सान

बड़ा होता है, 

बड़ी होती हैं 

उसकी उम्मीदें, 

छोटी हो जाती है 

मासूमियत।

- पूजा अनिल

बुधवार, 14 जून 2023

माँ की तीसरी पुण्यतिथि


 


आज फिर से माँ का दिन है। लेकिन क्या कोई दिन ऐसा है जो माँ का दिन न हो? हर दिन बस माँ और माँ और माँ!! पीड़ा के हर इक पल में माँ अमृत की धारा! 

मैं स्पेन आ गई तो बहुत शुरू मे माँ चिट्ठी के रूप में मुझसे मिलने आती थी। यह उनके संपर्क में रहने का ऐसा माध्यम था कि जब मन होता उनके लिखे को हाथ से छू लिया और माँ का प्यार पा लिया! आज भी वही कर रही हूँ! माँ का आशीर्वाद और प्यार यहाँ से मिलता है! साझा कर रही हूँ उनकी चिट्ठी जिसके प्रत्येक शब्द में ममता कूट कूट कर भरी हुई है । कोई इस स्नेह से अछूता रह ही नहीं सकता  

कितना कुछ मन कहना सुनना चाहता है मगर राहें खो गईं हैं। मम्मा आपको मेरा प्यार पहुँचे। 🙏🙏