2022 में एक हिंदी फिल्म आई थी “शेरदिल- द पीलीभीत सागा”।
संभवतः उस समय पता नहीं चला होगा, लेकिन अब 2025 में नेटफ़्लिक्स पर यह फिल्म दिखी तो देखने बैठ गए।
कहानी एक गाँव के सरपंच की है जो अपने गाँव की भुखमरी मिटाने के लिए स्वयं को मिटाने के लिए तैयार हो जाता है। स्वयं को मिटाने के लिए वह बाघ के सम्मुख जाने का निश्चय करता है ताकि बाघ उसे मार डाले और उसके गाँव वालों को दस लाख रुपए का मुआवजा मिल सके। बाद में फिल्म का अंत बड़ी अप्रत्याशित घटना के साथ होता है।
कहानी बड़ी रोचक है और गाँव के माहौल को बड़ा जीवंत दिखाया गया है। उनकी वेशभूषा, रहन सहन, भाषा, परिवेश, शहरी संस्कृति की अज्ञानता आदि सब कुछ सुंदर बुना गया है। दुख में रचे गए कॉमेडी दृश्य इसे बोझिल होने से बचा लेते हैं और दिलचस्प बनाए रखते हैं।
पूरी भाव प्रधान फिल्म में मन में यह सवाल उठता रहा कि क्या कोई ऐसा बलिदान दे सकता है कि गाँव के लोगों की जान बचाने के लिए स्वयं की जान पर खेल जाए?
और हमें इसका उत्तर अंततः मिला। फ़िल्म के समापन पर यह लिखा हुआ आया कि यह फ़िल्म साल 2017 की एक सच्ची घटना पर आधारित है जब गाँव के लोग जंगल में चले गए ताकि बाघ उन्हें मार दे और गाँव वालों को पैसा मिल सके और उनकी ग़रीबी दूर हो सके।
अब यह सत्य जानकर पूरी घटना दुखदायी लगने लगी। फिल्म की कॉमेडी भी अत्यंत दुखद प्रतीत हुई। भारत में धन की कमी नहीं है लेकिन साल 2017 की आधुनिक दुनिया में भूख से पीड़ित लोग आत्महत्या का मार्ग चुनने लगें तो प्रश्न उठता है कि रोज टनों अन्न कचरे में फेंकने वाले देश में लोग भूख से मरें, क्या यह शर्मनाक बात नहीं है?
सरपंच के रोल में पंकज त्रिपाठी शहरी ऑफ़िसर के आगे हाथ फैला कर कहते हैं कि सरकार ने जो स्कीम उनके लिए बनाई है वो स्कीम उन्हें दे दें तो उस स्कीम को गाँव ले जाकर गाँव वासियों की भूख मिटाने का प्रबंध हो। पीड़ादायक बात यह कि कोई सरकारी स्कीम नहीं मिल पाई उसे।
अनाज से भरपूर आज की दुनिया में कम से कम इतना तो अवश्य होना चाहिए कि कोई व्यक्ति भूख से न मरे! वैज्ञानिक पद्धति से खेती, सिंचाई के साधन, उपज स्टोर करने के नए तरीक़े, उन्नत तकनीक और आधुनिक कृषि उपकरणों का उत्पादन बढ़ाने के लिए उपयोग, आदि से फसलों की पैदावार बढ़ी है किन्तु गरीब लोग इस अनाज के हकदार नहीं? ऐसा क्यों?
-पूजा अनिल

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