बुधवार, 10 मार्च 2010

कुछ यूँ ही....

"तेरे जीने को लम्बी उम्र मांग तो ले पूजा,
फिर सवाल न करना कि मेरी खता क्या थी?"

"दुश्वार जीवन को हासिल ख़ुशी कर दे मौला,
मेरे ग़मज़दा होने की दुआ में तेरी रज़ा क्या थी?"

"ले आज फिर मेरी बलाओं का सदका ए खुदा,
मेरी चाहतों की इस से बड़ी सजा क्या थी?"

आँख से गिरा हर अश्क तेरी दास्ताँ बयाँ किया,
तू ही न सुने तो अश्क की मजबूरी क्या थी ?"

4 टिप्‍पणियां:

  1. पूजा जी,
    कुछ मायूसी सी लिए शे'र....
    मगर जल्दबाजी में कहे लगते हैं...

    एक लाजवाब ग़ज़ल कह सकती थीं आप....ज़रा और वक़्त देती इन्हें तो...

    जो भाव इनमें हैं ..दरअसल वो हर किसी को स्पष्ट नहीं हो रहे हैं...

    और हाँ,
    इन्हें अब स्पष्ट कीजिएगा भी मत...
    गहरे ..सूफियाना भाव लिए ..बहुत सुन्दर रचना...

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