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बुधवार, 28 फ़रवरी 2018

कहानी में लड़का 3

 -3 - स्त्री देह में

मुंडेर पर पाँव झूलाता है, सामने
देखता है झूले पर उमगती लड़की
बचपन से सीखा था उसने,
लड़के पतंग उड़ाते हैं
कबड्डी खेलते हैं
तैर कर नदी पार जाते हैं,

झूला लडकियां झूलती हैं,
श्रृंगार के लिए आइना देखती हैं
हंसी ठिठोली में शाम नष्ट करती हैं
तब से झूले पर नहीं बैठा वो
हैरानी होती उसे कि
उसके भीतर कोई स्त्री तत्त्व नहीं रहता!!
जो कुछ था वो क्यों बस पुरुषत्व था?
स्त्री पुरुष का अलगाव उसे बुरा लगता
धारणाओं में बदलाव चाहता था
चाहता था कि उसकी बावरी  
खेतों में उसके साथ दौड़े
तैर कर नदी पार चले
चाहता था कि बावरी के झूले में
वह भी सवार हो चाँद छू ले
कल्पनाओं में कई बार
घेरदार घाघरा चुनर ओढ़
बावरी सा घूमर नृत्य किया उसने
आईने के आगे काजल पहना
माथे पर टिकुली सजाई
कई बार बढ़ाई झूले पर पेंग,
कई बार सेकी बाजरी की रोटी
अपने हाथों से खिलाई प्याज संग
अपनी रूपमती स्त्री को, उसके
पग पखार पंखा झलता रहा
तभी खेत से गुजरती हुई
माँ सामने आ खड़ी हुई उसके
कल्पनाएँ हलकी थी, हवा हुई
माँ के आगे नज़र न उठा पाया
झेंप कर मुंडेर से गिर पड़ा वो
बावरी ने लपक कर थामा
खुद लोट गई उसके पाँव तले
माटी सनी उसकी देह
पुरुषत्व को लगी बल देने.


कहानी में लड़का 2

 -2 - याद गली 
  
वह छत पर उडाता है पतंग 
दौड़ता है रेल की पटरियों पर 
खींचता हैडोर पतंग की तन जाती है 
थम जाती है रेलदिखती है 
खिड़की के पार दादी माँ 
सुबह सवेरे कराती है मंजन 
खिलाती है चाय में डूबा जीरा टोस्ट 
पीछे आते हैं दादाजी 
झक्क सफ़ेद दूध का गिलास उठाये 
ठीक उतना ही गर्म
जिस से न जीभ जले न दिल
उसकी पतंग उड़ान भरती है 
रुक जाती हवा में ही माँ के प्रवेश से 
नहलाकर यूनिफॉर्म पहनाती है माँ 
बुआ खिलाती है दही परांठे का नाश्ता 
सब विदा करते हैं,
स्कूल पहुंचाते हैं पिता 
शाम को लेने आते हैं चाचा 
फिर चल पड़ती है थमी रेल 
समय के अबूझ रथ पर 
हवा में मचल उठती है पतंग 
कसने लगता है मांझा 
पेंच लड़ाता है वो,
चांदनी की छत पर 
(बचपन में उसे चाँद पुकारता था)
देखता था उसके पारभासी कंठ से 
किस तरह उतरता था पानी 
फिर आईने के सामने पिया किया पानी 
अपारदर्शी नेक बोन हिलती 
हंस पड़ता वो 
कुदरत के दोगलेपन पर 
लहू उभर आया है डोर थामे हुए 
उसकी रेल ठहरी प्रथम स्पर्श पर 
झुरझुरी ने हवा दी 
लालायित किया छूने को 
एक बल खाती है पतंग  
आकाश चूमती है 
दौड़ पड़ती है वेगवान रेल 
दोनों पटरियों पर टिकी 
लड़का गिनता है रेल के डिब्बे 
रेल वही हैपटरी वही 
डिब्बों की  संख्या 
बदल जाती है 
हर बार, पतंग नए रंग की. 

कहानी में लड़का 1


-1- आहट

वह लड़का जो उस राह पर
रोज़ करता था प्रतीक्षा,
एक दिन बेचैनी ओढ़
आया तोप सा दनदनाता हुआ और
उड़ेल दिया अपना दिल लड़की को रोक कर।

प्रणय निवेदन से पहले
हज़ार बार लाखों बार
उसने टटोला खुद को, 
धड़कते दिल को थम जाने की ताकीद की 
गुस्साया खुद पर
झल्लाया मन ही मन इस स्वीकृति पर
रोकना चाहा प्रेम को खुद ही तक।

इस सारे गुस्से, झल्लाहट और संकीर्णता से परे
मन की उद्दात लहरों पर
उसने खोजी एक राह उम्मीद की,
दिन भर कवायद के बाद भी
नई ऊर्जा से दमकते हुये
प्रेम में थिरकने का जज़्बा जगाया उसने।

किये कई नाराज़ पल स्वाहा
बस एक प्रेम अनुभूति जीने की चाह में
वो मुस्काया हर उस उदास पल में
जब अचानक खवाबों की तस्वीर ने 
किया जेहन पर कब्ज़ा
जब चूमा उसने अपनी प्रिया को
नशे में या होश में,
जब ऊँगली में फँसी सिगरेट की जलन से याद आया उसे कि
अभी आलिंगन का सुख पेंडिंग है।

हसरतें छलक जाने के पल में,
जब मचल मचल रोया उसका किशोर मन
और ख़यालों में लड़की को समर्पित प्रेम
पुनः पा लेने का हौसला
उसके कंधों पर तमगा बन झिलमिलाया, 
तब आवेग में
किया उसने प्रेम निवेदन,
बिना यह जाने 
कि लड़की ने हज़ार बरस पहले 
उसके आने की आहट 
बंद पलकों पर रखे 
प्रेम के फाहों से सुन ली थी।