साल बीतने से पहले 
रूठा हुआ समय बीत रहा था..
मन का अधखिला मौसम बीत रहा था 
उदास शामों का नील-पनील स्कार्फ़ 
और चाय का अदरकी सिप बीत रहा था 
कुछ उड़ती ज़ुल्फ़ों के नक़ाब संग 
आसमान का मिज़ाज बीत रहा था 
“मैं” ही कहाँ ठहर पाया..
जाती हुई जगमग रात के साथ ही 
मेरा उद्दंड “मैं” बीत रहा था।
-पूजानिल